अम्मा अम्मा का राग अलापते पत्रकार कांचीकामकोटी प्रसंग को तो याद करें - उमाकांत मिश्र जी की फेसबुक पोस्ट


कांचि कामकोटि पीठ के शंकराचार्य की हत्या मामले से बरी होने की खबर आई और चली गई। लेकिन भारत के इतिहास में यह राज्य की ओर से पीठ पर पहला ऐसा कानूनी प्रहार था जिसने पूरे देश में एक साथ पीड़ा और क्रोध पैदा किया था। जो लोग नवम्बर 2004 से बहुचर्चित शंकररमन हत्या मामले पर नजर रखे हुए थे उनके लिए शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती, उनके उत्तराधिकारी विजयेंद्र सरस्वती समेत सभी 23 आरोपियों को बरी किए जाने पर कोई आश्चर्य नहीं हो सकता।

आरंभ से अंत तक यानी करीब नौ सालों तक चली कानूनी प्रक्रिया के दौरान यह साफ दिखाई देता रहा कि तमिलनाडु सरकार केवल दुर्भावना से कार्रवाई करती रही। अगर आप पुडुचेरी के जिला एवं सत्र न्यायालय के फैसले को पढ़ेंगे तो जगह-जगह इसमें पुलिस के रवैये पर तीखी टिप्पणी की गई है। ध्यान रखिए जयेंद्र सरस्वती की अपील पर उच्च्तम न्यायालय ने 2005 में मामले की सुनवाई को तमिलनाडु से पुडुचेरी स्थानांतरित कर दिया था। इस फैसले का महत्व कई मायने में है। सबसे पहला तो यही कि इससे शंकराचार्य जैसे महत्वपूर्ण एवं सम्मानित पीठ की साख पर लगाया गया दाग धुल गया एवं आम धर्मावलंबियों की आस्था पुनर्स्थापित हुई। दूसरे, इससे यह साफ हो गया कि सरकारें किस तरह किसी के खिलाफ काम कर सकतीं हैं और राजनीतिक नेतृत्व के इशारे पर पुलिस प्रशासन आतंक का रवैया अपनाकर क्रूरता बरतता है।

वास्तव में शंकराचार्य के पीठों में कांचि कामकोटि की भूमिका काफी महत्वपूर्ण है और इसके इतिहास में पहली बार मठ को कठधरे में खड़ा किया गया, दोनों शंकराचार्य जेल में डाले गए और इस कारण मठ कुछ दिनों तक शंकराचार्यविहीन रहा। ऐसे सम्मानित धर्मपीठ के विरुद्ध कार्रवाई जैसी असाधारण घटना पर देशव्यापी आक्रोश स्वाभाविक था, लेकिन तमिलनाडू में तब भी जयललिता की सरकार थी और उनके एकाधिकारवादी जिद्दी स्वभाव से हम सब परिचित है। प्रधानमंत्री तक की अपील को नकारते हुए शंकराचार्य को अपमानित, लांछित करते हुए अपनी सत्ता शक्ति का सम्पूर्ण दुरुपयोग करतीं रहीं। मामला तमिलनाडु के कांचीपुरम स्थित श्री वरदराजपेरुमल मंदिर के मैनेजर शंकररमन की 3 सीताएम्बार, 2004 को हुई हत्या का था। पुलिस ने कहा कि जांच में कांची मठ पीठ के शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती और उनके सहयोगी विजयेंद्र के संलिप्त होने का प्रमाण मिला है। आरोप यह लगाया गया कि शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती से जुड़ी कोई आपत्तिजनक जानकारी मैनेजर शंकररमन के पास थी, जिसके बाद उनकी हत्या कर दी गई। 

मामले में कुल 24 लोग (अब 23 लोग) पर विभिन्न धाराओं के तहत आरोप तय किए गए थे। एक आरोपी कांतिरमन की इस साल मार्च में हत्या कर दी गई थी। पुलिस ने कांची मठ के एक अन्य मैनेजर सुंदरेशन और जयेंद्र सरस्वती के भाई रघु को भी साजिशकर्ता के रूप में सह आरोपी बनाया गया था। यह पूरी तरह मठ और शंकराचार्य के परिवार तक के चरित्रहनन का अभियान जैसा था। 2005 से लेकर नवंबर 2013 तक 189 लोगों की गवाही हुई, जिनमें से 83 गवाहों ने पुलिस द्वारा प्रस्तुत किए गए अपने बयान को ही गलत कह दिया। एक मात्र एप्रूवर रवि सुब्रमण्यम ने भी अपने पूर्व बयान को दबाव में दिया गया कह दिया। यहां तक कि शंकररमण की बेटी ने आरोपियों को अभियुक्त मानने से इन्कार कर दिया।

जिन्हें करीब नौ वर्ष पूर्व की घटनाएं याद नहीं वे शायद सोच नहीं पाएंगे कि इस फैसला का कितना महत्व है। उन क्षणों को याद करके जयेन्द्र सरस्वती और उनके भक्त आज भी सिहर जाते होंगे। पूरे मठ को ही कुकर्मों का स्थल बना देने की कोशिश थी। यह कहा गया कि मंदिर के अंदर जो गलत काम किए जा रहे थे, कहीं उसका खुलासा न हो जाए, इसलिए हत्या की गई। शंकराचार्य के ऊपर महिलाओं के साथ शारीरिक संबंध बनाने के भी आरोप लगे। पुलिस ने एक महिला लेखक अनुराधा रमण का यह बयान प्रस्तुत किया था कि 1992 में उन्होंने अपने आश्रम में एक पत्रिका प्रकाशित करने के लिए चर्चा करने के लिए बुलाया था, लेकिन वह उनसे गलत हरकत करने लगे एवं अंत में सेक्स की इच्छा जाहिर की थी। अनुराधा रमण का कहना था कि वह किसी तरह से बचकर चली आई थी। 

यह ऐसा लांछन था जिसके बाद शंकराचार्य जैसा हिन्दू धर्म का मुख्य पीठ कलंकित नजर आने लगा था। कभी यह कहा गया कि खाते में हेरा-फेरी होता रहा है तो कभी विदेश से आयातित सोने में घपले का आरोप...आदि आदि। काफी समय तक प्रतिदिन छापा और एक आरोप आता रहा। मठ की ओर से ऐसे आरोपों का खण्डन होता रहा लेकिन कोई संज्ञान नहीं। साफ था कि जयललिता किसी तरह आम जनता के मन में यह बात बिठाना चाहतीं थी कि शंकराचार्य स्वयं दुष्चरित्र एवं स्वाभाविक अपराधी हैं तथा उनका मठ पूरी तरह भ्रष्टाचार, अपराध एवं हर प्रकार के कुकृत्यों का अड्डा रह गया है।

11 नवम्बर, 2004 को जब जयेंद्र सरस्वती को शंकररमण की हत्या की साजिश रचने के आरोप में आंध्र प्रदेश में गिरफ्तार किया गया तो पूरे देश में उसका विरोध हुआ। सरकार और पुलिस दोनों का तर्क उसी समय संदेश दे रहा था कि निजी खुन्नस और निहित उद्देश्य से कार्रवाई की जा रही है। पुलिस की दलील थी कि हत्यारे को बैंक खाते से धन दिए गए। 3 जनवरी, 2005 को उच्च्तम न्यायालय ने प्रॉसीक्यूशन से जयेंद्र के आईआइसीआई बैंक से लेन-देन का साक्ष्य प्रस्तुत करने के लिए कहा। 

ध्यान रखिए उच्चतम न्यायालय ने जयेन्द्र सरस्वती के जमानत आदेश में ही जो टिप्पणियां की थी कि उससे ही सरकार एवं पुलिस की बदनियति का प्रमाण मिलता था। उसने सबसे पहले कहा कि शंकराचार्य के हत्या की साजिश में संलिप्त होने के पक्ष में प्रथमदृष्ट्या कोई प्रमाण नहीं है। इस संदर्भ में जो 39 पत्र पेश किए गए उस पर भी न्यायालय की टिप्पणी यही थी कि ये पत्र शंकराचार्य को मिले या नहीं इसका भी कोई प्रमाण नहीं है। तीसरे, हत्यारों को बैंक खाते से रकम दिए जाने का आरोप भी साबित नहीं होता है। न तो जिस आईसीआईसीआई बैंक के खाते से 50 लाख रूपया निकलाकर हत्यारों को देने का आरोप लगाया गया है उसे प्रमाणित किया जा सका और न बाद में खेत बिक्री से मिले पैसे के बारे में ही। इंडियन बैंक के खाते में 7.5.2004 को 50 लाख रूपया जमा किया गया जो कि 30.4.2004 को प्राप्त हुआ था। इस प्रकार इस पैसे को कथित हत्यारों को दिए जाने की बात सबित नहीं होती। चार, शंकराचार्य और अन्य दो आरोपियों रवि सब्रह्यण्यम् तथा कादिरवन द्वारा कथित अपराध स्वीकार करने के पुलिस के दावों के अतिरिक्त कोई भी सार्थक प्रमाण सामने नहीं लाया जा सका। इसके साथ हत्या में सह आरोपी बनाए गए दो अभियुक्तों ने यह कहा कि उन्हें अपराध कुबूल करने के लिए उत्पीड़ित किया गया था। ध्यान रखिए एक का हाथ तोड़ा गया था और दूसरे के दांत। उच्च्तम न्यायालय ने चश्मदीद गवाह पेश करने के लिए कहा, लेकिन सरकार यह नहीं कर पाई।

अगर सरकार का इरादा हत्या की निष्पक्ष जांच एवं कार्रवाई होती तो वहीं रुक जाती। किंतु जयेन्द्र सरस्वती को जमानत दिए जाने के कुछ ही घंटे के अंदर कनिष्ठ शंकराचार्य विजयेन्द्र सरस्वती को गिरफ्तार कर लिया गया। ढाई हजार वर्ष के इतिहास में यह पहली बार था जब कांची कामकोटि मठ में त्रिकाल पूजा बाधित हुई। जयेन्द्र सरस्वती को फिर से पुछताछ के लिए सम्मन किया गया। जमानत आदेश के विरूद्ध एक स्पष्टीकरण याचिका पेश की गई, जिसमें उच्चतम न्यायालय से शंकराचार्य के साथ और कड़ी शर्त्तें लगाने की मांग की गई। मठ के सभी खाते सील कर दिए गए। जयललिता किस तरह अपनी जिद पर अड़ी थी उसका प्रमाण था उच्चतम न्यायालय के विरुद्ध दायर स्पष्टीकरण याचिका। उसमें शंकराचार्य के मठ के किसी भी व्यक्ति से मिलने पर प्रतिबंध लगाने का निवेदन के साथ उनके तमिलनाडु, आंध्र, केरल एवं कर्नाटक आने पर रोक तथा प्रतिदिन पुलिस थाने में हाजरी देने का आदेश जारी करने की भी अपील थी। इस प्रकार का व्यवहार केवल दुर्दांत, जघन्य अभ्यस्त अपराधियों के साथ ही किया जा सकता था। 10 जनवरी, 2005 को उच्च्तम न्यायालय ने सरकार की याचिका खारिज कर दिया।

संयोग देखिए, जयललिता के शासनकाल में ही शंकराचार्य द्वय और पीठ के खिलाफ आतंक के राज्य जैसी कार्रवाई हुई और उनके समय ही न्यायालय ने सारे आरोपों को बेबुनियाद करार दे दिया। शंकराचार्य के साथ बरताव के लिए जयललिता को मरते दम तक कोई पछतावा नहीं हुआ। क्या यह विचार नहीं किया जाना चाहिए, कि उनने ऐसा क्यों किया? दोनों शंकराचार्य, उनके भक्तों तथा पीठ को जो प्रताड़ना व लांछन मिले उसे कौन वापस करेगा? कनिष्ठ शंकराचार्य को उस समय गिरफ्तार किया गया जब वे धनुर्मास्य की पूजा में लगे थे जो कि कुछ ही घंटों में संपन्न हो जाने वाला था। विजयेन्द्र सरस्वती की गिरफ्तारी के 4 दिन पहले यानी 6 जनवरी, 2005 को प्रधानमंत्री ने मुख्यमंत्री को पत्र लिखा जिसमें कहा गया था कि कनिष्ठ शंकराचार्य को गिरफ्तार करने से चिन्ता का वातवरण बनेगा। जयललिता ने उत्तर में कहा कि लोगों ने कानून की नजर में सबके साथ बराबर का व्यवहार करने के सरकार के कदम को सराहा है। यानी हम जो चाहेंगे करेंगे। देखा जाए तो यह मठ के अस्तित्व को समाप्त करने का व्यवहार था। किंतु इस लोकतंत्र की नई प्रणाली में राज्य को सर्वशक्तिशाली बना दिया गया है। प्राचीन काल से मान्य हमारे धर्मपीठों एवं अन्य सामुदायिक संस्थाओं को संविधान में कोई स्थान नहीं हैं कि ये सीधे-सीधे राज्य से प्रश्न पूछ सकें। राज्य की कार्रवाई पर कोई प्रश्न नहीं। अगर आप किसी तरह बरी हो गए यही बड़ी बात है।

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