है नायक पर विश्वास अटल - संजय तिवारी


अंग्रेजी कलेंडर से वर्ष बदल रहा है। 2016 जा रहा है। 2017 आ रहा है। मौसम में सर्दी है। राजनीति में गर्मी है। पांच राज्यो में विधानसभा के चुनाव होने जा रहे है। पिछले पचास दिन से प्रधानमन्त्री ने काले धन के खिलाफ एक जंग छेड़ रखी है। बिखरे विपक्ष की नज़र में देश परेशान है। केंद्र सरकार की नज़र में देश में सुधार हो रहा है। प्रधानमंत्री की योजना है , देश बदल रहा है। तमाशबीनों के लिए नोटबंदी के तमाशे में कई दृश्य रोचक दिख रहे है। जनता को एहसास है कि यह बदलाव की केवल बयार नहीं है , आंधी है। 

जयललिता परलोक जा चुकी है। ममता मोदी पर चिल्ला रही है। मायावती अपने बैंक बैलेंस पर सफाई दे रही है। मुलायम सिंह आधे इधर , आधे उधर है। राहुल गांधी भी कुछ कर रहे है , क्या कर रहे है पता नहीं। पूरे दस साल तक संसद में हमेशा मौन रहने वाले , देश की अर्थव्यवस्था की नींव की 1972 से ही मुख्य ईंट बने रहे मनमोहन सिंह भी कुछ बोलने लगे है। गज़ब का माहौल है देश में। पहली बार बैंको का भ्रष्टाचार जनता की नज़रो के सामने आ गया है। यकीन मानिये जनता सब देख भी रही है और समझ भी रही है। सच में देश बदल रहा है। 

आधी सदी पहले इस देश में एक बार ऐसा ही हुआ था। अनाज कम पड़ गया तब देश के एक ईमानदार नायक की अपील पर देश के लोगो ने एक दिन का भोजन त्याग दिया था। आज़ादी के बाद यह दूसरा मौक़ा है जब एक ईमानदार नायक पर फिर देश ने भरोसा किया है वरना नायकत्व पाने वालो ने तो देश को छलने के सिवा कुछ किया ही नहीं। देश की जनता प्रधानमंत्री की अपील पर 50 दिनों के बाद भी सहर्ष तमाम कष्ट झेलते हुए भी सरकार के साथ खड़ी दिखाई दे रही है. 

इससे पहले 1965 में देश में यही दृश्य देखने को मिला था। उस समय भारत-पाक युद्ध चल रहा था। अमेरिका ने देश को पीएल-80 के तहत गेहूं आपूर्ति बंद करने की धमकी दी थी, तो तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने देश के लोगों से एक दिन का उपवास रखने की अपील कर दी। उनकी इस अपील का अनुपालन समग्र राष्ट्र ने ऐसा किया कि उसके बाद के दिनों में देश खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर ही हो गया। लेकिन उसके बाद कभी ऐसा अवसर नहीं आया जब देश में किसी नायक से जनता का इस तरह का संवाद हुआ हो। अब यही प्रश्न उठता है कि देश के आम आदमी और नेता के बीच इन 51 सालों के दरमियान ऐसा क्या रहा कि समग्र जनता उनकी बात या अपील को पूरी तरह नहीं सुनती रही। 

वास्तव में यह बदलाव बहुत गंभीर है। इसको समझने के लिए न तो मीडिया की दृष्टि की जरूरत है और न ही भारत की प्रचलित राजनीति के सिद्धान्तो की। यह बदलाव न तो अकारण है और न ही प्रचलित सिद्धान्तो के तहत। यकीन से कह सकते है कि इस बदलाव के पीछे भारत की समग्र आध्यात्मिक संस्कृति है जिसकी ऊर्जा का संवहन देश के वर्त्तमान नायक के भीतर हो रहा है। यह किसी नरेंद्र दामोदर दास मोदी की ऊर्जा भर नहीं है बल्कि वास्तव में उस तपस्वी राष्ट्र संत राजनेता की तपश्चर्या से उपजी अलौकिक शक्ति के बल पर उठाने वाली चेतना का विस्तृत स्वरुप है जिसने भारत को आज विश्व विजय की दहलीज पर लाकर खड़ा कर दिया है। इस बदलाव में वसुधैव कुटुम्बकम है। इस बदलाव में तेन त्यक्तेन भुंजीथा है। इस बदलाव में विश्व कल्याण की ऊर्जा है। इस बदलाव में तमसो मा ज्योतिर्गमय का ज्वाजल्यमान अंश है। इस बदलाव में युवा भारत की समग्र ऊर्जा लग चुकी है। यह उस राजनीतिक आचार्यपुरुष के नेतृत्व की क्षमता का परिणाम है जिसकी ललक पाने को दुनिया बेताब है। सच में भारत बदल रहा है। 

आखिर यह बदलाव इससे पहले क्यों नहीं हुआ। क्यों किसी मीडिया मंच , अख़बार या चैनल को यह नहीं याद आ रहा है की इस देश की जनता हमेशा अपने नायको पर भरोसा तो करती रही लेकिन नरेंद्र मोदी से पहले और लालबहादुर के बाद किसी ने जनता के विश्वास को जीतने की कोशिश की ही नहीं। नोटबंदी के बाद से ही देश के मीडिया मंचो पर लंबी लंबी बहस होते देख रहा हूँ। हँसी भी आती है और सकोच भी होता है। कितने सन्दर्भ हीन युग में पहुच गया है भारत का मीडिया। चिंता होती है। इस मीडिया के भरोसे देश की असली तस्वीर कैसे दिखा सकेंगे हम। इन पचास दिनों के सैकड़ो घंटो की बहस में किसी मीडियाकर्मी या वह बैठे विद्वान , विशेषज्ञ को भारत का केवल पचास साल पुराना घटनाक्रम याद करते नहीं देखा ,या सुना। यही देश तो है जिसने जब अपने नेता पर भरोसा किया तो भोजन करना ही छोड़ दिया ?

आजादी के पूर्व से भारतीय राजनीति की नब्ज पहचानने वाले विशेषज्ञ इसे नेता और जनता के बीच संवादहीनता और एक दूसरे पर अविश्वास को बड़ा कारण मानते हैं। आम आदमी और नेता के बीच यह अविश्वास एक दिन में नहीं पैदा हुआ, इतिहास गवाह है कि स्वाधीनता संग्राम के दिनों में टर्की के सुल्तान के तख्ता पलट से भारत की आजादी का कुछ भी लेना देना नहीं था. भारतीय मुसलमान आजादी की लड़ाई में तन, मन, धन से जुटा था, फिर भी आजादी के संघर्ष में उनका सहयोग लेने के नाम पर कांग्रेस ने खिलाफत आंदोलन को समर्थन दिया। हिन्दू मुस्लिम दो राष्ट्र की अवधारणा के तहत पं. नेहरू, गांधी जी की अनिच्छा के विपरीत देश विभाजन स्वीकार किया, यह सर कटा कर सरदर्द की दवा करने जैसा काम था ! और मजा देखिये कि आजादी के बाद भी वे उसी नीति पर चलते रहे। 

इतना ही नहीं पं. नेहरु के कार्यकाल में ही तत्कालीन रेल मंत्री बाबू जगजीवन राम पर पहला रेल इंजन खरीद घेटाले का आरोप लगा था, उसके बाद से मूदडा काण्ड, धर्मतेजा काण्ड, नागरवाला काण्ड आदि घोटालों की चर्चा स्व. इंदिरागांधी के कार्यकाल में आर्थिक रही तो आपातकाल के रूप में संवैधानिक रहीं। तत्कालीन संचारमंत्री सुखराम तो अपने घर में नोटों की गड्डियों को ही गद्दे की तरह उपयोग कर सोते मिले थे। 

इससे पूर्व लगभग 18 माह का स्व. लाल बहादुर शास्त्री जी का ही कार्यकाल ऐसा रहा जिसमें देश की जनता को सही अर्थों में अपने राष्ट्रीय कर्तव्य बोध का एहसास हुआ और उन्होंने अपने राष्ट्रीय व नागरिक कर्तव्यों का सहर्ष पूरी ईमानदारी से पालन भी किया। एक समय देश के युवाहृदय सम्राट कहे जाने वाले राजीव गांधी का कार्यकाल भी विवादों और घोटालों के बीच ही बीता। उनके एक भ्रष्टाचार की पर्ची से फ़कीर बन कर देश की सत्ता पर काबिज हुए राजा मांडा , यानी विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कुर्सी के लिए जी जातिगत आरक्षण का जहरीला बीज बोया उसकी फसल तो लहलहा ही रही है जिस पर यहाँ बात करने का कोई औचित्य नहीं है। 

