लोक मंथन में दूसरे दिन हुई सारगर्भित चर्चा !

 

लोकमंथन में दूसरे दिन देश-दुनिया से आये विद्वानों ने प्रस्तुत किये विचार

भोपाल। वैश्विकरण एवं नवउदारवाद युग में राष्ट्रीयता का क्या महत्व है, इसे लेकर विगत अनेक वर्षों से विश्व में विवाद है। भारत की राष्ट्रीयता वसुधैव कुटुम्बकम की पोषक है जबकि वैश्विकरण केवल आर्थिक चिंतन है, दोनो में भेद तो है किन्तु समन्वय की जरूरत भी है। पश्चिमी चिंतन में संसार को निर्मित करने वाला संसार के बाहर रहता है बनाता भी है और सजा भी देता है और मनुष्य को पृथ्वी के उपभोग के लिए भेजता है। फ्रांसीसी दार्शनिक ने कहा है कि मैं हूं क्योंकि मैं सोचता हूं। मेरी विचार क्षमता ही नियंत्रक है, माइंड इज़ सुप्रीम। चूंकि प्रकृति जड़ है विचार नहीं कर सकती इसलिए मैं उनका उपभोग करने को स्वतंत्र हूं। उनके ही एक शिष्य ने दो कदम और आगे जाकर कहा कि प्रकृति रहस्य जानने के लिए मैं उसका उत्पीड़न भी कर सकता हूं। यह विचार पूर्व केन्द्रीय मंत्री एवं भारतीयता के विचारक डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने लोकमंथन में व्यक्त किये। इस अवसर पर ‘वैश्विकरण एवं नवउदारवाद युग में राष्ट्रीयता’ विषय पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान एवं नीति आयोग के सदस्य डॉ. विवेक देबेराय ने भी अपने विचार व्यक्त किये।

       डॉ. जोशी ने कहा कि ब्रम्हाण्ड क्या है?  यांत्रिक दृष्टि ने कहा कि यह एक यंत्र है। यंत्र की तरह चलता है तो इसे जानने के लिए पहले तोड़िए फिर जोड़िए। निहारिका, सूरज, चांद, तारे से लेकर परमाणु और उसके भी अंदर तोड़ते तोड़ते- तोड़ते न्यूट्रान, प्रोटान, इलेक्ट्रान तक पहुंच गए और अब समस्या है कि ये इलेक्ट्रान क्या है? गॉडपार्टिकल। गॉड तो मिला नहीं पार्टीकल न चला जाए। कहा जाता है कि ग्लोबलाईजेशन गरीब और गरीब देशों के लिए नहीं है। इसके मूल में वही पश्चिमी चिंतन है कि चेतन अचेतन का शोषण कर सकता है। उनका चिंतन प्रारंभ से ही द्वैत का है। जबकि भारतीय संस्कृति में अर्थ चिंतन का आधार अर्थायाम है अर्थात संतुलन। हम मां का दूध पी सकते हैं, खून नहीं। शरीर में प्राणवायु हर सेल तक पहुंचती है, पहुंचना चाहती है, पहुंचना चाहिए नहीं पहुँची तो कैंसर का ख़तरा है। हर सेल को जरूरत के मुताबिक संपोषण मिलना चाहिए। जरूरत से ज्यादा भी नही और आवश्यकता से कम भी नहीं। पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव हम पर भी हो रहा है, पहले पूरे मोहल्ले के बच्चे-बच्चे को जानते थे, आज पड़ोसी को भी नहीं पहचानते। यहाँ तक कि परिवार में बच्चे भी घर मे रहते हुए भी माता-पिता से मोबाईल पर बात करते हैं। परिवार हमारी मूल संस्था है इसका टूटना विश्व का टूटना है। मानव प्रकृति से सामाजिक प्राणी है। आज का ग्लोबलाईजेशन व्यष्टि, समष्टि और परमेष्टि में बाधा डालता है। लेकिन इतना तय है कि अंतरराष्ट्रीय ग्लोबलाईज्ड वर्ल्ड को एक बिन्दु पर आना होगा। समृद्धि से शांति नहीं मिलती इसका संतुलन भारत से समझना होगा। वर्तमान लोकमंथन चिंतन से व्यक्ति-व्यक्ति के संबंध, उनके प्रकृति से संबंध परिभाषित होंगे यह अमृत निकलेगा। पश्चिम को केवल बाजार चाहिए हमें परिवार भी चाहिए बाजार भी चाहिए साथ ही मैं कौन हूं, कहां से आया हूं, क्यों आया हूं, इन प्रश्नों के उत्तर भी। तत्वमसि!

      वहीँ, नीति आयोग के सदस्य एवं प्रख्यात अर्थशास्त्री डॉ. विवेक देबराय ने राष्ट्रीयता के परिपेक्ष्य में स्वामी विवेकानंद को कोट करते हुए कहा- ‘हे भारत तू मेरा है, मैं तेरा हूं, भारतीय समाज मेरा है भारत की उन्नति मेरी उन्नती है भारत की अवनति मेरी अवनती है।’  सच्चे अर्थों में यही राष्ट्रीयता है। मैं किसी भी जाति समाज का हूं मेरी कोई भी भाषा है पर भारतीय हूं। भारत की अधिकांश जनता मोक्ष पर विश्वास करती है, सत् चित् आनंद में विश्वास करती है। यदि मुझे भारत पर गर्व नहीं है तो इसका अर्थ है कि मुझे स्वयं पर भी गर्व नहीं है। अंतरराष्ट्रीय विचार नेगोशिएशन का विचार है, पारस्परिक लेनदेन का विचार है। क्योंकि उनकी नजर में दुनिया एक बाजार है। जबकि भारत में भारतीय चिंतन में शांति पर्व में भीष्म और युधिष्ठिर का संवाद हो या मनुस्मृति या कौटिल्य का अर्थशास्त्र, इनमें वंचित की चिंता की गई है भीष्म युधिष्ठिर से पूछते हैं कि कृषक सुखी है या नहीं? दुर्भाग्य यह है  कि ग्लोबलाईजेशन के नाम पर हमारी हजारों वर्ष पुरानी संस्कृति पर खतरा मंडरा रहा है। हम अपनी संस्कृति और परंपरा को भी नही जानते। हमारे पैंतीस हजार शास्त्रों में से उन्नीस हजार का अनुवाद भी नहीं हुआ है। जिनके अनुवाद हुए भी हैं उनमें से कईयों के जर्मनी ने किए। धर्म का जो वास्तविक तत्व आदिशंकर, विवेकानंद, महात्मा गांधी ने व्यक्त किया और जिसे आम भारतीय भी भली प्रकार जानता है, उसे दुनिया भी जाने माने यह आवश्यक है यही लक्ष्य होना चाहिए। हमारी इस धरोहर पर गौरव की अनुभूति हो।

भौतिकवाद में डूबी दुनिया को राह दिखाएगा भारत : मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने विधानसभा परिसर में चल रहे तीन दिवसीय राष्ट्रीय आयोजन लोकमंथन में कहा कि आज जिस प्रकार के नवउदारीकरण और भूमंडलीकरण की बात हो रही है, उससे कहीं अधिक समृद्ध विचार भारत की माटी और उसकी जड़ों में है। भारत ही वह देश है, जिसने सबसे पहले वसुधैव कुटुम्बकम का विचार दिया। भारत का यह विचार आज के भूमंडलीकरण से कहीं अधिक गहरा और व्यापक है। भौतिकवाद में डूबी इस दुनिया का पथप्रदर्शन भारत ही करेगा।

