सत्तावनी क्रांति और ईनाम लाख रुपये का

इंग्लैंड की ईस्ट इंडिया कंपनी ने किस प्रकार भारत में व्यापार करने के बहाने यहाँ अपनी कोठी बनाने की छूट पाकर अपना राज्य छल-कपट, धोखेबाजी, फूट डालकर और जबरदस्ती जमा लिया, यह इतिहास सर्व विदित है ! १८५७ में नाना साहेब पेशवा, रानी लक्ष्मी बाई, बिहार के बाबू कुंवर सिंह, तात्या टोपे, राव साहब, रजा बेनी माधव सिंह, बेरुवागढ़ के गुलाब सिंह, रुइयागढ़ी के नरपति सिंह, लक्कड़शाह, फैजाबाद के मौलवी अहमदउल्ला शाह, नवाब बाँदा, चहलारी नरेश, रूहेलखंड के खान बहादुर खान, लखनऊ की बेगम हजरत महल, गोंडा के राजा देवी बख्श सिंह आदि ५५ प्रमुख क्रांतिकारी नेताओं ने एकजुट होकर एक क्रांति खड़ी की ! फलतः बड़ी संख्या में अंग्रेज क्रांतिकारियों के हाथों मारे गए ! अनेक स्थानों पर क्रांतिकारियों ने स्वतंत्रता का ध्वज फहरा दिया ! स्थान स्थान पर जनता भी गोरों से जूझी ! गोरों को छठी का दूद याद आ गया !

नाना पर पुरूस्कार 

इसी बीच ईस्ट इंडिया कंपनी के अंग्रेज अफसरों की और से क्रान्ति के नेता नाना साहब पेशवा की गिरफ्तारी के लिए १८५८ की २८ फरवरी को एक लाख रुपये नगद इनाम की घोषणा हुई तथा उनके शरीर का "पहचान-विवरण" 'कंपनी' के छपवाए भित्ति-पत्रों में दिया गया, जो सरकारी फाइलों में 'बस्ते बी इल्लते ग़दर' (सन १८६३,१८६४,कानपुर कचहरी) में इस रूप में प्राप्त है :

'बहुक्म कंपनी बहादुर इत्तिला की जाती है कि जो शख्स निजी तदबीर-ओ-पैरवी नाना साहेब को गिरफ्तार कराएगा या उनकी गिरफ्तारी के लिए सुरागरशी करेगा, उसे कंपनी की तरफ से एक लाख रुपये नगद इनाम बख्शे जायेंगे जिसका (नाना साहेब पेशवा का ) हुलिया निम्नलिखित है -

नाम नानाराव धोंडोपंत ! दक्खिनी ब्राह्मण ! उम्र ३६ साल ! कद 5 फुट 8 इंच ! रंग गोरा ! मजबूत ताकतवर शरीर ! चेहरा गोल-चपटा ! आँखें गोलाई लिए हुए बड़ी ! दांत बराबर ! सीने पर काले बाल ! नाक सीधी व सुन्दर ! कानों में जडाऊ बाले पहनने के निशान ! मराठा पहचान ! पाँव के अंगूठे में सूजे के लगे जख्म के निशान ! मुसलमानी लम्बी दाडी और मुसलमानी हुलिया ! नाना के साथ एक कान कटे नौकर की हर समय मौजूदगी !

नाना तो नाना , उनकी रानी का भी हुलिया कंपनी ने इश्तहारों में छपवाया जो 'बस्ते ब-इल्लते ग़दर कानपुर कचहरी में इस प्रकार है :

'पत्नी नाम नानाराव धोंडोपंत (नाम, नामालूम-शायद कृष्णा बाई)! दक्खनी ब्राह्मण ! आयु २७ वर्ष, शरीर भारी, कद छोटा ! गोरा रंग ! मुखाकृति चौड़ी ! नाक लम्बी ! चेहरे पर शीतला के निशान ! सर झुककर चलने की आदत !'

