जम्मू-कश्मीर में फैसले का वक्त - हरि शंकर व्यास


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आगे चुनौती है तो संभावना भी है। नरेंद्र मोदी, अमित शाह और संघ परिवार को अब समझ लेना चाहिए कि आंतकी बुरहान वानी उन्ही दो साल में घाटी में हिट हुआ जब नरेंद्र मोदी और भाजपा ने घाटी में राजनीति की, सरकार बनाई। बुरहान वानी की मौत से पहले घाटी के हालातों को ले कर अंग्रेजीदा सेकुलर ब्रिगेड का जो विमर्श था, उसमें बार-बार इस बात को रेखांकित किया जाता था कि घाटी का यूथ गुस्से में है। पढ़े-लिखे नौजवान बंदूक उठा रहे है। घाटी के सेंस याकि मनोभाव का ऐसा डर पैदा किया गया कि मेहबूबा मुफ्ती भी भाजपा से एलायंस बनाने में घबराई। भाजपा ने सोचा और ठीक सोचा कि जम्मू में जब हिंदूओं ने, लद्दाख में बौद्वो ने उसे जिताया है, तो लौकतंत्र का तकाजा है कि हिंदू-मुस्लिम-बौद्ध का सत्ता साझा हो। अब यह बात न घाटी के मुस्लिम अलगाववादियों को पसंद आ सकती थी और न स्थापित कश्मीरी नेताओं याकि उमर अब्दुला, गुलाम नबी आजाद एंड पार्टी को रास आई। तभी मेहबूबा मुफ्ती पर यह गहरा, चौतरफा मनौवेज्ञानिक दबाव बना कि उन्होंने भाजपा से एलायंस का कूफ्र कैसे किया।

यह दबाव आगे और बढ़ेगा! मोदी-भाजपा विरोधी दिल्ली की सेकुलर-अंग्रेजीदा ब्रिगेड और घाटी के पत्थरबाज उग्रवादी नौजवानों में यह केमेस्ट्री बनी है कि वे वहां उपद्रव करेंगे और उसे दिल्ली के राष्ट्रीय मीडिया में बतौर गुस्सा, अलगाव दिखलाते हुए मोदी सरकार को खलनायक, नासमझ बताएंगे।

इस स्थिति का नरेंद्र मोदी दो तरह से सामना कर सकते है। या तो घुटने टेके, डरे या फिर संकट को अवसर में बदले। घुटने टेकने के विकल्प का जहां सवाल है तो उसमें विकल्प ये है:-

1- अलगाववादी हुर्रियत नेताओं गिलानी, मीरवाईज आदि से बातचीत शुरू हो। ये कहे कि सुरक्षा बलों की सुरक्षा वाला आफ्सपा कानून हटे, प्रदेश की एक इंच जमीन गैर-मुसलमान के लिए न हो तो इन शर्तों को माना जाए।

2- यदि उग्रवादी नेता शर्त रखे कि बुरहान वानी आदि आंतकियों के एनकाउंटर की जांच के लिए आयोग बने, सुरक्षा बलों को घाटी के जिलों से हटाया जाए तो उसे माना जाए।

3- कश्मीर की आजादी की मांग पर पाकिस्तान के साथ कंपोजिट वार्ता शुरू हो।

मतलब कथित तौर पर 56 इंची छाती वाले नरेंद्र मोदी 36 इंच के मौजूदा साझेपन को छोड़ कर 5 इंची छाती से हाथ जोड़ उग्रवादियों की माने। गोलमेज बैठक बुला मेहबूबा, उमर, गुलाम नबी, गिलानी, मीरवाइज आदि के सुपुर्द कश्मीर की देखभाल छोड़े तो वह डॉयलॉग शुरू होने की संजीदगी बनवाने वाला होगा।

पर यह एप्रोच संभव होती तो नेहरू क्यों शेख अब्दुला को जेल में डालते? क्यों भारत-पाक में इतनी लड़ाईया होती? जाहिर है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारत राष्ट्र-राज्य ऐसा कोई काम नहीं कर सकता है जिससे कश्मीर की आजादी का रास्ता निकले। अब तो दुनिया याकि अमेरिका, ब्रिटेन भी ऐसा नहीं चाहेगें। उनके लिए अफगानिस्तान और पाकिस्तान ने जान के लाले किए हुए है तो बंदूक के बूते ये आजाद कश्मीर कतई नहीं बनने दे सकते।

ऐसे में तब केंद्र और मोदी सरकार के लिए दूसरा रास्ता है। वह मुख्यमंत्री मेहबूबा मुफ्ती को दो टूक शब्दों में कहें कि घाटी के उग्रवादी उनके नहीं हो सकते। वे कमाल अतातुर्क जैसा घाटी में नेतृत्व करे। नई पहचान वाली कमान दे या राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करें। ताजा संकट में लगा है कि मेहबूबा मुफ्ती के बस में संकट प्रबंधन नहीं है। उन्होंने पहले दिन घबरा कर अलगाववादियों, हुर्रियत नेताओं से जो बेतुकी अपील की उससे उनकी सियासी समझ का पता पड़ता है।

सो केंद्र सरकार को मेहबूबा से सख्ती की सहमति बनवा कर या तो उनके जरिए घाटी में सख्ती दिखानी होंगी या खुद राज्यपाल के जरिए जम्मू-कश्मीर में बुनियादी परिवर्तन लाने होंगे। इन बुनियादी परिवर्तनों का खांका भाजपा के श्यामाप्रसाद मुकर्जी के वक्त से ही बना हुआ है।

ऐसा करने का आधार अब यह है कि घाटी के उपद्रवियों ने बताया है कि उन्हे विकास नहीं चाहिए। वे सत्ता का साझा नहीं चाहते। जम्मू और लद्दाख की हिंदू और बौद्व आबादी के संग सह-अस्तित्व नहीं चाहते। भाजपा और नरेंद्र मोदी ने ऐसे सह-अस्तित्व की हर संभव कोशिश की। पीडीपी की सरकार बनवाई, साझा बनवाया। बावजूद इसके घाटी ने इसे मंजूर नहीं किया तो अनुभव का तकाजा है कि प्रदेश की प्रशासनिक व्यवस्था तीन तरह की अलग-अलग बने। अब ऐसा तीन प्रदेश से या गौरखालैंड जैसी काउंसिल से हो इसे तंत्र और सुरक्षा जरूरत अनुसार तय किया जा सकता है।

सचमुच हालात बिगड़े तो राष्ट्रपति शासन विकल्प है। उसके बाद फिर केंद्र को घाटी के उपद्रवियों को उनके हाल पर छोड़ना चाहिए। अलगाववादियों, उग्रवादियों, कश्मीरी नेताओं की सुरक्षा हटा लेनी चाहिए। ये नेता भारत राष्ट्र-राज्य के खर्चे की सुरक्षा के बिना जनता में रीच आउट करें। घाटी के सियासतदारों को भुला केंद्र अपनी सोच के फैसले ले। दो साल के अनुभव, समझ के मद्देनजर मोदी सरकार नए ऐतेहासिक फैसले करें। मतलब 70 साल में हर प्रयोग के बाद ढ़ाक के तीन पांत का जो अनुभव अब तक है उसमें मोदी सरकार के लिए चुनौती को अवसर में बदलने का मौका है। यदि इसका राष्ट्रीय स्तर पर उलटा हल्ला हो, अंग्रेजीदा मीडिया सांप्रदायिकता जैसा हल्ला बनाए तो उसकी अनदेखी का वक्त भी अब है।

यदि ऐसा नहीं किया और मौजूदा हालातों में सौ जूते, सौ प्याज की मार में घाटी में भारत राष्ट्र-राज्य की ताकत का फलूदा बनाया, यथास्थिति रखी तो बहुत नुकसान होगा।

क्या नहीं? 

साभार नया इण्डिया 

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