सिकुड़ती सीमाएं और बढ़ते खतरे – स्व. प्रोफ़ेसर बलराज मधोक


बाहरी और आतंरिक खतरों से देश की सुरक्षा किसी भी सरकार का पहला कर्तव्य माना जाता है | जन कल्याणकारी योजनाओं और गतिविधियों का भी अपना महत्व होता है, परन्तु उन्हें सुरक्षा पर प्राथमिकता नहीं दी जाती |

खंडित हिन्दुस्थान की सुरक्षा की समस्या कई कारणों से अधिक कठिन और गंभीर हो गई है | प्रथम कारण है, देश विभाजन के फलस्वरूप पश्चिम और पूर्व की हमारी प्राकृतिक सीमा के स्थान पर कृत्रिम और कटी फटी सीमाओं का बनना | इन सीमाओं के उस पार इस्लामी देशों- पाकिस्तान और बंगला देश, जो मजहबी कारणों से भारत के जन्मजात शत्रु हैं, का उदय | दूसरा है भारत के अन्दर बड़ी संख्या में ऐसे लोगों का रहना, जिन्होंने 1946 के निर्णायक चुनाव में भारत विभाजन के पक्ष में मत देकर और विभाजन के लिए सक्रिय काम करके सिद्ध कर दिया था कि उनकी प्रथम आस्था इस्लाम और पाकिस्तान के प्रति है और खंडित भारत उनके लिए दार-उल-हरब है, जिसे पाकिस्तान में मिलाना या पाकिस्तान की तरह इस्लामी देश बनाना, उनका मजहबी कर्तव्य है |खंडित भारत की सरकारों ने अपनी गलत नीतियों व अपनी सुरक्षित उत्तरी सीमा को भी असुरक्षित बनाकर स्थिति को और भी विकट बना दिया है |

इसलिए खंडित भारत की सुरक्षा के विषय में तथ्यों और गत अनुभवों के आधार पर गंभीरता से विचार करना और सुरक्षा को सुदृढ़ बनाने के लिए उचित और आवश्यक कदम उठाना अत्यावश्यक हो गया है |

किसी देश की सुरक्षा के चार मूल आधार माने जाते हैं –

1 सीमा के उस पार के देशों का अपने देश के प्रति रवैया और सीमा के पास बसे लोगों की देश के प्रति निष्ठा और सीमा तथा समीपवर्ती क्षेत्रों को देश के अन्य भागों से जोड़ने की व्यवस्था |

2 देश की जनसंख्या और देश के लोगों की सुरक्षा के बारे में जागरूकता और इसमें योगदान देने की क्षमता तथा राष्ट्रभावना |

3 देश का सेना बल जो सेना की संख्या, सैनिक परंपरा, प्रशिक्षण तथा जवानों और अधिकारियों की तथा उनके शस्त्रों की गुणवत्ता से आंका जाता है |

4 सेना और आम जनता का मनोबल टूट जाए या कमजोर हो जाए तो अच्छी से अच्छी सेना और देश पिट सकते हैं |

विभाजन के कारण भारत अपनी पश्चिम और पूर्व की प्राकृतिक सीमाएं खो चुका है | श्री नेहरू द्वारा अपनाई गई गलत विदेश नीति और सुरक्षा नीति के कारण तिब्बत पर चीन का अधिकार हो गया तथा हमारी युगों से सुरक्षित उत्तरी सीमा भी असुरक्षित हो चुकी है | हमारी लम्बी समुद्री सीमा चटगाँव और कराची हमारे हाथ से निकल जाने और नेहरू सरकार द्वारा मालदीव पर भारत का कब्जा छोड़ देने और उसके स्वतत्र इस्लामी राष्ट्र बन जाने के बाद पहले जैसी सुरक्षित नहीं रही | अब इन सभी सीमाओं की अधिक चौकसी की आवश्यकता है | बैसे भी लड़ाकू विमान, प्रक्षेपास्त्र और अणुशक्ति के बनने से भौगौलिक सीमाओं का पहले जैसा महत्व नहीं रहा |

उनके उल्लंघन के कई नए माध्यम और रास्ते खुल गए हैं | तो भी शत्रु सेनायें बड़ी संख्या में भौगौलिक सीमाओं के रास्ते से ही देश के अन्दर घुस सकती हैं | पाकिस्तान, बांग्लादेश और चीन से लगने वाली हमारी सीमाएं सेना की चौकसी के बावजूद दिनोंदिन असुरक्षित बनती जा रही हैं | इसका सबसे बड़ा कारण सीमावर्ती क्षेत्रों और विशेष रूप से सीमाओं के निकट मुसलमानों की बढ़ती जनसंख्या और वहां से हिन्दुओं का पलायन, सीमावर्ती क्षेत्र और वहां की सैनिक छावनियों के निकट और उन तक पहुँचने वाली सडकों पर योजनाबद्ध ढंग से दरगाहों तथा कथित संतों की कब्रों और मकबरों का बनना तथा नई नई मस्जिदों और मदरसों के निर्माण तथा पाकिस्तान और बंगलादेश के एजेंटों और संदिग्ध आस्था के लोगों द्वारा भारत की सैन्य गतिविधियों पर लगातार नजर और गुप्त सूचनाओं को शत्रु तक पहुंचाने की व्यवस्था है | कोई भी व्यक्ति जो ऑंखें खोलकर सीमावर्ती क्षेत्रों से लगने वाली सडकों और पुलों को देखे तो उसे इस खतरे का स्वतः आभास हो जाएगा |

हमारी इन कठिनाईयों के कारण हमारी सीमाओं की सुरक्षा का काम और अधिक कठिन हो गया है | हमारी पूर्वी सीमा और उसके निकटवर्ती क्षेत्र में बंगलादेशी घुसपैठियों की बढ़ती संख्या ने उस सीमा की सुरक्षा समस्या को अत्याधिक गंभीर बना दिया है |

संविधान के अनुसार हमारे देश की तीनों सेनाओं का सर्वोच्च सेनापति राष्ट्रपति होता है | परन्तु इस मामले में भी हमने राष्ट्रपति को पंगु बना रखा है | डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने 1962 के चीनी आक्रमण के समय सेनाओं और सुरक्षा मामलों में सक्रिय दिलचस्पी दिखाई थी | श्री नेहरू को यह बात पसंद नहीं थी | परन्तु श्री राधाकृष्णन के व्यक्तित्व और कद के सामने उनकी भी कुछ चलती नहीं थी | किन्तु अब स्थिति बदल गई है | सेना की भारती में भी धांधली होने लगी है, तो अच्छे और सुयोग्य अधिकारियों की सेना में कमी महसूस होने लगी है | इसका एक कारण अवकाश प्राप्त सैनिकों को समाज और सरकार द्वारा उचित सम्मान न देना भी है | इस मामले में भारत सरकार को ब्रिटिश सरकार द्वारा स्थापित परंपरा का आदर करना चाहिए |

बड़ी से बड़ी सेना भी आधुनिक शस्त्रों के बिना पंगु और अप्रभावी हो जाती है | अपना इतिहास इस बात का साक्षी है | 1527 में कनवा के निर्णायक युद्ध में राणा सांगा की सेना का बाबर की विदेशी तुर्क सेना से पिटने का सबसे बड़ा कारण बाबर के पास तोपों का होना था | जब चीनी लगातार आगे बढ़ रहे थे, तब मैं पंडित नेहरू से मिला और उनसे इसका कारण पूछा | उन्होंने मुझे बताया कि चीनी सेना की बढ़त का एक बड़ा कारण उनके बेहतर हथियार हैं | उनके जवानों के पास स्वचालित राईफलें हैं, जबकि हमारे जवानों के पास पुरानी 303 राईफलें हैं | उन्होंने यह भी बताया कि चीन की तोपों की मार हमारी तोपों से अधिक है |

यह समाधान का विषय है कि अब हमने अपने अणुशस्त्र बनाने प्रारम्भ कर दिए हैं | परन्तु अभी भी हमारे बहुत से शस्त्र तुलनात्मक दृष्टि से उत्कृष्ट नहीं हैं | अपनी इस कमजोरी को हमें जल्दी ही दूर करना चाहिए |

सेना की संख्या और शस्त्रों से भी अधिक महत्व सेना के मनोबल का होता है | हमारी सेना उत्तम है और हमारी सैनिक परंपरा उज्वल, परन्तु भारत के शासकों की कुछ गलतियों के कारण हमारी सेना के मनोबल पर विपरीत प्रभाव पड़ा है | सुरक्षा सेना को आतंरिक सुरक्षा में लगाना ठीक नहीं होता | यदि लगाया जाए तो तो उसे उचित और आवश्यक छूट और सहयोग मिलना चाहिए ताकि वे अपना काम कम समय में संपन्न कर लें | कश्मीर में हमने ऐसा नहीं किया | पीछे से हाथ बांधकर सुरक्षा सेनाओं को पाकिस्तानी जिहादियों और आतंकवादियों से जूझने के लिए मैदान में झोंकने और लम्बे काल तक उन्हें वहां रखने से उनके आत्मविश्वास और मनोबल को धक्का लगा है | यह कटु सत्य है कि विगत दस वर्षों में हमारे जितने जवान और अधिकारी कश्मीर में आतंकवादियों के हाथों शहीद हुए हैं, उतने पाकिस्तान के साथ हुए गत तीन युद्धों में शहीद नहीं हुए | जिहादी पाकिस्तानियों से प्रभावी ढंग से निबटने के लिए आवश्यक है कि जिन लोगों के घरों, मोहल्लों और गाँवों में आतंकियों को शरण मिलती है, उन लोगों से भी सख्ती से निबटा जाए |

शत्रु से ;प्रभावी ढंग से निबटने के लिए यह भी आवश्यक होता है कि सेना के जवानों और अधिकारियों के मन में शत्रु को ख़तम करने की प्रबल इच्छा और भावना हो | इसका सही अहसास मुझे तब हुआ, जब में एक संसदीय समिति के साथ नाथुला गया | नाथुला में कुछ समय पूर्व ही चीनी सैनिकों ने हमारे 15 सैनिकों को न केवल मार डाला था, साथ साथ उनके शव भी उठा कर ले गए थे | नाथुला में भारत और चीन अधिकृत तिब्बत की सीमा मिलती है और दोनों की सेनाओं के जवानों के ठिकाने आमने सामने हैं | 

नाथुला से लौटते हुए हम उस क्षेत्र के कोर कमांडर और परम वीर चक्र विजेता जनरल भगत से मिले | मैंने उनसे पूछा कि चीनियों ने हमारे इतने सैनिक मार डाले और उनके शव भी उठा ले गए, जबकि हमारे सैनिक एक भी चीनी सैनिक को नहीं मार पाए, इसका क्या कारण है ? उसका जबाब देते हुए जनरल भगत ने कहा कि युद्ध में भी किसी को मारने के लिए उसके प्रति घृणा और शत्रुता का गहरा भाव चाहिए | हमारे राजनेता हिन्दी चीनी भाई भाई का नारा लगाते रहें और हमारे सैनिक चीनियों पर भारी पड़ें, यह संभव नहीं है | यदि कल भारत के राजनेताओं ने भारत पाकिस्तान भाई भाई के नारे लगाने शुरू किये तो हमारी सेना, पकिस्तान को भी परास्त नहीं कर सकेगी |

जनरल भगत की इस अनुभव सिद्ध बात पर भारत के शासकों द्वारा विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है | पाकिस्तान भारत का शत्रु है और जब तक कायम रहेगा, शत्रु ही रहेगा | इसका कारण इस्लाम और उसके राजनैतिक सिद्धांत हैं | दुर्भाग्य से तथाकथित राष्ट्रवादी नेता भी इस्लाम के विषय में उतने ही अनभिज्ञ हैं, जितने गांधी और नेहरू थे | गांधीवादी और नेहरूवादी मानसिकता भारत की सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है |

सुरक्षा के सम्बन्ध में ठीक सोच और ठीक नीति के लिए यह आवश्यक होता है कि देश की विदेश नीति और सुरक्षा नीति में पूरा तालमेल हो | विदेश नीति और कूटनीति वस्तुतः देश की सुरक्षा का मूल तत्व हैं | दोनों को अन्य ढंग से लड़ा जाने वाला युद्ध भी कहा आ सकता है | हिन्दुस्थान की सुरक्षा नीति और विदेश नीति में तालमेल का अभाव रहा है | इसी कारण युद्ध क्षेत्र में सेना द्वारा प्राप्त विजय को हम बार बार कूटनीति की टेबिल पर हारते रहे हैं |

साभार पांचजन्य (28 नवम्बर 2001)

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