क्या जीत पाएंगे मोदी जी - भ्रष्ट तंत्र के सहारे ईमानदारी की लड़ाई ? - नीलम महेंद्र


नोट बंदी के फैसले को एक पखवाड़े से ऊपर का समय बीत गया है बैंकों की लाइनें छोटी होती जा रही हैं और देश कुछ कुछ संभलने लगा है।

जैसा कि होता है , कुछ लोग फैसले के समर्थन में हैं तो कुछ इसके विरोध में स्वाभाविक भी है किन्तु समर्थन अथवा विरोध तर्कसंगत हो तो ही शोभनीय लगता है।

जब किसी भी कार्य अथवा फैसले पर विचार किया जाता है तो सर्वप्रथम उस कार्य अथवा फैसले को लागू करने में निहित लक्ष्य देखा जाना चाहिए यदि नीयत सही हो तो फैसले का विरोध बेमानी हो जाता है।

यहाँ बात हो रही थी नोटबंदी के फैसले की । इस बात से तो शायद सभी सहमत होंगे कि सरकार के इस कदम का लक्ष्य देश की जड़ों को खोखला करने वाले भ्रष्टाचार एवं काले धन पर लगाम लगाना था।

यह सच है कि फैसला लागू करने में देश का अव्यवस्थाओं से सामना हुआ लेकिन कुछ हद तक वो अव्यवस्था काला धन रखने वालों द्वारा ही निर्मित की गईं थीं और आज भी की जा रही हैं।

जिस प्रकार बैंकों में लगने वाली लम्बी लम्बी कतारों के भेद खुल गए हैं उसी प्रकार आज बैंकों में अगर नगदी का संकट हैं तो उसका कारण भी यही काला धन रखने वाले लोग है।

सरकार ने जिन स्थानों को पुराने नोट लेने के लिए अधिकृत किया है वे ही कमीशन बेसिस पर कुछ ख़ास लोगों के काले धन को सफेद करने के काम में लगे हैं और जिन लोगों के पास नयी मुद्राएँ आ रही हैं वे उन्हें बैंकों में जमा कराने के बजाय मार्केट में ही लोगों का काला धन सफेद करके पैसा कमाने में लगे हैं इस प्रकार बैंकों से नए नोट निकल तो रहे हैं लेकिन वापस जमा न होने के कारण रोटेशन नहीं हो पा रहा।

दरअसल भारत में भ्रष्टाचार की जड़े बहुत पुरानी हैं और इसकी जड़ों ने न सिर्फ देश को खोखला किया है बल्कि यहाँ के आदमी और उसकी सोच को भी खोखला कर दिया है। यह आदमी अपने काले धन को बचाने के लिए ऐसे ऐसे उपाय खोज रहा है कि यदि यही दिमाग सही दिशा में लगता तो शायद आज भारत किसी और ही मुकाम पर होता ।

'भ्रष्टाचार' अर्थात "भ्रष्ट आचरण " , यह एक नैतिकता से जुड़ी हुई चीज़ है एक व्यवहार है जिसे एक बालक को बचपन से ही सिखाया जाता है ,जैसे सच बोलना , चोरी नहीं करना , अन्याय नहीं करना , किसी को कष्ट नहीं पहुँचाना आदि । यह विचार उसे बचपन में ही परिवार से संस्कारों के रुप में और स्कूलों में नैतिक शिक्षा के रूप में दिए जाते हैं।

यह भारत का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि देवताओं की इस धरती पर जहाँ संस्कार बालक को घुट्टी में दिए जाते हैं आज भ्रष्टाचार अपने चरम पर है।

आम आदमी सरकार के इस कदम में सरकार के साथ है क्योंकि उसके पास खोने को कुछ नहीं है और पाने को सपनों का भारत है।

लेकिन जिनके पास खोने को बहुत कुछ है वो कुतर्कों का सहारा लेकर आम आदमी के हौसले पस्त करने में लगा है ।

यह तो सभी जानते हैं कि नेताओं एवं सरकारी अधिकारियों के पास काले धन की भरमार है और यह भी सच है कि वे सभी काफी हद तक अपने धन को "ठिकाने लगाने" में कामयाब हो गए हैं।
केवल 500.और 1000 के नोट बन्द कर देने से सरकार काले धन पर लगाम नहीं लग सकती और भी उपाय करने होंगे। यह तो भविष्य ही बताएगा कि काले धन से इस लड़ाई में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विजयी होते हैं या फिर उनके विरोधी।

यह जो लड़ाई शुरू हुई है , वह न सिर्फ बहुत बड़ी लड़ाई है बल्कि बहुत मुश्किल भी है क्योंकि यहाँ सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि इस लड़ाई को वो उसी सरकारी तंत्र के ही सहारे लड़ रहे हैं जो भ्रष्टाचार में लिप्त है इसलिए लोगों के मन में सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि सिस्टम वही है और उसमें काम करने वाले लोग वही हैं तो क्या यह एक हारी हुई लड़ाई नहीं है ?

कई जगह देखने में आ रहा है कि बैंक प्रबंधन ही कुछ ख़ास लोगों का काला धन सफेद करने में लगा है तो जो सिस्टम पहले से ही विश्वसनीय नहीं था उस पर आज कैसे भरोसा किया जा सकता है ? जिन नेताओं और अफसरों को रिश्वत लेने की आदत बन गई है और जो अपनी काली कमाई के सहारे अय्याश जीवन शैली जीने के आदी हो चुके हैं क्या अब वे ईमानदारी की राह पर चल पाएंगे ?

दूसरी बात सरकार कठोर कानून लागू करने की बात कर रही है तो कानून पहले भी हमारे देश में कम नहीं थे और उन्हीं कानूनों की आड़ में तमाम गैरकानूनी कामों को अंजाम दिया जाता था ।अगर कोई पकड़ा भी जाता था तो मुकदमे ही तारीखों का इंतजार करते रहते थे बाकी काम गवाहों और सुबूतों को खरीद कर फैसला अपने हक में कराना किसी भी पैसे वाले के लिए कोई मुश्किल काम नहीं था।

इसलिए अगर प्रधानमंत्री इस लड़ाई को उसके मुकाम तक पहुँचाना ही चाहते हैं तो उन्हें इस ओर ध्यान देना होगा कि उनकी योजनाओं के क्रियान्वयन में जो कमियां आ रही हैं वे विगत सत्तर सालों की सुस्त और भ्रष्ट नौकरशाही के कारण आ रही हैं । इस लड़ाई को उसके अंजाम तक पहुँचाने के लिए प्रधानमंत्री को अपने साथ देश के प्रतिभावान युवाओं को जोड़ना होगा।

युवा जिनकी आँखों में उम्मीद के सपने कुछ कर गुजरने की ख्वाहिश , असम्भव को सम्भव कर देने की शक्ति , और यह भारत का सौभाग्य है कि उसकी जनसंख्या का 65% युवा पीढ़ी है ।इस युवा शक्ति का आज तक नेताओं ने सत्ता ने राजनीति ने केवल उपयोग किया उन्हें उसमें भागीदार नहीं बनाया। उनकी योग्यता एवं क्षमता 'अनुभव' के आगे हार जाती है ।

देश के युवा जो कि अब तक कोरा कागज़ हैं ,जो खुद भ्रष्टाचार के शिकार हैं , योग्य एवं प्रतिभा संपन्न होने के बावजूद कभी कालेज में एडमीशन से वंचित हुए तो कभी मन पसन्द सब्जेक्ट नहीं मिला कभी योग्य होते हुए भी नम्बर कम हो गए कभी पहचान न होने के वजह से नौकरी नहीं मिल पाई।

वह युवा जिसके सीने में इस भ्रष्टाचार और सिस्टम के विरुद्ध एक आग जल रही है जो काबिल होते हुए भी खुद को लाचार और बेबस महसूस कर रहा है उसकी इस आग को देशभक्ति की लौ में बदल दिया जाए और इस लौ से भ्रष्टाचार की सालों पुरानी जड़ों में आग लगा दी जाए।

आज केंद्र और राज्य सरकारों की कितनी योजनाओं का लाभ उसके लाभान्वितों को जमीनी स्तर पर क्रियान्वन के अभाव में नहीं मिल पाता और वे सभी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती हैं।

इसलिए आवश्यक है कि प्रधानमंत्री परम्पराओं एवं लीक से हट कर समाज में अपने अपने क्षेत्र की ऐसे प्रतिभाओं के साथ एक नए प्रशासनिक तंत्र की स्थापना करें जो उनके सपनों के भारत के निर्माण में उनका सहयोग करे ।

उसे देश के इस नए कानून की ट्रेनिंग देकर सिस्टम में शामिल किया जाए।

नए कानूनों का पालन देश की युवा शक्ति , नई पीढ़ी द्वारा कराया जाए एक नए प्रशासनिक तंत्र बनाया जाए जो कि पुराने सिस्टम और पुराने 'सीखे सिखाए ' लोगों की देन ' भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंके ।

क्योंकि पुराने सिस्टम के क्या नेता क्या अफसर और क्या बाबू जो चेन चल रही है ,क्या हम सभी सच से अनजान हैं ?

अगर बदलाव लाना है तो कानून नहीं सोच बदलनी होगी सालों से नौकरी या नेतागिरी करने वाले तो अपनी पूरी सोच अपनी नौकरी अपनी सत्ता और अपना धन बचाने में ही लगाएंगे।

देश में बदलाव तब आएगा जब जिन हाथों में ताकत हो वह हाथ अपनी शक्ति अपनी सोच देश के भविष्य निर्माण में लगाएँ न कि स्वयं अपने भविष्य के। 

(सम्पादक की टिप्पणी - पुराने पापी तो बदलने से रहे, नयी उमंग लिए, नयाखून जब तक तंत्र में प्रभावी नहीं होगा, तब तक बदलाव की गुंजाईश कम है ! अतः सबसे पहली जरूरत है - चुनाव सुधार ! सेवाभावी समाजसेवी राजनीति के शीर्ष पर पहुंचे उसके लिए धन तंत्र से मुक्त राजनीति - देश की प्राथमिक आवश्यकता है !)

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