भारत विभाजन बनाम निरीह आत्महंता धर्मनिरपेक्ष बकरी - हिन्दूनेता !


मुस्लिम आक्रामकता सफल हुई । वे रातोंरात एक तिहाई भारत पर कब्जा जमाने में सफल रहे, इतना ही नहीं तो अपने कब्जे वाले क्षेत्र से वहाँ रहने वाले गैर मुसलमानों यानी कि हिंदुओं को एक सप्ताह के भीतर भगाने में भी सफल रहे । हिंदू प्रतिक्रिया तो महज बिना शर्त समर्पण और पलायन की रही ।

भारतीय सशस्त्र बलों की प्रतिक्रिया भी शून्य रही । वे भी अंतिम समय तक अंतिम व्यक्ति की रक्षा का अपना घोषवाक्य भूलकर यथाशीघ्र अपने किट और उपकरण पैक कर रफूचक्कर हो गए ।

1940 में अखिल भारतीय कांग्रेस पार्टी और अखिल भारतीय मुस्लिम लीग साथ साथ थे, किन्तु अचानक ब्रिटिश शासकों ने "फूट डालो और राज करो” की नीति पर अमल करते हुए भारत में रहने वाले मुसलमानों को दूसरे राष्ट्र के रूप में मान्य कर मुस्लिम लीग को सुर्खियों में ला दिया ।

सबसे पहले 1936 में लंदन में पढ़रहे कुछ मुस्लिम छात्रों ने "पाकिस्तान" शब्द गढ़ा था, वह अब भारत के भीतर एक इस्लामी देश बनाने के अलगाववादी मंसूबे का प्रतीक बन गया ! जल्द ही यह विनाशकारी विचार भारतीय मुसलमानों के बीच जहरीली घास की तरह तेजी से बढ़ने लगा । अगस्त 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद तो यह बीज एक जहरीले विशाल वृक्ष में तब्दील हो गया ।

जबकि बुजुर्ग "बापू" एमके गांधी अपनी सपनों की अवास्तविक दुनिया में ही रमे रहे और "हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई" का राग अलापते रहे ! चतुर सुजान जवाहरलाल नेहरू ने मौके का फायदा उठाकर स्वयं को तथाकथित "स्वतंत्रता" की वार्ता में भारत का प्रतिनिधित्व करना शुरू कर दिया और देखते ही देखते (अखंड) भारत की अवधारणा का समापन हो गया ।

नेहरू जी के उस समय के आचरण की जांच आवश्यक है। यह अब कोई रहस्य नहीं है कि उन्होंने मुसलमानों के नेता मोहम्मद अली जिन्ना से कभी नहीं कहा कि, "साथ रहेंगे तो हम उठेंगे, विभाजित हुए तो गिरेंगे", न ही उन्होंने कभी जिन्ना पर उच्चस्तरीय राजद्रोह का आरोप लगाया, नाही परिणाम भुगतने की चेतावनी दी ।

सचाई तो यह है कि नेहरू ने अपने कठिन और खतरनाक काम को बड़ी खूबी से अंजाम दिया ! और वह काम था खुद को धर्मनिरपेक्षता के चैंपियन और एक अदम्य स्वतंत्रता सेनानी के रूप में पेश कर, भारत विभाजन की सहमति बनाना और आतंरिक रूप से हिंदू राष्ट्र को नष्ट करना ।

हिंदुओं में अपने शासकों को आलोचना की नजर से देखने की हिम्मत नहीं बची ! उसका कारण रहा कि 712 ईस्वी से ही जब जब किसी हिंदू ने यह हिम्मत की तो अरब से आये मुसलमान आक्रान्ताओं ने सार्वजनिक रूप से पहले उसकी आँखें निकालीं, फिर सर कलम कर मौत की सजा दी । मुसलमान और ईसाई शासकों ने लगातार हजारों की संख्या में शासन के आलोचकों को या तो फांसी पर लटका दिया या गोली मार दी । हजारों वर्षों की गुलामी ने आत्मबल इतना कमजोर कर दिया कि एक परंपरा ही बन गई, आँख बंद रख कर भेड़ चाल की, भले ही किसी चट्टान से एक के बाद एक गिरते ही क्यों न जाएँ ।

फिर भला 1940 से लेकर आज 2016 ईस्वी तक व्यापक हिंदू राष्ट्र जागरण कैसे संभव है, जो "विभाजन" पर या नेहरू के विश्वासघाती 'हिंदू द्रोही" स्वरुप पर खुली चर्चा करे । इसी मनोवृत्ति का कारण है आज के भारत में भी भ्रष्टाचार पर भी सहिष्णुता !

नेहरू ने स्वयं को सर्वाधिक जागरूक हिन्दू प्रतिनिधि के रूप में स्थापित करने में सफलता पाई । उनका आत्म विश्वास इतना बढ़ चुका था कि जब एक सहयोगी ने उनसे कहा कि अगर आपने विभाजन पर सहमति व्यक्त की तो कोई भी देशभक्त आप पर गोली चला देगा ! यह सुनकर नेहरू ठठाकर हँसे और बोले, “हिन्दू न केवल विभाजन को स्वीकार करेंगे, बल्कि उस पर जश्न भी मनाएंगे!" 

जब सहयोगी ने उन्हें सुझाव दिया कि क्यों न इस विषय पर "जनमत संग्रह" करा लिया जाए तो नेहरू ने तल्खी से कहा, " मवेशी से कौन सलाह लेता है? " सहयोगी अवाक रह गये ।

लेकिन तात्कालिक परिस्थिति में मुसलमानों के नेता मोहम्मद अली जिन्ना की तुलना में नेहरू या गांधी महज मिट्टी के माधो थे ।

हमारा परंपरागत शत्रु जितना आक्रामक था, हिंदू पक्ष उतना ही निरर्थक और दुर्बल, कोई विरोध ही नहीं, कोई चुनौती नहीं ।

न तो नेहरू और न ही गांधी ने जनसंख्या के आदान-प्रदान का उल्लेख किया और ना ही जनमत संग्रह की बात की । न ही विभाजन के दौरान पाकिस्तान में फंसे हिंदुओं या भारत में रहने वाले मुसलमानों को लेकर कुछ सोचने की जहमत उठाई ।

स्थिति यह थी कि जो कुछ हमारे औपनिवेशिक मालिक ब्रिटेन ने निर्देश दिया, उसे गांधी, नेहरू और उनकी "अखिल भारतीय कांग्रेस पार्टी" ने स्वीकार कर लिया ! है न अचरज की बात ? यह वही कांग्रेस थी, जिसका दावा था कि वह कश्मीर से केरल और खैबर से चटगांव तक सभी भारतीयों का प्रतिनिधित्व करती है ।

आत्मबल विहीन हिंदू और सिख नेता, गांधी जी के प्रभाव में और भी अधिक निरीह और आत्महन्ता 'धर्मनिरपेक्ष बकरी "बन गये थे, जबकि कैंसर पीड़ित कंकाल नुमा मोहम्मद अली जिन्ना एक के बाद एक अपनी शर्तें लादता जा रहा था । (पाकिस्तान निर्माण के सिर्फ एक साल बाद जिन्ना 11 सितंबर 1948 को कराची में तड़प तड़प कर मरा । नर्क में उसके साथ कौन कौन होगा, यह विचारणीय है!)

हमारे इतिहास के उस महत्वपूर्ण मोड़ पर जवाहर लाल नेहरू को कुछ समझदार हिंदुओं ने सही पहचाना कि वे एंग्लो-इस्लामी एक्सिस के गुप्त एजेंट थे ! वे 23 मार्च 1940 को लाहौर में पारित "पाकिस्तान प्रस्ताव" के बाद से ही सदैव जिन्ना के पक्ष में मजबूती से खड़े रहे ।

नेहरू ने कभी एक भी शब्द "अखण्ड भारत ' के समर्थन में नहीं बोला, मानो वेदों में वर्णित हमारी प्राचीन भूमि मात्र एक चिंदियों का थैला हो । नेहरू एक ऐसे जयचंद थे, जो स्वयं तो दुश्मनों से मिले रहे, किन्तु विभाजन का पूरा खामियाजा "बापू" गांधी के सिर पर फोड़ दिया, जो पहले से ही अहिंसा, सुलह, तुष्टीकरण और बिना शर्त आत्मसमर्पण की अपनी प्रतिबद्धता के चलते सामने थे ।

हिन्दुओं को उन्होंने अत्यंत कमजोर और खतरनाक स्थिति में डाल दिया। मोहम्मद अली जिन्ना के हाथों में तो उसका पाकिस्तान था, तो कदमों के तले हमारा हिंदुस्तान ।

एक श्रुतिलेख के अनुसार ब्रिटिश समर्थन से उत्साहित जिन्ना और उसके सामने हिंदू नेता - कुछ ऐसा नजारा था मानो चूहों की विशाल विधानसभा को संबोधित करती बिल्ली ।

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