नोटबंदी से मोदी विरोध तक : दीदी का दर्द - संजय तिवारी

दीदी दर्द में है। वह मोदी को हटा कर ही दम लेंगी चाहे मरना क्यों न पड़े। मोदी ने पाप ही ऐसा किया है। बड़े नोट क्यों बंद किये ? इसी बंदी के बहाने ममता बनर्जी अब नरेंद्र मोदी को देश की सत्ता से बाहर करने की ठान चुकी है। इसकी औपचारिक शुरुआत के लिए दीदी ने लखनऊ की जमीन को चुना। लखनऊ इसलिए क्योकि यहाँ उन्ही की तरह मोदी की विरोधी सुश्री मायावती जी भी है और मुलायम सिंह भी। यहाँ जमीनहीन हो चुकी कांग्रेस भी शायद उन्ही के सुर में सुर मिला सके। यह अलग बात है कि दीदी की कल यानी २८ नवम्बर की भारत बंद की घोषणा से सभी ने खुद को इतना अलग कर लिया था कि प्रधानमन्त्री तक यह बात ठीक से पहुच सके कि वे लोग दीदी के भारत बंद में नहीं शामिल है। इसीलिए कल कांग्रेस ने आक्रोश दिवस मनाकर इतिश्री कर ली तो मायावती ने ऐलान ही कर दिया की वह नोटबंदी के विरोध में तो है पर भारत बंद में नहीं। जनता दल यू ने पहले ही किनारा कर लिया और नितीश कुमार तो इस मुद्दे पर जम कर मोदी की तारीफ़ भी कर रहे है। समाजवादी पार्टी जरूर बंद में शामिल हुई और आज दीदी के मंच पर भी अखिलेश यादव अपने दलबल के साथ जिस तरह लख़नऊ में ताल ठोक रहे है उसके निहितार्थ बहुत ही गहरे है। 

दरअसल दीदी का दर्द केवल नोटबंदी ही भर नहीं है। दीदी को लगता है कि जिस तरह से कांग्रेस का पतन हो रहा है और नरेंद्र मोदी जैसे कद्दावर नेता को चुनौती देने की हैसियत में कोई नेता दिख नहीं रहा है , ऐसे में वह यदि मेहनत करे तो शायद बड़े राष्ट्रीय विकल्प के रूप में उनको बाकी दल स्वीकार कर सकते है। इसीलिए नोटबंदी से बात करते करते ममता बनर्जी अब सीधे मोदी को हटाने की आवाज़ बुलद करने लगी है। वैसे भी दीदी की राजनीतिक जमीन कुछ ऐसी है जिसमे उनका मोदी विरोधी चेहरा ही उन्हें बनाये रह सकता है। पश्चिम बंगाल में बांग्लादेशी अवैध नागरिक दीदी के अपने वोट बैंक है। वहां के भ्रष्ट जमाखोर और आर्थिक कारोबारी दीदी के निकट माने जाते है। शारदा जैसी अभी कई संस्थाए है जिनसे दीदी को फंडिंग मिलती है , ऐसा वही के लोग कहते है। पश्चिम बंगाल की राजनीति को ठीक से समझने वालो का कहना है कि हवाई चप्पल, फिएट गाडी और गरीबी की ब्रांडिंग के साथ जिस ममता बनर्जी को मीडिया ने उभारा है , ममता बनर्जी सिर्फ उतनी ही नहीं है।

सच तो यह है कि ममता बनर्जी अव्वलदर्जे की अवसरवादी रही है। जब भी मौक़ा मिलता रहा है ममता को कांग्रेस या बीजेपी किसी से भी अपना लाभ लेने में कोई संकोच नहीं रहा। उन्हें जब भी मौक़ा मिला सत्ता में शामिल हुई और खूब लाभ लिया। ममता के एजेंडे में वैसे भी कभी राष्ट्र नहीं रहा। यह सही है कि पश्चिम बंगाल की राजनीति में उन्होंने वामदलों को चुनौती के लिए जो तरीके अपनाये उनमे आम आदमी की बाते ही शामिल थी। यह भी सही है कि पश्चिम बंगाल से वाम की राजनीति के सफाये के लिए सभी गैर वाम दलो ने ममता को चेहरा बना कर काम किया। यह काम कांग्रेस ने बहुत ज्यादा किया। एक तरह से कांग्रेस ने अपने खुद के लिए ही ममता की भरपूर मदद की। लेकिन ममता को लगा कि किसी के लिए इस्तेमाल होने से बेहतर है की खुद की जमीन बना ली जाय। उन्होंने ऐसा ही किया और खूब सफल हुई। यहाँ तक की सिंगूर से जब नैनो का कार संयंत्र हटा तब भी लोग ममता के साथ रहे। यह अलग बात है की रातोरात वह कारखाना मोदी जी गुजरात लेकर चले गए। 

ममता बनर्जी और समाजवादी पार्टी के इस पूरे एकीकरण को नए सिरे से भी देखना जरूरी लगता है क्योकि अब जनता दल यूनाईटेड, राष्ट्रीय लोकदल तथा आरके चौधरी की बीएस-4 समाजवादी से अलग होकर एक मंच पर हैं। ऐसे में समाजवादी पार्टी को उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव से पहले एक मजबूत साथी की जरूरत थी जो ममता बनर्जी के रूप में इनको मिल गया है। कांग्रेस ने अभी तक अपनी स्थिति स्पष्ट नहीं की है। ऐसे में अब समाजवादी पार्टी को ममता बनर्जी के रूप में मजबूत साथी मिल गया है। ममता बनर्जी का कल देर शाम मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने एयरपोर्ट पर काफी जोरदार ढंग से इस्तकबाल कर नए सियासी रिश्तों के द्वार खोलना शुरू किया है। कल जब दीदी आयी तो लखनऊ एयरपोर्ट पर अखिलेश अपने करीबी मंत्री राजेंद्र चौधरी के साथ मौजूद थे। सवाल पूछने पर अखिलेश यादव ने कहा कि 'वह (ममता) उनसे सीनियर है। यूपी आई हैं इसलिए इस्तकबाल को गये थे। 

हालांकि इस दावे से इतर यादव की इस पहल को रिश्तों की मजबूती का नया प्रयास माना जा रहा है। अखिलेश तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के प्रदर्शन का मंच साझा कर रहे है । इसे गैरभाजपा व गैरकांग्रेस एका की दिशा में पहल के रूप में भी देखा जा रहा है। यह भी साफ हो रहा है कि सत्ता के पांचवें साल में अखिलेश ने यूपी के बाहर की राजनीति में भी पांव पसारना शुरू किया है। इससे पहले वर्ष 2012 के राष्ट्रपति चुनाव से पहले सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव व ममता बनर्जी के बीच अच्छे राजनीतिक रिश्ते थे। राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी को लेकर मतभेद हो गये थे। इसके बाद से दोनों दलों के बीच दूरी बढ़ गई थी, मगर जब ममता बनर्जी ने दूसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली तब अखिलेश वहां मौजूद थे। जाहिर है कि इससे रिश्तों की दूरियां कुछ कम हुई थी। अब लखनऊ में ममता के जोरदार सरकारी खैरमकदम और साझा प्रदर्शन के साथ ही अखिलेश ने भी राष्ट्रीय राजनीति की तरफ कदम बढ़ दिया है , इसमे कोई संदेह नहीं। जाहिर है इसके पीछे कही नहीं मुलायम की मंशा भी शामिल है। यह भी हो सकता है की आगामी राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव की यह व्यूह रचना बन रही हो क्योकि मुलायम को प्रधानमन्त्री न बन पाने की पीड़ा तो है ही। 

जहा तक दीदी का सवाल है , उनके पीछे की शक्तियों को भी समझना पड़ेगा। दरअसल ममता बनर्जी यदि नोट बंद करने के विरोध के साथ ही अब यह कह रही है की मोदी को वह हटा कर ही दम लेंगी तो , उनके इस स्वर के तरंगो को ठीक से समझने की जरूरत लगती है। यह मोदी का कुछ वैसा ही विरोध शुरू होता दिखाई पड़ रहा है जैसा गुजरात के दौरान हुआ था। गोधरा 2002 से 2014 तक मोदी को घेरने, रोकने और ख़त्म साज़िशो को देश अभी भूला नहीं है। अब तो वे बहुत से तथ्य भी खुल कर सामने आ चुके है जिनमे मोदी को रोकने और मिटाने के गहरे षड़यंत्र रचे गए थे।

लेखक भारत संस्कृति न्यास, नयी दिल्ली के राष्ट्रीय अध्यक्ष और वरिष्ठ पत्रकार है

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