कश्मीर को लेकर सेना को कोसने वालो, जरा कारगिल तो याद रखो !


‘‘सीने में जूनून आखों में देशभक्ति की चमक रखता हूँ !
दुश्मन की सासें थम जाए आवाज में वो धमक रखता हू !!’’ 

आज से सत्रह साल पहले ‘आपरेशन विजय’ के तहत हमारे देश के वीर जवानों ने खून जमा देने वाली सर्द हवाओं के बीच कारगिल और द्रास की बर्फीली चोटियों पर कब्जा कर बैठे घुसपैठियों के रूप में पाकिस्तानी सैनिकों को अपनी मातृभमि से खदेड़ कर तिरंगा फहराया था । हमारे देश के जवानों ने सीने पर गोली खाकर पाकिस्तानियों को उनकी औकात दिखाई थी । मां भारती की आन, बान और शान के लिए हिन्द के 533 रणबाकुरों ने हंसते-हंसते अपने प्राणोत्सर्ग किये थे । 

सात वर्ष पूर्व 26 जुलाई को कारगिल युद्ध के एक दशक पूरा होने पर द्रास में कारगिल योद्धाओं की याद में विजया दशमी भले मनायी गई हो, किन्तु आज हममें से कितनों को याद है कि राष्ट्र के नायकों की शहादत वास्तव में क्या थी और कैसे हुई ? आईये याद ताजा करते हैं - 

6 मई 1999 को कारगिल के वर्फ से ढके क्षेत्र में हमारे देश के बीर जवान गश्त कर रहे थे, तभी उन्हें काला कोट पहिने नियंत्रण रेखा पर चहलकदमी करते हुए कुछ लोग दिखाई दिए । 7 मई को भारतीय सैनिक उनकी खोज में लग गये, और आगे बढ़े । कि अचानक उन कायरों ने पीछे से बमबारी शुरू कर दी । 8 मई को यह पता लग गया, कि ये कोई और नहीं, बल्कि घुसपैठियों के बेश में हर बार पीठ पर वार कर उल्टे पाँव पीठ दिखाकर भागने वाले पाकिस्तानी सैनिक है । 

उसके बाद पता चला कि, ये पाकिस्तानी सैनिक द्रास, मशकोह, टाइगर हिल आदि स्थानों पर बंकर बनाकर छिपे हुए है । यह घुसपैठिये नियंत्रण रेखा से पांच-छह कि.मी. अन्दर भारतीय सीमाओं में प्रवेश कर चुके थे ! इनको पाकिस्तान द्वारा मशीन, मोर्टार एवं अन्य अत्याधुनिक शस्त्र के साथ-साथ पाक सेना के तोपखाने,वर्फ पर चलने वाले वाहन और हेलीकाप्टर भी प्राप्त थे । इतना ही नहीं, ये घुसपैठिये जमीन से हवा में मार करने वाली स्टिंगर मिसाइलों से भी लैस थे । सबसे ख़ास बात यह कि ये लोग हमारी मातृभूमि की सीमाओं को पार कर पन्द्रह हजार से उन्नीस हजार फीट उॅंची चोटियों पर मौर्चा सम्भाले बैठे हुए थे । जबकि हमारे जांबाज बहादुर नीचाई पर थे ! 

किन्तु उसके बाद शुरू हुई, वह जंग जो इसके पहले कभी नही हुई थी ! ‘‘आपरेशन विजय’’ अपने आप में अनोखा था । इसके पहले हिन्द के योद्वाओं ने बहुत सी लड़ाई लड़ी, किन्तु यह लड़ाई बहुत कठिन थी । हजारों फीट ऊपर छिपे हुए दुश्मनों को नीचे से निशाना लगाना कम जोखिम से भरा नहीं था । 

इसके बावजूद भारतीय सैनिक पीछे नहीं हटे, दुश्मनों का जमकर मुकाबला किया, और उन्हें पीठ दिखाकर भागने के लिए मजबूर कर दिया ! कारगिल टेढ़ी-मेढ़ी चट्टानों का बर्फीला रेगिस्तान है, जहां हमारे देश के वीर योद्धा दुश्मनों का मुकाबला कर रहे थे । पन्द्रह हजार से उन्नीस हजार फीट तक ऊंची विषम पहाड़ियां, जहां की हवा में आक्सीजन की कमी के कारण सांस लेना भी दूभर होता है, जहां घूप खिलने पर भी तापमान 2 डिग्री से उपर नहीं होता । हाड कंपकंपाने वाली ठण्ड में तापमान शून्य नहीं, बल्कि शून्य से भी तीस से साठ़ डिग्री नीचे रहता है । और तेज हवा चाकू की तरह काटती है । शीत से खुद को बचाने के लिए सैनिकों को कम से कम सात पर्तो वाले वस्त्र पहनने पड़ते हैं । पहाड़ियों की चढ़ाई पर अपना ही पसीना बर्फ में बदल कर त्वचा पर खुजली करने लगता है, त्वचा लाल हो जाती है । जिन पहाड़ियों पर कब्जा पाने के लिए भारतीय सैनिक युद्ध कर रहे थे, वहां सामान्यतः साठ से अस्सी अंश की खड़ी चढ़ाई थी, वीर योद्धा सरहद की हिफाजत के लिए जान जोखिम में डालकर एक-दुसरे की कमर में रस्सी बांधकर एक-दुसरे को सहारा देते हुए उपर चढ़ते थे । और ऊपर से दुश्मन बम वर्षा करते थे । आक्सीजन की कमी के कारण जहां माचिस भी नहीं जल पाती थी, जहाँ दस-पन्द्रह कदम चलने पर ही सांस फूलने लगती थी, बहां इन सबके बावजूद मां भारती के सपूत अपने प्राणों की आहुति देते हुए आगे बढ़े और दुश्मनों को खदेड़कर चोटी पर तिरंगा लहराया ! 

कभी ठण्ड में ठिठुर कर देख लेना !
कभी तपती धूप में जलकर देख लेना!!
कैसे होती है, हिफाजत मूल्क की !
कभी सरहद पर चलकर देख लेना !!’’ 

जरा विचार कीजिए.....!
क्या सिर्फ शहीदो के नाम पर चौक-चौराहे का नाम रखकर उनकी मूर्ति स्थापित कर शहीदो की कुर्बानी का कर्ज चुकाया जा सकता है ?

जरूरत है अपनी सेना का मनोबल बनाए रखने की, देश हर कदम पर उनके साथ है, यह भरोसा कायम रखने की !
जिस दिन सेना का मनोबल गिरा, उस दिन देश का भगवान ही मालिक है !
इसलिए भगवान के लिए सेना का मनोबल न गिराओ, मेरे मुल्क के पत्रकारो, राजनेताओ !
कारगिल हो या कश्मीर, हम देशवासी सेना के साथ हैं !
जो सेना के साथ नहीं हैं, वे शत्रुओं के हिमायती हैं, जयचंद हैं !
जय हिन्द , जय मां भारती !!

साभार आधार - विश्वसंवाद केंद्र भोपाल द्वारा प्रसारित "संवाद मंथन दिनांक 1 अगस्त 2016" में श्री संजय चाणक्य का आलेख 
एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें