भगदड़ में होती मोतें और हमारी अपनी मूर्खताएं - प्रमोद भार्गव



देश के धर्म स्थलों पर लगने वाले मेले और सत्संगों में होने वाली भगदड़ और आगजनी के बड़े हादसे निरंतर सामने आ रहे हैं। नतीजतन श्रृद्धालु पुण्य लाभ कमाने के फेर में आकस्मिक मौतों की गिरफ्त में आ रहे हैं। इस क्रम में नया हादसा वाराणसी का है। 

उत्तर प्रदेश के चंदौली और वाराणसी जिले के संधि स्थल पर बाबा जयगुरूदेव जयंती समारोह में हिस्सा लेने जा रहे श्रद्धालुओं के बीच राजघाट पुल पर भगदड़ मचने से 24 लोगों की मौत हो गई और 50 से अधिक घायल हैं। मृतकों में 20 महिलाएं हैं। यह आयोजन गंगा किनारे डोमरी गांव में होना था। वाराणसी प्रशासन ने आयोजकों को 3000 लोगों को सत्संग स्थल पर आने की अनुमति दी थी, लेकिन श्रद्धालूओं के आने का जो सिलसिला शुरू हुआ तो भीड़ 1 लाख से भी ज्यादा हो गई। इस भीड़ को नियंत्रित करने के प्रशासन ने कोई इंतजाम नहीं किए थे। गोया गंगा नदी पर बने संकीर्ण राजघाट पुल पर एक व्यक्ति नदी में गिर गया और एक अन्य व्यक्ति की दम घुटने से मौत हो गई। इन खबरों के फैलते ही चंद पलों में दहशत का माहौल बन गया और भगदड़ मच गई। नतीजतन धर्म के जरिए जो मार्ग आत्मकल्याण की राह पर ले जाने वाला था, वह 24 लोगों को मौत के मार्ग में ले गया। 

हादसे में शिकार हुए लोगों के परिजनों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ से दो-दो लाख रुपए और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की ओर से 5 - 5 लाख रुपये का मुआवजा देने की घोषणा की गई है। लेकिन इस तरह से संवेदना जताकर और मुआवजा देने की खानापूर्ति कर देने भर से धर्म से जुड़े हादसों का क्रम टूटने वाला नहीं हैं। जरूरत तो शीर्ष न्यायालय के उस निर्देश का पालन करने की है, जिसमें मंदिरों में होने वाली दुर्घटनाओं को रोकने के लिए राष्ट्रव्यापी समान नीति बनाने का उल्लेख है। यदि भारत सरकार इस हादसे से सबक लेकर इस नीति को बनाने का काम करती है तो यह उनकी मृतकों को सच्ची श्रद्धांजलि होगी। 

पिछले एक दशक से हर साल मंदिरों में एक-दो घटनाएं देखने में आ रही हैं। इसी साल केरल के पुत्तिंगल और उज्जैन के सिंहस्थ मेले में भी हादसे सामने आ चुके हैं। पुत्तिंगल मंदिर में रखी आतिशबाजी में आग लगने से 110 लोगों की मौत हो गई थी और 383 घायल हुए थे। यह हादसा इतना गंभीर था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद चिकित्सकों का एक दल लेकर पुत्तिंगल पहुंचे थे। उत्तर प्रदेश में भी घटा यह कोई पहला हादसा नहीं है। फरवरी 2013 में इलाहाबाद में संपन्न हुए कुंभ मेले में मची भगदड़ में 36 लोग मारे गए थे। मथुरा के बरसाना और देवघर में भी मची भगदड़ में एक दर्जन श्रद्धालु मारे गए थे। विश्व में शान्ति और सद्भावना स्थापना के उद्देष्य से हरिद्वर में गायत्री परिवार द्वारा आयोजित यज्ञ में दम घुटने से 20 लोगों के प्राणों की आहुति लग गई थीं। 1954 में इलाहाबाद में संपन्न हुए कुंभ में गुस्साए हाथियों ने इतनी भगदड़ मचाई थी कि 800 श्रद्धालु काल के गाल में समा गए थे। धर्म स्थलों पर मची भगदड़ की यह सबसे बड़ी घटना थी। 