नाना साहब को कंपनी सरकार इतना खतरनाक क्योँ मानती थी ? इसके कारण है ! एक तो नितांत प्रारंभ में नाना ने ही लखनऊ-अम्बाला जैसे नगरों की यात्रा अंग्रेजों को भ्रम में रखकर की थी ! तब अंग्रेज उस यात्रा का रहस्य जान नहीं सके थे ! और यह नाना ही थे, जिनके पास सभी क्षेत्रों से रूपया आता और लोग उमड़े चले आ रहे थे ! यधपि बिलकुल प्रारम्भ में नाना के पास केवल ४ हजार ही सैनिक थे ! पुरुष तो पुरुष, कानपूर में अजीजन और अनेक सभ्रांत घरों की हिन्दू स्त्रियाँ भी एक स्थान से दुसरे स्थान तक गोला-बारूद और शास्त्रादी पहुँचाया करती थी, जबकि उस किले क़ भीतर दमनकारी अंग्रेज सेना ही ठहरी होती थी !

नाना साहब ने संपत्ति के (दीवानी) मुकदमे निपटाने के लिए एक न्यायालय स्थापित किया था जिसमे तीन लोग थे - ब्रिगेडियर ज्वालाप्रसाद, अजीमुल्ला खान और बाबा साहब ! यह विवरण इतिहास लेखक मि. टामसन ने अपने ग्रन्थ 'द हिस्टरी ऑफ़ कानपुर' में लिखा है ! वह आगे लिखता है कि कानपुर नगर में विधि-व्यवस्था अच्छी होने की वजह से सुख शांति थी और जो लोग आपराधिक कर्म करते थे, उन्हें उक्त न्यायलय कठोर दंड देता था !' यह स्पष्टतः क्रांतिकारी शासन-व्यवस्था की एक विदेशी द्वारा प्रशंसा ही की गयी थी ! 'सर जार्ज ट्रेवलियंस कानपुर' के पृष्ठ २९९ पर यह साक्ष्य अंकित है कि 'सती चौरा घाट (कानपुर) के हत्याकांड की प्रारंभिक गड़बड़ी के कारण कुछ भारतीय सैनिक ४ अंग्रेज स्त्रियों को खींच ले गए ! किन्तु जैसे ही यह समाचार नाना साहब को मिला, उन अंग्रेज स्त्रियों को न केवल तत्काल लौटा दिया गया वरन उन सैनिकों को कडा दंड दिया गया !'

सती चौरा हत्याकांड का भी बहुत कुछ उत्तरदायित्व जनरल नील के उन क्रूर कारनामों पर आता है जब उसने इलाहबाद तथा उसके आसपास के क्षेत्रों के हजारों लोगों को पकडवाकर उनके घर,खेत और स्त्री-बच्चों को आग में जलवाकर राख बना दिया था ! वहां बचे हुए लोग भागकर जब कानपुर आये और उन अग्निकांडों की रोमांचकारी कथा सुनाई तो अंग्रेज कंपनी की फौज के उन अत्याचारों को सुनकर कानपुर के क्रांतिकारी सैनिक तो सैनिक, जनता के लोग भी बदले की भावना से उत्तेजित हो उठे ! उन्ही लोगों ने कर्नल ईवर्ट पर आक्रमण किया ! पर नाना ने किसी भी अंग्रेज स्त्री या बच्चे के साथ कोई भी दुर्व्यवहार नहीं होने दिया ! फिर भी अंग्रेज उन्हें बदनाम करने की गरज से और अंग्रेज सैनिकों को क्रुद्ध करने की नीयत से एक पर एक झूठी अफवाहे फैला रहे थे ! न्यायाधीश मैकार्थी भी लिखता है -

"अफवाहे भड़का भड़का कर अंग्रेजों को उत्तेजित किया गया ! अंग्रेज स्त्रियों को अपमानित करने और उनके अंग काटने की अफवाहें उड़ाई गयी जबकि सौभाग्य से यह बिलकुल झूठ थी ! न उनके कपडे उतारे गए न अपमान किया गया ! हाँ, उनसे अनाज चक्कियों पर पीसने के लिए अवश्य कहा गया था !" यह साक्ष्य मैकार्थी न अपने ग्रन्थ 'हिस्ट्री ऑफ़ अवर ओन टाइम्स' में लिखा है कि 'नो इंग्लिश वुमन वर स्ट्रिप्ड और डीसानर्ड और परपजली म्युटीलेटेड' !

२७ जून को नाना ने कानपुर किले से अंग्रेज कंपनी का झंडा उतरवा फैंका ! इसके पूर्व 7 जून को कानपूर में दस हजार अंग्रेज विद्यमान थे, परन्तु २६ जून की संध्या तक केवल ४ हजार अंग्रेज पुरुष और सवा सो अंग्रेज स्त्रियाँ व् बच्चे ही नाना साहब की दया से जीवित रह पाए, शेष क्रुद्ध क्रांतिकारियों के हाथों मार गए ! इस बीच १८ जून से लेकर २३ जून तक क्रांतिकारियों की सेना और अंग्रेज फौज के बीच भीषण युद्ध चलता रहा ! अंततः अपनी पराजय स्वीकार कर अंग्रेजी सेना के जनरल व्हीलर ने संधि के लिए किले पर श्वेत ध्वज फहरा दिया तो नाना साहब ने आदेश कर तुरंत युद्ध बंद करा दिया ! फिर जब अंग्रेजों ने संधि वार्ता अपनी अंग्रेजी भाषा में ही प्रारम्भ की तो अजीमुल्ला खान ने उसका निषेध करते हुए कहा - 'समझौता-वार्ता हमारे ही देश की भाषा में होगी, अंग्रेजी में नहीं !" तब हिंदी में ही संधि-वार्ता हुई, यधपि स्वयं अजीमुल्ला खान अंग्रेजी भाषा में निपुण थे !

भयभीत थे अंग्रेज 

अंग्रेज मई में ही इतने भयभीत हो चुके थे कि २४ मई को जबकि महारानी विक्टोरिया की वर्षगांठ थी, पूर्व वर्षों की भांति अंग्रेजों ने इस बार तोपों की सलामी नहीं दी ! उन्हें भय था कि भारतीय सैनिक भड़क जायेंगे ! इतना डर कि किसी भी अफवाह मात्र से अंग्रेज अपनी स्त्री-बच्चों को लेकर जनरल व्हीलर के किले में जा दुबकते थे ! नाना बिठूर से २२ मई, १८५७ को ही कानपुर आ गए थे ! मेरठ की क्रान्ति का समाचार लखनऊ तक १३ मई को पहुँच चुका था ! १४ मई १८५७ को क्रांतिकारियों ने दिल्ली को अंग्रेजों से मुक्त कर लिया था और 30 मई १८५७ को रात्री 9 बजे लखनऊ छावनी में भी क्रांतिकारी सैनिकों ने तोप चलाई ! यही क्रांति का उद्घोष था ! सर्वप्रथम ७१ नंबर पलटन ने बंदूकों से फायर किये ! अंग्रेजों के बंगले फूंक डाले ! गोरो को देखते ही गोली मार देते थे ! सर हेनरी लोरेंस अपनी गोरी सेना व् 7 नंबर देशी सवार पलटन लिए दमन के लिए चला, पर मार्ग में ही 7 नंबर पलटन ने भी अंग्रेज कंपनी का झंडा फैंककर क्रांति-ध्वज फहरा दिया ! लोरेंस अपने गोर सैनिकों सहित भाग खड़ा हुआ ! फिर ३१ मई को संध्या होते होते ४८ और ७१ नंबर की भारतीय पैदल पलटनों ने भी 7 नंबर घुड़सवारों सहित अंग्रेज कंपनी का झंडा जला कर फैंक दिया ! अनंतर बारी आई सीतापुर की ! वहां 3 दशी पलटनें थी ! तीनों ने ही विद्रोही बनकर अंग्रेज कंपनी का झंडा उतार फैंका ! २४ अंग्रेजों को गोली मार दी, शेष भाग गए ! सीतापुर स्वतंत्र हुआ ! फिर फर्रुखाबाद को स्वाधीन किया ! मोहमदी, मालन,गोंडा, बहराइच, सिकरौदा, मेलापुर 10 जून १८५७ को स्वतंत्र हो गए ! अलीगढ, मैनपुरी, इटावा, नसीराबाद, रूहेलखंड, बरेली, शाहजहांपुर बदायूं, मुरादाबाद भी ३१ मई तक स्वतंत्र हो गए !

इसी से अंग्रेज कंपनी का क्रोध नाना साहब पर सर्वाधिक था ! पर उनकी जीवन कथा, वे कहाँ कहाँ रहे, भटके, उनका क्या हुआ- एक लेख का विषय नहीं, लम्बी रोमांचकारी गाथा है !

साभार - धरती है बलिदान की (लेखक श्री वचनेश त्रिपाठी)

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