मनुष्य के लिए आवश्यक "अंधश्रद्धा और अंधविश्वास" से मुक्ति - मदन रहेजा

मनुष्य को इस संसार में आये 1,96,08,53,100 वर्ष हो गए है और श्रुष्टि के आरम्भ में ही ईश्वर ने सब मनुष्यों के कल्याणार्थ तथा अपवर्ग हेतु वेदों का ज्ञान प्रदान किया ! तो भी मनुष्य को ठीक तरह से मनुष्य बनना नहीं आया ! ईश्वर हमारा पिता है और हम सब आत्माएं उसकी अमृत संतानें है ! सुपात्र, इस जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो जाते है और रह जाते है साधारण मनुष्य ! कारण क्या है कि हम अभी तक यहीं रह जाते है ? कारण को ढूढ़ते जायेंगे तो हमारे अपने ही कर्म सामने आ खड़े होंगे !

परमपिता परमात्मा ने वेदों का अमृत तो पिला दिया, परन्तु अपनी ही अज्ञानता के कारण हमने उसे उल्टा दिया है ! परिणाम – हम वहीँ के वहीँ खड़े है ! आत्मा स्वतंत्र सत्ता है, अतः अपनी मर्जी से जो चाहे कर्म कर सकता है ! किसी की रोक टोक नहीं है ! अल्पज्ञ है- अज्ञानी है- स्वभाव से ही स्वार्थी मिजाज का है, इसी कारण जब सुकर्म करता है- निष्काम कर्म करता है तो सुख पाता है और जब कभी कुकर्म- पाप कर्म करता है तो फलस्वरूप दुःख प्राप्त करता है ! ईश्वर सर्वज्ञ है, सबका पिता है, श्रुष्टि का नियंता है, अतः अपनी संतानों का सदा भला ही चाहता है ! बच्चे गलती करते है तो माता पिता उसे दंड देते है ! समझाने से भी नहीं समझते तो कड़ी सजा देते है ! माता पिता किसी बदले की भावना से या बैर-द्वेष की भावना से बच्चों को दंड नहीं देते; केवल उसकी भलाई के लिए- उनके उत्थान के लिए ही देते है ! बच्चे कैसे भी नालायक हो, फिर भी मन में उनके लिए प्रेम वैसा ही बना रहता है ! खाना-पीना बराबर देते है, परन्तु उनकी स्वतंत्रता को कहीं न कहीं अंकुश लगा देते है- यह उनके लिए सबक है, शिक्षा है ! परमपिता परमात्मा सबका माता-पिता बंधू-सखा है !वह जीवात्मा का सबसे बड़ा मित्र है, अतः वह जीवात्मा के कर्मों का फल देता है ! वह सर्वज्ञ है, हम अल्पज्ञ है, अतः सर्वज्ञ को ही अधिकार है कि वह अल्पज्ञों को सही मार्ग दर्शाए !

सृष्टि के आरम्भ में तो सब ठीक ठाक रहा, परन्तु जैसे-जैसे मतमतान्तर बढ़ते रहे, मनुष्य में स्वार्थता पनपती रही ! स्वार्थपूर्ति के कारण कहें या अज्ञानता के कारण, मनुष्य गलतियों पर गलतियाँ करता चला गया ! अपने-अपने ग्रुप (संगठन) बनाते रहे, अपने-अपने मत-मजहब-पंथ बनाते रहे, नतीजा- दुखों का आक्रमण अधिक होने लगा ! उन मत-मजहब-पंथों में जो स्वाध्यायशील थे, उन्होंने समाज-सुधार का काम प्रारम्भ कर दिया- इस प्रकार गुरु-शिष्य की परंपरा आरम्भ हो गयी ! 

(गुरु-शिष्य परंपरा तो श्रुष्टि के आदिकाल से ही है, क्यूंकि धर्म गुरु तो स्वयं परमपिता परमात्मा ही है; उनके शिष्य बने – अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा ऋषि, जिन्होंने वेद का सन्देश सब मनुष्यों को प्रदान किया !)

कालान्तर में गुरु-शिष्य परम्परा को नया रूप दिया इन दुकानदारों ने ! थोड़े-से स्वाध्याय से बड़ी बड़ी बातें करके साधारण लोगों को भटकाना शुरू हो गया- बदले में बिना हाथ पैर चलाये रोटी, कपड़ा और मकान, बिना परिश्रम के प्राप्त होता रहा ! देखा देखी में गुरुओं की दुकानें खुलती गयी ! लोग भटकते चले गए ! जो गुरु ने कहा वहीँ सत्य समझ लिया और भ्रांतियों ने जन्म ले लिया ! अंध विश्वास और अंधश्रधा बढती गयी ! यहाँ तक कि गुरुओं को ही ईश्वर समझकर पूजा होने लगी !

रौशनी की एक झलक ही अन्धकार को मिटाने में सक्षम होती है ! समय समय पर साधू-संतों-महात्माओं ने प्रकाश के दिए का काम किया ! राम और कृष्ण जैसे महापुरुषों ने अपने समय में समाज का इतना सुधार किया कि युगों बाद आज भी उनके नाम ‘भगवान्’ के रूप म स्मरण किये जाते है !

19 वीं सदी में एक सूर्य का उदय हुआ जिसने पाखंडों का खंडन करने हेतु एक ज्वलंत पताका फहराई और उसकी रौशनी में अनेक प्रकार की भ्रांतियों का निवारण हो गया ! वह धर्मध्वजी थे- महर्षि स्वामी दयानंद ! सूर्य की भाँती महर्षि ने संसार को सत्य के प्रकाश द्वारा ज्योतिर्मय बना दिया ! अफ़सोस कि दुराचारियों को यह मंजूर नहीं था, क्यूंकि उनके कुकर्मों का भांडा फोड़ दिया गया था ! परन्तु जाते जाते भी स्वामी जी ने वेद-उपनिषद-दर्शन आदि अनेक आर्ष ग्रंथों के प्रमाण-सहित “सत्यार्थ प्रकाश” नामक ग्रन्थ लिखकर संसार को भ्रम भ्रांतियों के गर्त से बचने का शाश्वत आलोक प्रदान किया !

दुःख निवृति के लिया जहाँ भी सहारा मिलता है, मनुष्य वहीँ भागता है; परन्तु जब वहां भी बुद्धि का सहारा नहीं लेता तो परिणाम और भी भयंकर हो जाता है ! विश्वास अंध विश्वास में बदल जाता है ! श्रधा अन्धश्रद्धा में परिवर्तित हो जाती है ! यही कारण है कि संसार में दुःख फैलता जा रहा है ! निराश होने की बात नहीं है ! अंधश्रद्धा और अंधविश्वास को दरकिनार कर अनेक जीवन दुबारा सही मार्ग पर लाये जा सकते है !

(उक्त विचार मदन रहेजा जी की पुस्तक अंधविश्वास निर्मूलन से लिये गये है)

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