जहा तक मोदी से ठीक पहले विश्वप्रसिद्ध अर्थशास्त्री एवं कथित मिस्टर क्लीन डा. मनमोहन सिंह के दस वर्ष के कार्यकाल की बात है तो इस अवघि को कर्तव्यहीनता,प्रशासनिक पंगुता, शासन की इच्छा शक्तिविहीनता के अलावा घोटालों और लूट का अंतहीन काल कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगा। आज भी देश दिल्ली सरकार के ट्रक खरीद घोटाला,अगस्तावेस्ट लैंड घोटाला, टूजी घोटाला, कामनवेल्थ घोटाला, कोयला घोटाला और न जाने कितने अज्ञात घोटालों की जांच से जूझ रहा है। कहने वाले तो यहां तक कहते है अपने लगभग 150 साल के शासन काल में अंग्रेजों ने इस देश को जितना नहीं लूटा, मात्र सत्तर साल में ही कांग्रेसियों और अन्य गैर भाजपाई दलों ने उससे ज्यादा लूट लिया। लेकिन उस दिन को याद कीजिये जब नरेंद्र मोदी ने पहली बार भारत की संसद की देहरी पर कदम रखा। कैसे शीश झुका इस राजनीति के संन्यासी का , अपने राजनीति के मंदिर की देहरी पर। यह कोई नाटक नहीं था , देश के सपूत के ह्रदय की भावना थी। 

भारत के गाव की एक कहावत है- जाके पांव न फंटी बेवाई, ऊ का जाने पीर पराई। सच है कि गाँव , गरीब , किसान , बनिया , मज़दूर , कामगार आदि तबको की पीड़ा समझना बहुत आसान नहीं है। आज हँसी उन पर आती है जिन्होंने देश पर सत्तर साल शासन किया और अब किसानों के दर्द से खुद को जोड़ने की असफल नौटंकी कर के पता नहीं किससे संवाद कर रहे है। इसके विपरीत खुला खेल फरुख्खाबादी खेलने वाले नरेन्द्र दामोदर दास मोदी ने मई 2014 में शपथग्रहण के साथ ही आम आदमी से अपने को सीघे जोड़ ही नहीं लिया बल्कि मन की बात कार्यक्रम के तहत हर माह देश के लोगों से संवाद करते आ रहे हैं. अपनी हर योजना पर वह देश की जनता से राय लेते आ रहे हें, अपने हर कदम पर जनता की मोहर लगवाते आ रहे हैं. 

पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार द्वारा लम्बे समय से कालेधन की जांच के लिए एसआईटी गठित करने के सर्वोच्च न्याायालय के फैसले को दबाए रखने के विपरीत मोदी ने कैबिनेट की पहली बैठक में ही एसआईटी गठित कर दी. तब से लगातार वे विभिन्न अवसरों पर कालेधन वालों को सचेत करने के साथ सुधर जाने का अवसर भी देते रहे. बावजूद सत्तर साल में यथा राजा तथा प्रजा के अनुसार बनी यह मानसिकता कि सब चलता रहता है, आखिर मशीनरी तो पहले ही वाली ही है न, के कारण कालेधल कुबेर बेखौफ रहे, पर अब उन्हें महसूस हो रहा है कि ढ़ाई साल में ही प्रशासनिक तंत्र का एक भी कल पूर्जा बिना बदले ही मोदी ने बहुत कुछ बदल दिया. यह केवल आर्थिक सुधार का आंदोलन ही नहीं है बल्कि यह एक ऐसा सांस्कृतिक आंदोलन है जिसके गर्भ से देर से ही रही भारत में प्रखर राष्ट्र की ज्योति प्रज्ज्वलित हुए बगैर नहीं रहेगी. दिक्कत उन्हें होगी जो आज तक इस देश को अपनी मातृभूमि की बजाए होटल/धर्मशाला मानते हुए जीते आ रहे हैं। 

जिनको अभी भी मोदी की मंशा पर शक हो वे पिछले पचास दिनों के ही घटनाक्रम से बहुत कुछ सीख सकते है। नोटबंदी के बाद हो चुकी अब तक की कार्रवाइयां किन लोगो के खिलाफ हुई और किस दल के कितने लोग लपेटे में आये? मोदी ने इस कार्रवाई में कही भी किसी भाजपाई धनपशु को बचाने का प्रयास नहीं किया। सबका साथ सबका विकास का संकल्प लेकर लोकसभा पर काबिज हुए नरेन्द्रमोदी के इस अभियान की अभी तो यह शुरुआत भर है। यह बहुत बड़ी उपलब्धि है कि मोदी पर जनता को भरपूर भरोसा है और मोदी जनता के इस भरोसे को नहीं तोड़ेंगे , यह भरोसा हमें भी है।

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