मानसिक तौर पर भारतीय हो अगला आरबीआइ गवर्नर - देवेन्द्र शर्मा


कांग्रेस के द्वारा नियुक्त किए गए सभी व्यक्तियो को संदेह की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। इसके कई युक्तियुक्त रणनीतिक व्यवहारिक तर्क है ।

रघुराम राजन की नियुक्ति भी संदेहजनक रही यह बात हम बार बार कहते रहे है। विशेष रूप से उनकी अनाधिकार चेष्टाओं के विषय में।

उनके विदेशी होने के प्रसंग को, विदेश में बसे भारतीयो ने अन्यथा ही नहीं लिया, अपितु दिल पर भी ले लिया। दिल है उनका, सबकी तरह, अधिकार भी है उनका, किसी ने सिनेमाई उल्लास में कहा है, दिल तो है दिल, दिल का ऐतबार क्या कीजे, फिर किसी ने छलांग लगाते हुए आगे बढ़ाया और कहा, दिल तो बच्चा है जी।

दिल रघुरामराजन के पास भी होगा ही। भारत के लिए नहीं धड़कता होगा, यह मान लेते है। 

सके नाते रिश्ते सब विदेश में ही तो है। राजन के पिता के समय से ही उनका परिवार स्थाई रूप से अमेरिकी नागरिक बना हुआ है। गोविंद राजन को अमेरिकी एजेण्ट होने के कारण जासूसी संस्था से राजीव गाँधी ने निकाला था। अर्थशास्त्र का एक मूल नियम है, जिसके आर्थिक हित जहाँ होते है, वहीँ का उसे माना जाता है। कराधान करारोपण में यह मूल सूत्र है।

हमारी परम्परा में आचार्य शुक्र से लेकर आचार्य चाणक्य, कामन्दक ने इस को अत्यंत महत्वपूर्ण माना है राष्ट्र के प्रति प्रेम समर्पण से लेकर सुरक्षा तक में।

एक समय किरण बेदी सहसा शाही इमाम बुखारी की चौखट खटखटाते हमारी पार्टी की दिल्ली में मुख्यमंत्री पद की प्रत्याशी बन गयी। सब चकरा गए, बिलकुल वैसे ही जैसे रघुरामराजन के गवर्नर साहब बनने पर सब चकरा गए। जुगाड़ की बड़ी महिमा है। कलियुग में जुगाडस्त्र की महिमा होगी, यह कलियुग के लक्षणों में से एक है। जैसे ब्रह्मास्त्र का निषेध है और उससे भारी हानि होती है, उसी प्रकार जुगाडास्त्र का भी निषेध है, भारी हानि होती है। ऐसा बताया गया है। पर तुरत लाभ के लिए जुगाडास्त्र का प्रयोग होता रहता है। और हानि भी होती है।

किरण बेदी जी से तब पूछा गया था कि हार गए तो क्या करेंगी तो उन्होंने कहा कि उनके पास हावर्ड वगेरह में पढ़ाने का न्योता है, वहाँ चली जाएंगी। पार्टी से कोई लेना देना नहीं। चुनाव हारना ही था, पर हारे भयानक दुर्गति के साथ, वैसी ही दुर्गति जो रघुरामराजन ने कर दी अर्थव्यवस्था की। रघुराम भी दुर्गति करके विदेश चले जाएंगे। अब किरण बेदी जी, जो मैग्सेसे 'अवार्ड विनर' है, वो 'लेफ्टिनेंट गवर्नर' हो गयी है। रघुराम राजन भी 'कुछ' हो ही जाएंगे। वैसे बता दे कि वो जहाँ पढ़ाते है,वहां से छुट्टी लेकर गवर्नरी करने आये थे। मतलब गिरगिटीए थे। वैसे लगे हाथ बता दे कि मैग्सेसे अवार्ड उनको दिया जाता है जो ईसाई हितों की चिंता करते है और ईसाइयो के काम आते है।

वैसे आप तवलीन सिंह जी का लेख पढ़िए। कुछ बाते स्पष्ट होंगी।

तवलीन सिंह नई दिल्ली |
June 26, 2016 10:17 am
जनसत्ता
भारत सलामत है और भारत की अर्थव्यवस्था भी, बावजूद रघुराम राजन के जाने की खबर के। बहुत बड़ी बात है यह, क्योंकि कुछ महीनों से ऐसा लगने लगा था कि इस महान शख्सियत के जाने से भारत में विदेशी निवेशकों का विश्वास टूट जाएगा और इसलिए रिजर्व बैंक के इस गवर्नर साहब को रोक कर रखना हमारी सबसे बड़ी आर्थिक जरूरत थी। इस बात को अन्य तरीकों से कहा देसी और विदेशी अर्थशास्त्रियों और विशेषज्ञों ने इतनी बार कि आर्थिक मामला न रह कर इस पर राजनीतिक रंग चढ़ गया और ऊपर से आया सुब्रमण्यम स्वामी का बयान, जिसमें भारतीय जनता पार्टी के इस नवनिर्वाचित राज्यसभा सांसद ने गवर्नर साहब की भारतीयता पर संदेह व्यक्त किया। बवाल मच गया इस वक्तव्य को लेकर, इतना कि बड़े-बड़े कांग्रेसी राजनेता सामने आए राजन साहब की पैरवी करने। यहां तक कि राहुल गांधी ने खुद ट्वीट किया कि मोदी सरकार इस काबिल ही नहीं है कि उसको इतने महान व्यक्ति की सेवा मिले।

राजनीति पर हम जैसे लोग, जो कई वर्षों से लिखते आए हैं, अच्छी तरह पहचान लेते हैं जब राजनीतिक प्रचार आंदोलन का रूप धारण कर लेता है, सो ऐसा लगने लगा मुझे कि रघुराम राजन के लिए ढोल कुछ ज्यादा ही पिटने लगे हैं। मैं यह नहीं कह रही हूं कि इस आंदोलन के पीछे राजन साहब खुद थे, लेकिन इस आंदोलन ने इतना तो साबित कर दिया है कि इनका कद इतना ऊंचा है कि इनके सामने रिजर्व बैंक बौना दिखता है। रिजर्व बैंक छोड़िए, भारत भी बौना दिखने लगा था कुछ महीनों से और इससे मुझे निजी तौर पर सख्त एतराज है। मेरी उम्र के लोग, जो अंगरेजों के विदा होने के कुछ ही साल बाद पैदा हुए थे, अच्छी तरह जानते हैं कि आम भारतीय कितनी इज्जत किया करते थे उस समय उन देशवासियों का, जो आक्सफर्ड और कैंब्रिज में पढ़ कर आते थे। याद है मुझे आज भी कि किस तरह उनकी बातों की हम इज्जत करते थे, चाहे उनकी बातों में कोई वजन ही न हो।

आज के भारत में परिवर्तन यह आया है कि आक्सफर्ड और कैंब्रिज की जगह ले ली है हॉर्वर्ड और येल जैसे अमेरिकी शिक्षा केंद्रों ने। सो, जब कोई भारतीय अमेरिका से पढ़ कर या राजन साहब की तरह वहां के किसी विश्वविद्यालय में पढ़ा कर आता है, तो हम उसके सामने बिछ जाते हैं कालीन की तरह। कुछ ऐसा ही हमने रघुराम राजन के सामने किया, सो उनके हौसले इतने बुलंद हुए कि आर्थिक विषयों के अलावा राजनीतिक बातों में भी उन्होंने दखल देना शुरू किया।
सोनिया-मनमोहन सरकार के समय ऐसा नहीं किया करते थे, लेकिन नरेंद्र मोदी जब प्रधानमंत्री बने तो ऐसा लगा कि गवर्नर साहब ने अपना जन्मसिद्ध अधिकार मान लिया नई सरकार को हर दूसरे-तीसरे दिन नसीहतें देना। पिछले साल जब तथाकथित बढ़ती असहनशीलता की बातें शुरू हुर्इं, तो गवर्नर साहब ने इस बहस में कूद कर लेक्चर दिया सहनशीलता पर। हो सकता है कि उनका मकसद सरकार की आलोचना करना न रहा हो, लेकिन अगले दिन उनकी बातें सुर्खियां बन गर्इं। फिर जब प्रधानमंत्री ने मेक इन इंडिया की बात की, तो इस पर भी राजन साहब ने अपनी राय व्यक्त की, यह कह कर कि ‘मेक इन इंडिया’ के बदले प्रधानमंत्री को ‘मेक फॉर इंडिया’ कहना चाहिए था। बाद में पत्रकारों से उन्होंने कहा कि उनका मतलब सिर्फ प्रधानमंत्री को यह ध्यान दिलाना था कि जिस तरह कभी चीन का सामान दुनिया के बाजारों में बिका करता था, उस तरह अब भारत को करना मुश्किल है, सो बेहतर होगा कि हम अपने ही लोगों के लिए उत्पादन करें।

गवर्नर साहब इंटरव्यू देने के इतने शौकीन हैं कि हर दूसरे दिन किसी न किसी पत्रकार से वे बातें करते थे। ऐसा कभी किसी पूर्व आरबीआइ गवर्नर ने नहीं किया है और न ही दुनिया के अन्य देशों के केंद्रीय बैंक के गवर्नर इस तरह करते हैं। सो, राजन साहब चाहते क्या थे खुद का इतना प्रचार करके? एक पत्रकार ने जब उनसे पूछा कि क्या वे राजनीति में आना चाहते हैं, तो स्पष्ट शब्दों में न कह कर उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा कि यह फैसला उनका अपना नहीं हो सकता, यह फैसला सिर्फ उनकी पत्नी कर सकती हैं। बात जब आ ही गई है उनकी पत्नी की, तो यह भी याद दिला दूं कि उनकी पत्नी अब भी शिकागो के किसी कॉलेज में प्रोफेसर हैं और उनके बच्चे भी अमेरिका में ही हैं। तो जब सुब्रमण्यम स्वामी इल्जाम लगाते हैं कि गवर्नर साहब मानसिक तौर पर भारतीय नहीं हैं, तो उनकी यह बात इतनी गलत भी नहीं है। रघुराम राजन भी भारत आए अपनी अमेरिकी नौकरी छोड़ कर नहीं, बल्कि छुट्टी लेकर। ऐसा क्यों? इससे क्या यह नहीं समझा जाए कि उनका इरादा वापस अमेरिका लौटने का शुरू से था? और ऐसा था अगर, तो क्या भारत के साथ धोखा नहीं है यह?

अब जब वापस जाने का फैसला कर ही लिया है राजन साहब ने तो हमें उम्मीद करनी चाहिए कि सरकार जब अगला गवर्नर नियुक्त करेगी आरबीआइ का तो इस बात को ध्यान में रखेगी कि ऐसे आदमी को लाना चाहिए, जो पूरी तरह भारत का हो और जो भारत के तौर-तरीकों को समझता हो। मैं खुद इस काबिल नहीं हूं कि राजन साहब के कार्यकाल पर टिप्पणी कर सकूं, लेकिन जिन विशेषज्ञों से मैंने इसके बारे में बात की, उनका कहना है कि राजन साहब को काफी समय लगा भारत को समझने में। सो, शुरू में उन्होंने कई गलतियां कीं, जो हमें महंगी पड़ी हैं। जो भी हो, दुआ कीजिए कि अगले आरबीआइ गवर्नर को सिर्फ अपने काम से मतलब हो।

एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें