मुस्लिम उग्रवाद और साम्यवाद का घातक गठबंधन -जवाहरलाल कौल


साम्यवादी सोवियत संघ, मुस्लिम अलगाववादियों को दबाते दबाते भले ही स्वयं बिखर गया हो और आज भी बचे खुचे रूस के लिए यही कट्टरपंथी एक चुनौती बने हुए हों, लेकिन जहाँ तक भारत का सवाल है, साम्यवादियों और अलगाववादी मुस्लिम संगठनों के बीच स्वतंत्रता आन्दोलन के आरम्भ से ही एक गहरी दोस्ती रही है । भले ही कम्युनिष्टों के लिए साम्राज्यवाद मानव का सबसे बड़ा दुश्मन हो और भले ही इस साम्राज्यवादी और फासिस्ट विश्व के नेता तब ब्रिटेन और जर्मनी में ही रहे हों, लेकिन हिंदुस्तान के बारे में साम्यवादियों, साम्राज्यवादियों और फासिस्टों के बीच षड्यंत्रकारी सहमति रही है । मुस्लिम अलगाववादियों और साम्यवादियों के बीच सहमति और सक्रिय सहयोग की परंपरा आधुनिक भारतीय इतिहास का वह तत्व है जो पिछली लगभग एक सदी से हमारे राष्ट्र को छिन्न-भिन्न करने की कोशिश करता रहा है । इसमें एक हद तक उसे कामयाबी भी मिली है, जो पाकिस्तान के रूप में सामने है | लेकिन हमारी सांस्कृतिक परंपरा की जिजीविषा कुछ ऐसी रही है, कि व्यापक और बहुआयामी आक्रमणों के वाबजूद वह सारे वार झेलकर खड़ा है । स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान कम्युनिष्टों की भूमिका तो सर्वविदित ही है, लेकिन बहुत से लोग शायद नहीं जानते होंगे कि कश्मीर को भारत से अलग करने का षड्यंत्र भी रच गया था और वह अगर नाकाम रहा तो सेना का सामयिक हस्तक्षेप एक कारण तो था ही, स्वयं कम्यूनिष्टों के बीच राष्ट्रवादी और अलगाववादी, दो भिन्न धाराओं में टकराव भी एक कारण था।

१९४७ में भारत विभाजन के बाद रियासतों के विलय के सबाल पर साम्यवादी एक ऐसे भारत की कल्पना करने लगे थे, जो एक देश न होकर बीसियों देशों का समूह होता, जिसमें साम्यवादी क्रांति आसानी से हो सकती थी । इस देश का स्वरुप कुछ कुछ सोवियत संघ जैसा ही होना था । इसलिए मुस्लिम लीग का समर्थन करना एक सोची-समझी समरनीति थी । यह नीति सरदार पटेल की सूझबूझ और कुछ राष्ट्रवादी संगठनों के कारण सफल नहीं हो सकी, लेकिन कश्मीर में इसके सफल होने की अधिक संभावनाएं देखकर कम्युनिष्ट पार्टी ने अपने एक वरिष्ठ नेता को कश्मीर भेजा । इस नेता का काम कश्मीर के कट्टरपंथियों और कम्युनिष्टों के बीच तालमेल स्थापित करना था । उन दिनों के कश्मीर में दो धाराएं चल रहीं थीं, एक शेख अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस और दूसरी मौलवी युसूफ शाह की मुस्लिम कांफ्रेंस । मौलवी युसूफ शाह विभाजन के बाद ही बेहतर राजनीतिक महत्व की उम्मीद में पाकिस्तान चले गए । लेकिन उनके अनुयायियों की बड़ी संख्या कश्मीर घाटी में सक्रिय ही थी, मौलवी के भतीजे मौलवी फारुख अभी महत्वपूर्ण नेता नहीं बन पाए थे । इसलिए माहौल काफी विस्फोटक था, क्योंकि कट्टरपंथियों के पास कोई नेता नहीं था । और उनको आसानी से गुमराह किया जा सकता था । साम्यवादियों की मंशा इन तत्वों को अपने नियंत्रण में लेकर महाराजा का विरोध करने के बहाने भारत के ही विरुद्ध बगावत खड़ी करना था । 

अगर आज इसका उदाहरण देखना है, तो नेपाल में देखा जा सकता है, जहाँ राजशाही के खिलाफ बगावत के नाम पर मार्क्सवादी तत्व नेपाल को साम्यवादी देश में बदलने की हिंसक कोशिश में लगे हुए हैं । इसके लिए भले ही उन्हें नेपाल को चीन का एक प्रान्त बनाना पड़े । लेकिन कश्मीर में कम्युनिष्टों को बहुत कामयाबी नहीं मिली, क्योंकि कम्युनिष्टों में ही एक वर्ग राजशाही के खिलाफ होने के बावजूद इस बात के लिए तैयार नहीं था, कि यह लड़ाई वह साम्प्रदायिक ताकतों के साथ लडें । वे कश्मीर को भारत से अलग करने के पक्ष में नहीं थे । दरअसल एक वर्ग का मानना था कि कश्मीर सांस्कृतिक रूप से भारत का ही एक अंग है, और उसी का हिस्सा बने रहने में इसका हित है । इस गुट के मुखिया थे प्रसिद्ध कश्मीरी कवि दीनानाथ नादिम । कबायलियों की मदद से पाकिस्तान के हमले ने इस वर्ग को खुलकर पार्टी लाइन के खिलाफ आने का मौका दिया । 

‘नहीं गाऊंगा में आज’ 

क्योंकि आज 

जंगबाज जालसाज 

मेरे देश को तबाह करने की ताक में है । 

इस वामपंथी कविता का रुझान उस मन:स्थिति का परिचायक है, जो संकट की घड़ियों में बार बार कहीं न कहीं से मुखर होती है । साम्यवादियों का दुर्भाग्य है कि जब भी उन्होंने कट्टरपंथ के सहारे आगे बढ़ने की कोशिश की है, कालांतर में उसी का शिकार हो गए । अंग्रेजी बाल कविता की तरह मुस्लिम कट्टरवाद का सहारा लेना अक्सर शेर की सवारी ही साबित हुआ है, जहाँ कुछ देर की यात्रा के बाद सवार खुद ही शेर के पेट में चला गया । जल्द ही वहां भी साम्यवादी आन्दोलन का अस्तित्व समाप्त हो गया । 

सवाल उठता है कि आखिर मुस्लिम अतिवाद और साम्यवाद में क्या साम्य है, कि इन दोनों धाराओं में सामरिक सहमति बन जाती है? कम्युनिष्टों के लिए राष्ट्रवाद, विशेष रूप से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद रास्ते की सबसे बड़ी बाधा है । राष्ट्र की अवधारणा साम्यवादी क्रांति को उस तरह का अधिनायकवाद स्थापित करने ही नहीं देगी, जिसके बिना उसका सफल होना और टिके रहना संभव नहीं । वे तत्व जो राष्ट्रीय भावना को कमजोर कर सकें; साम्यवादियों के लिए काफी सहायक साधन बन जाते हैं । भारत में मुस्लिम कट्टरता और जातीय दुर्भावना का इस्तेमाल इसीलिए साम्यवादी नीति के आवश्यक अंग रहे हैं । भारत की सांस्कृतिक परंपरा और दार्शनिक प्रौढ़ता के कारण केबल वे ही तरीके यहाँ सफल नहीं हो सकते थे, जो उन्होंने मध्य यूरोप या मध्य एशिया में अपनाये थे । इसलिए यहाँ आरम्भ से ही एक बौद्धिक मोर्चा भी खोला गया था । समाज और राजनीति शास्त्र के अतिरिक्त इतिहास लेखन को इसका माध्यम बनाया गया । इसमें उन्हें एक और सहयोगी वर्ग मिल गया-स्वयं ब्रिटिश साम्राज्यवादी, जिनके साथ साम्यवादियों ने हाथ मिलाये थे । अंग्रेज भारत का एसा नस्लवादी इतिहास लिखना चाहते थे, जिससे इस देश को एक ही राष्ट्र साबित करना संभव न रहे और आगे जाकर भारत को जातीय और साम्प्रदायिक विवाद में फंसाकर उसकी सभ्यता मूलक पहचान ही समाप्त की जा सके । इस इतिहास लेखन का दूसरा महत्त्वपूर्ण उद्देश्य यह दिखाना था कि वर्तमान हिन्दू भी उसी प्रकार कहीं बाहर से आया था, जैसे अरब और तुर्क आये और फिर अंग्रेज । इसी आधार पर अंग्रेजी राज की स्वाभाविकता सिद्ध करने के लिए विक्टोरिया को मुग़ल शासन की उत्तराधिकारिणी घोषित किया गया । आर्य-अनार्य विवाद का जन्म इसी इतिहास लेखन में देखा जाना चाहिए । साम्यवादियों के इतिहास लेखन का मूल आधार यह नस्लवादी और साम्राज्यवादी ऐतिहासिक व्याख्या रही है । 

१८५७ की क्रांति की असफलता के बाद मुसलमानों के एक बौद्धिक वर्ग ने यही नतीजा निकला कि अंग्रेजों के साथ सीधे टकराव में मुस्लिम समाज का कोई फायदा नहीं है । दोनों विजेता जातियां है, जिन्होंने अपने अपने समय में भारत पर राज किया । दोनों को खतरा बहुसंख्यक हिन्दू राष्ट्र से है । इसलिए अंग्रेजों के साथ सहयोग करना ही हितकारी है । पाकिस्तान का बनना कोई आकस्मिक आवेश की दुर्घटना नहीं है, यह मुस्लिम कट्टरपंथियों, अंग्रेजों और साम्यवादियों के दीर्घकालीन षड्यंत्र का नतीजा है । स्वाभाविक था कि कश्मीर का अलगाव इस योजना का अनिवार्य हिस्सा रहा । कश्मीर - चीन, अफगानिस्तान, रूस और ईरान का संपर्क मार्ग रहा है । ऐसे महत्त्वपूर्ण सामरिक क्षेत्र को प्रस्तावित विभाजन से अलग कैसे रखा जा सकता था? शेख अब्दुल्ला के उदय से मुस्लिम एजेंडा समाप्त नहीं हुआ, उसमें कुछ बदलाव अवश्य आया । शेख साहेब की व्यक्तिगत आकांक्षाओं ने जमायते-इस्लामी और मुस्लिम लीग के माडल के बदले एक व्यक्तिगत सत्ता यानि अरब माडल को सामने रखा, जिसमें उस लोकतंत्र की कोई जगह नहीं थी, जिसके आधार पर भारतीय संविधान बना था ।

आज के हालत में ईसाई दुनिया सीधा हस्तक्षेप करने की स्थिति में नहीं है, लेकिन मुस्लिम अतिवाद और वामपंथी तत्वों के लिए भितरघात के अनेक रास्ते खोले । कश्मीर ही नहीं, भारत के पूरे सीमावर्ती क्षेत्र को अप्रासंगिक बनाने की मुहीम तो जारी ही है । सोवियत संघ के विघटन और दुनिया भर में साम्यवादी विचारधारा के पतन के बाद साम्यवादी तत्व शायद भारत की कमजोर सीमाओं के रास्ते फिर से अपना वर्चस्व स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं । नेपाल में माओवादी बगावत इसका ज्वलंत उदाहरण है । इस चेतावनी को भारत तो नजर अंदाज कर ही नहीं सकता, लोकतंत्र की दुहाई देने वाला पश्चिम भी नहीं कर सकता । 

साभार - पांचजन्य

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