            मुख्यमंत्री श्री चौहान ने कहा कि दुनिया में पूँजीवाद और वामपंथ दोनों अफसल हो गए हैं। दुनिया की उम्मीदें अब भारत की ओर ही हैं। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने 'एकात्म मानवदर्शन' का विचार दिया था, जो भारतीय परंपरा पर आधारित है। यह विचार व्यष्टि, समष्टि और परमेष्टि की सम्पूर्ण चिंता करता है। पश्चिम का विचार मानता है कि शरीर को सुख-सुविधा देने से मनुष्य प्रसन्न हो जाएगा। जबकि भारत का विचार इससे आगे की सोचता है। वह कहता है कि मनुष्य केवल मात्र शरीर नहीं है। उसके पास मन है, बुद्धि और आत्मा भी है। इसलिए शरीर के सुख के साथ-साथ व्यक्ति के मन, बुद्धि और उसकी आत्मा के सुख की भी चिंता करनी होगी। मुख्यमंत्री ने कहा कि सुख पद, प्रतिष्ठा और पैसे से प्राप्त नहीं किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि जीवन में अर्थ का अभाव नहीं होना चाहिए और अर्थ का प्रभाव भी नहीं होना चाहिए। उन्होंने केन्द्र सरकार के निर्णय का जिक्र करते हुए कहा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 500 और 1000 के नोट बंद करके अर्थ का प्रभाव समाप्त कर दिया है। प्रधानमंत्री के इस निर्णय से कालाधन, फर्जी मुद्रा और आतंकवाद की फंडिंग समाप्त हो जाएगी। मुख्यमंत्री श्री चौहान ने कहा कि भारत में विचारों की जैसी स्वतंत्रता है, वैसी दुनिया में कहीं नहीं है। भारत ही एकमात्र देश है, जहाँ से यह विचार उत्पन्न हुआ कि एक ही सच है, जिसे अनेक लोग अपने-अपने ढंग से कहते हैं। विचारों की स्वीकार्यता के कारण ही हमने चार्वाक को भी ऋषि माना है। उन्होंने कहा कि जहाँ-जहाँ वामपंथ की सरकारें रहीं, वहाँ विचारों को बिल्कुल भी स्वतंत्रता नहीं दी गई।

आज के दिन का प्रमुख आकर्षण रहे श्री तारिक फ़तेह ! राष्ट्रीय अस्मिता एवं अन्य पहचानों का समायोजन विषय पर बोलते हुए प्रख्यात लेखक तारेक फ़तेह ने कहा कि हमें हमारे दोस्त और दुश्मनों की पहचान होनी चाहिए। अमेरिका हमारा उतना दुश्मन नहीं है और न ही बांग्लादेश, जितना पाकिस्तान और वह मानसिकता जो कहती है कि कलमा पढों, वरना गर्दन उतार लेंगे। जब जर्मन में रहने वाला जर्मनी, रूस में रहने वाला रूसी और जापान में रहने वाला जापानी कहलाता है तो फिर हिंदुस्तान में रहने वाला हिन्दू क्यों नहीं। सनातनी हिन्दू, जैन हिन्दू, बौद्ध हिन्दू, पारसी हिन्दू और मुसलमान हिन्दू। आपकी सबसे बड़ी कमजोरी, आपकी भलमनसाहत है। यह हिंदुस्तान है, जिसने बाहर से आये पारसी दाउदी, बोहरा, यहूदी सबको अपने में समेटा। उन्होंने कहा कि सिंध के राजा दाहिर ने जिन्हें पनाह दी, वे अगर अपनी पहचान सयैद, पठान पटाकर कौमी परिचम नहीं लहरा सकते, मादरे वतन की जय नहीं बोल सकते तो सब्सिडी लेकर वीजा कटाओ और जाओ। हिंदुस्तान उस दिन ताकतवर होगा, जिस दिन बाबर का नाम पाठ्यक्रम से हटेगा। 

इसके अलावा लोकमंथन में आधुनिकता की अवधारणा एवं जीवन शैली पर केंद्रीय मंत्री श्रीमती स्मृति ईरानी, भारत की भू राजनीति एवं वर्तमान वैश्विक परिदृश्य पर ब्रिटिश पत्रकार तुफैल अहमद, महिला शक्ति भारत और पश्चिम : अतीत से वर्तमान विषय पर महिला एक्टिविस्ट जाकिया सोमन अपने विचार प्रस्तुत किया।

समानांतर सत्रों में हुए उद्बोधन -

श्री शंकर शरण –

अवधेशानंद जी ने कल कहा था कि हिन्दी के कई शब्दों का अंग्रेजी में अनुवाद हो ही नहीं सकता ! लेकिन जिस दिशा में देश जा रहा है, उससे तो लगता हैकि हमारी कई भाषाएँ विलुप्त ही हो जायेंगी ! इसके बाद क्या भारत, भारत रहेगा ? एक जर्मन दार्शनिक का कथन हैकि भाषा कोई निर्जीव औजार नहीं है, अगर आप अपनी भाषा छोड़कर दूसरी का उपयोग करेंगे तो वह भाषा अपनी सभ्यता के अनुसार स्वयं आपको निर्देशित करने लगेगी !

राज्यपाल जी ने नए स्वदेशी आन्दोलन की आवश्यकता जताई थी ! पर पुराना स्वदेशी क्या था ? वह आध्यात्मिक वैचारिक आन्दोलन था ! सौ साल पहले वन्दे मातरम के प्रयोग से देश के नेताओं ने देश को जगाया था ! आज भी देश उसी से जागता है ! इसमें कोई ऐसी चीज है, जो देश को एक कर देती है ! किसी विदेशी भाषा द्वारा वह भाव नहीं जगाया जा सकता ! लेकिन दुर्भाग्य से विदेशी भाषा को बढ़ावा देय जा रहा है, जिसके चलते देश की नब्बे प्रतिशत आबादी दरकिनार हो रही है ! भाषा का एक एक शब्द संग्रहालय होता है, उसके अनुवाद का प्रयत्न बेमानी है ! उसका मनमाना इस्तेमाल संभव नहीं ! भाषा में संस्कृति का निवास होता है ! भाषा छूटी – संस्कृति छूटी ! दुनिया के दर्जनों देश अन्य भाषाओं के साहित्य को अपनी भाषा में ले आते हैं ! हमारे यहाँ, साधन, सामर्थ्य, प्रतिभा किसी चीज की कमी नहीं, फिर क्या कारण है कि हम वैसा नहीं कर पाते !

श्री विनय सहस्त्रबुद्धे –

राजनीति में लोकतंत्र, लोकतंत्र में लोक की चर्चा अपरिहार्य ! हमारे देश का संविधान बनाते समय चुनाव पद्धति को लेकर बहुत संक्षिप्त चर्चा हुई और वेस्टर्न सिस्टम को ज्यूं का त्यूं स्वीकार किया गया ! राजनैतिक दल लोक से कैसे जुड़ें, इस पर तो कोई चर्चा ही नहीं हुई ! जयप्रकाश जी ने दलविहीन लोकतंत्र की बात की, किन्तु अंततः यही माना गया कि राजनैतिक दल के बिना लोकतंत्र की कल्पना संभव नहीं है ! राजनैतिक दल संचालन के नियम अन्य देशों में हैं, पर हमारे यहाँ नहीं ! चुनाव आयोग की वेव साईट पर 1600 से अधिक राजनैतिक दल हैं ! दल बनाना एनजीओ बनाने से भी अधिक आसान है ! इनमें से महज 50 दल राजनीति कर रहे हैं, उनमें भी 6 के अलावा सव परिवार आधारित दल हैं ! तंत्र ऐसा है जिसमें स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का अभाव है ! आप 25 प्रतिशत मत लेकर भी जीत सकते हैं, क्योंकि अन्य को उससे भी काम वोट मिले हैं ! सच कहा जाए तो सबसे अधिक लोकप्रिय के स्थान पर सबसे कम अलोकप्रिय का चुनाव होता है ! ऐसे में लोकमत परिष्कार के स्थान पर लोकरंजन या लोक अनुनय परस्त राजनीति चल रही है ! वेंकटचलैया आयोग की रिपोर्ट पर वर्षों से कुछ नहीं हुआ नतीजतन देश की जनता चुनाव सुधारों से वंचित है ! राजनीति का चुनावीकरण, विकास का प्रशासनीकरण के कारण केवल सिनेसिज्म बढ़ रहा है, सब मक्कार हैं, सब चोर हैं, कुछ नहीं हो सकता यह ध्वनि सब दूर सुनी जा सकती है ! ऐसे में व्यापक राजनैतिक व चुनाव सुधार आवश्यक हैं !