हम भारतीय जन-सुरक्षा के नियमों की किस हद तक अनदेखी कर रहे हैं, इसका जीता जागता नमूना यह है कि हमारे नौकरशाह भीड़ प्रबंधन का प्रशिक्षण लेने योरुपीय देषों में जाते हैं। सचाई तो यह है कि प्रबंधन के ऐसे प्रशिक्षण लेने के बहाने ये लोग महज सरकारी खर्चे पर तफरीह करने और विदेशी सैर-सपाटे के लिए जाते हैं, इनका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं होता। क्योंकि हमारे यहां धार्मिक आयोजनों में जितनी भीड़ पहुंचती है, उसकी दूसरे देश तो कल्पना भी नहीं कर सकते ! तो भला उसके प्रबंधन के लिए कौशल क्या ख़ाक सिखायेंगे ? 

कुंभ मेलों में तो विशेष पर्वों के अवसर पर एक साथ तीन-तीन करोड़ तक लोग एक निश्चित समय के बीच स्नान करते हैं। भारत में पिछले डेढ़ दशक के दौरान मंदिरों और अन्य धार्मिक आयोजनों में भी उम्मीद से कई गुना ज्यादा भीड़ उमड़ रही ह्रै। धार्मिक स्थलों पर भीड़ बढ़ाने में मीडिया भी बड़ी भूमिका निभा रहा है। इलेक्ट्रोनिक मीडिया टीआरपी के लालच में हरेक छोटे बड़े मंदिर के दर्शन को चमात्कारिक लाभ से जोड़कर देश के भोले-भाले भक्तगणों से एक तरह का छल कर रहा है। इस मीडिया के अस्तित्व में आने के बाद धर्म के क्षेत्र में कर्मकाण्ड और पाखण्ड का आंडबर जितना बड़ा है, उतना पहले कभी देखने में नहीं आया। निर्मल बाबा, कृपालू महाराज और आशाराम बापू जैसे संतों का महिमामंडन इसी मीडिया ने किया था। मजा तो यह है कि यही मीडिया पाखण्ड के सार्वजनिक खुलासे के बाद मूर्तिभंजक की भूमिका में भी खड़ा हो जाता है। निर्मल बाबा और आशाराम के साथ यही किया गया। मीडिया का यही नाट्य रुपांतरण अलौकिक कलावाजी, धार्मिक आस्था के बहाने व्यक्ति को निष्क्रिय व अंधविश्वासी बनाती है और आमजन ईश्वर की निष्काम भक्ति के स्थान पर भाग्य आधारित प्रतिफल के स्वार्थ में फंस जाते हैं । मीडिया, राजनेता और बुद्धिजीवियों का काम लोगों को जागरुक बनाने का है, किन्तु लालची मीडिया, धर्मभीरु राजनेता और धर्म की आंतरिक आध्यात्मिकता से अनजान बुद्धिजीवी स्वयं पाखण्ड का शिकार होते दिखाई देते हैं।

धर्म स्थल हमें इस बात के लिए प्रेरित करते हैं कि हम शालीनता और आत्मानुशासन का परिचय दें। किंतु इस दिशा में न तो समाज जागरुक है और नाही आयोजकों और प्रशासनिक अधिकारियों को इसकी चिंता । लिहाजा विशाल से विराट होते जा रहे हमारे धार्मिक-आध्यात्मिक आयोजनों में यातायात और सुरक्षा के इंतजाम देखने में नहीं आते। ऐसे प्रबंधनों के पाठ हमें विदेशी नहीं दे सकते, इसके लिए तो हमें खुद अपने देशज ज्ञान और अनुभव से इन्हें विकसित करना होगा । 



प्रमोद भार्गव

लेखक/पत्रकार

शब्दार्थ 49-श्रीराम कॉलोनी

शिवपुरी म.प्र.

मो. 09425488224,09981061100

फोन 07492 232007



लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।



एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें