क्यों बढ़ रहा है मुस्लिम युवाओं में आईएस के प्रति रुझान ?


अब्दुल हकीम की हैरत का ठिकाना नहीं रहा, जब उसके 22 वर्षीय बेटे हफीसुद्दीन ने उसे “काफिर” कहकर पुकारा ! हमेशा अब्बा जान शब्द सुनने के आदी अब्दुल हमीद के लिए ये नया शब्द किसी आघात से कम नहीं था।

केरल से जिन मुस्लिम नौजवानों के लापता होने व उसके बाद आईएसआईएस के नेटवर्क में शामिल होने का संदेह जताया जा रहा है, हफीसुद्दीन भी उनमें से एक है ! उसके पिता अब्दुल हकीम का कहना है कि उसके बेटे को कट्टरपंथ ने मेरे बेटे को पूरी तरह से बदल दिया है ! दो साल पहले उसने अपनी दाढ़ी बढ़ाना शुरू कर दिया और कहना शुरू किया कि वह इस्लामी राज्य चाहता है ।

मैं कुरान का अध्ययन करने के लिए कालीकट जा रहा हूँ यह कहकर 28 जुलाई को हफीसुद्दीन से गया था, लेकिन दो दिन बाद उसका फोन आया कि वह आगे की पढ़ाई के लिए श्रीलंका जा रहा है। ईद से एक दिन पहले जब उसके परिवार के लोग उसके लौटने का इंतज़ार कर रहे थे, तभी उसका संदेश आया कि वह एक जन्नत जैसी अच्छी जगह जा रहा है !

दुखी पिता के रूप में स्वयं को व्यक्त करते हुए अब्दुल हकीम मानो अपने आप से कहता है कि अगर वह भारत के खिलाफ है, तो मैं उसे कभी देखना नहीं चाहता, यहाँ तक कि उसके मृत शरीर को भी नहीं, भले ही वह मेरा अपना बेटा है !

यह एक परिवार की गाथा है, किन्तु भारत के न जाने कितने घरों में दोहराई जा रही होगी ! इसके पीछे आखिर वजह क्या है ? कैसे मुस्लिम नौजवान कट्टर और कट्टर बनते जा रहे हैं ? यह वही मानसिकता है, जो आजादी के पूर्व जिन्ना में थी ! इसी मानसिकता के चलते जिन्ना ने मुसलमानों के मालिक कौम होने के दावे से अलग पाकिस्तान माँगा था। उसका मानना था कि आखिर हिन्दुस्तान के मालिक रहे मुसलमान अपने गुलामों के साथ बराबरी से कैसे रह सकते हैं ? इसीलिए जिन्ना ने पाकिस्तान में इस्लामी क़ानून चलाया शरीयत चलाई जिसके चलते गुलाम हिन्दुओं पर कहर ढाया गया ! 

इसके इतर स्वतंत्र भारत ने लोकतंत्र तो अपनाया, लेकिन बहुत से भारतीय आज तक उसी मानसिकता से घिरे रहे ! इनमें मुसलमान और हिन्दू दोनों शामिल हैं ! मुसलमान अपने को शासक मानकर विशिष्ट मानते रहे और जाकिर नायक से लेकर मस्जिदों में तक़रीर करने वाले मुल्ला मौलवी तक यही भाव बचपन से ही कौम के मन में भरते रहे !

हिन्दुओं का हाल तो और भी बुरा रहा ! प्रख्यात लेखक श्री शंकर शरण ने इसकी बहुत सुन्दर व्याख्या की है :

अरबी शब्द ‘जिम्मा’ का अर्थ है करार, जिस से जिम्मेदारी शब्द भी बना है। वह करार जो सदियों पहले इस्लाम द्वारा अपने राज्य में कुछ ईसाइयों, यहूदियों को जिंदा रहने देने की शर्त के रूप में एकतरफा तय किया गया था। खलीफा उमर के शासन में, सन् 634 के आस-पास, जिम्मियों संबंधी बारह नियम सूत्र-बद्ध हुए थे। इस की मूल बात है कि जिम्मी लोग इस्लाम और मुसलमानों को श्रेष्ठ मानते हुए, उन्हें जजिया टैक्स और नजराने देते हुए नीच लोगों की तरह रहेंगे। इस प्रकार, इस्लामी अधीनता में लंबे समय रहते गैर-मुस्लिमों में जो हीन-भाव उन का स्वभाव बन जाता है, उसे ही जिम्मी मानसिकता कहा गया है। 

हमारे मीडिया और राजनीति में जिम्मी मानसिकता सर्वत्र फैली हुई है। कश्मीर से हिन्दुओं को सामूहिक रूप से मार कर, अपमानित, बलात्कृत, धमका कर भगा देने के बाद उन की छोड़ी गई संपत्ति – घर, दुकान, खेत आदि – की खुली लूट-बाँट हुई। उन संपत्तियों को ‘माले गनीमत’ कहकर हिन्दुओं द्वारा बेची जाने वाली संपत्ति की कीमत कौड़ी के मोल लगी। किंतु उन घटनाओं पर कभी कोई रिपोर्ट, तस्वीरें, इंटरव्यू आदि नहीं आए। ‘फ्रंटलाइन’, ‘ई.पी.डबल्यू’, ‘एन.डी.टी.वी’., ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’, किसी भी मीडिया महारथियों से पूछ देखिए। उन हिन्दू मकानों, खेतों, दुकानों की गिनती या हश्र पर उन्होंने कभी कोई स्टोरी की? कोई आँकड़ा, कोई तस्वीर है उन के पास?

भारत में दशहरे या रामनवमी अवसरों पर मुस्लिम बस्तियों के पास हिन्दू जुलूसों, ढोल, कीर्तन आदि पर आपत्ति की जाती हैं। यह आपत्तियाँ उस गुजरे मुगल शासन दौर के जिम्मी कानूनों के पालन की जिद है जिस के तहत हिन्दू सार्वजनिक रूप से अपने पर्व-त्योहार नहीं मना सकते थे!

अतः रामनवमी जुलूस पर आपत्ति का भाव यह है कि मुगल काल वाले बलात् कानून हिन्दू समाज इस स्वतंत्र, लोकतांत्रिक भारत में भी यथावत स्वीकारता रहे। डॉ. अंबेडकर ने भी लिखा है कि अफगानिस्तान, ईरान, आदि मुस्लिम देशों में मस्जिद के बाहर गाने-बजाने पर आपत्ति नहीं होती, किन्तु भारत में होती है तो केवल इसलिए कि हिन्दुओं को वह अधिकार नहीं देना है। अंबेडकर के अनुसार, यह मुगलिया राज के अहंकार के अवशेष हैं, कोई इस्लामी सिद्धांत नहीं।

स्वतंत्र भारत के हिन्दू पत्रकार वह दावा स्वीकारते हैं! मुस्लिम इलाकों से रामनवमी के जुलूस नहीं जाने दिए जाते, जबकि रमजान में कश्मीर में किसी हिन्दू या ईसाई को भी दिन में सार्वजनिक रूप से खाने-पीने नहीं दिया जाता। सेक्यूलर मीडिया को इस में कुछ गलत नहीं लगता।

तो यह है मूल समस्या ! मुसलमानों का शासक भाव और हिन्दू पत्रकारों का जिम्मी भाव ! स्वतंत्र भारत में जन्मी औसत मुस्लिम पीढी को मस्जिदों में चलने वाले मदरसों में बचपन से इसी शासक वृत्ति की घुट्टी पिलाई जाती है और हिन्दू पीढी को विरासत में मिलती है, जिम्मी वृत्ति ! सहिष्णुता के नाम पर कायरता की घुट्टी !

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