श्री राकेश मिश्रा –

डेमोक्रेसी का अनुवाद लोकतंत्र करना ही गलत है ! डेमोस ग्रीस भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है – अपरिष्कृत ! अरिस्टोटल ने डेमोक्रेसी की इसी आधार पर परिभाषा की – पुअर मेन शो ! किन्तु हमारे यहाँ तो गरीब भी सुसंस्कारित, सभ्य व समझदार था ! 17 वीं सदी में वहां डेमोस मास बनकर प्रभावी हो गया ! फेक्ट्री रिवोल्यूशन के बाद चर्च टूटे, सभ्यता बिखर गई, हर व्यक्ति अकेला हो गया, व्यक्तिवाद आया ! सेल्फ सस्टनेबल व्यक्ति केन्द्रित लोकतंत्र ! यह दोषपूर्ण धारा, जिसका उद्गम ही बिखंडन था ! हमारे यहाँ तो संबंधों की विराट श्रंखला है ! महर्षि अरविंद ने कहा कि आप अपनी सभ्यता के प्रकाश में आज को नहीं देख रहे, आधुनिकता के माध्यम से अपनी संस्कृति को देख रहे हैं ! लोक और आलोक प्रकाश के प्रतीक हैं ! प्रकाश श्रेष्ठ जीवन मूल्यों का ! जनजन में मूल्यों का प्रकाश ! नेतृत्व राष्ट्रीय मूल्यों का प्रतिमान होना चाहिए ! क्या वर्तमान पंचायतें पुरानी भारतीय पंचायतों के अनुरूप हैं ?

श्री अशोक भगत –

७२ में लोकतंत्र की २५ वीं वर्षगाँठ पर प्रो. रघुवीर सिंह ने कहा था कि डेमोक्रेसी मोवोक्रेसी हो गई है, मोब भी मूर्खों का ! जनता के नाम पर जनता को मूर्ख बनाया जा रहा है ! बिनोबा जी ने कहा कि मुगलों के काल में शहर गुलाम थे, अंग्रजों के काल में गाँव भी गुलाम हो गए ! रेवेन्यू लॉ बनाकर टेक्स लादा गया ! जमीन के नीचे की चीज हमारी, यह नीति बनी ! गाँव को आजादी दिए बिना, अपने पैरों पर खड़े किये बिना, प्रजातंत्र सफल नहीं ! हिन्दू संस्कृति की मुख्य धारा गाँवों में है ! एस सी, एस टी को एक समान मानना गलत है ! आदिवासी दलित नहीं है, वह तो स्वामी है ! लोक सभा न विधान सभा, सबसे बड़ी ग्राम सभा !

डॉ. बी.बी. कुमार

समस्याओं को समझकर दूर करने की पहल होना चाहिए ! इतिहास की गलतियों की चर्चा होती है, किन्तु समाधान की नहीं ! विभेद पैदा करने वाली शिक्षा दी जा रही है ! विचारों की जड़ता, कृतित्व की जड़ता को देखकर निराशा होती है ! उल्लेख मिलता है कि हमारे यहाँ ३३ हजार स्टेट थीं, किन्तु कोई द्वैत नहीं था ! आज भी सब जातियों के डाटा एकत्रित करेंगे तो एकता के सूत्र दिखेंगे !

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