नोटबंदी के 50 दिन: जड़ों से हिल गया काले धन का साम्राज्य - सुकुमार मुखोपाध्याय


मैंने बाजार में और बैंक की कतारों में खड़े लोगों से भी नोटबंदी को लेकर सवाल पूछे । उन्हें असुविधा हो रही थी, फिर भी वे इस कदम से सहमत थे, उनमें से अधिकाँश ने नोटबंदी का काफी हद तक समर्थन ही किया। इसके पीछे तर्क केवल यह था कि वे मान रहे थे कि इस आदेश से काले धन के जमाखोरों पर अंकुश लगेगा और इस पूण्य कार्य के लिए वे कष्ट सहन करने को भी तैयार थे ।
लेखकों और अर्थशास्त्रियों ने अपनी अपनी राजनैतिक प्रतिबद्धता के अनुसार प्रतिक्रिया व्यक्त की । इसका सबसे अच्छा और सबसे खराब उदाहरण है हमारे पूर्व प्रधानमंत्री और प्रख्यात अर्थशास्त्री डॉ मनमोहन सिंह की प्रतिक्रिया, जिन्होंने नोटबंदी को “योजनाबद्ध वैधानिक लूट” करार दिया ।
इस प्रकार की राय में व्यक्तिगत नापसंदगी भी एक प्रमुख कारण है । जैसे कि अमर्त्य सेन ने नोटबंदी को एक निरंकुश अधिनियम बताया। सेन ने यह भी आरोप लगाया कि यह वायदे का उल्लंघन है, लेकिन अपनी बात को स्पष्ट करने का उन्होंने खास प्रयत्न नहीं किया । इसी आधार पर पी एन भगवती ने अमर्त्य सेन के अभिमत का खंडन किया ।
तो आईये विषय की गहराई में जाकर केवल गुणदोष के आधार पर इसका विवेचन करें ।

रबी फसल संकट - कुछ अर्थशास्त्रियों ने मगरमच्छी आंसू बहाते हुए कहा कि इसने रबी की फसल को बर्बाद कर दिया है। लेकिन सचाई यह है कि रबी की फसल का सीजन वास्तव में अक्टूबर से शुरू होता और जिस समय 8 नवंबर को नोटबंदी की घोषणा हुई, फसल पहले ही तीन इंच ऊंची हो चुकी थी ।

ग्रामीण जन पर संकट - कुछ आलोचक ग्राम वासियों के लिए आँसू बहा रहे हैं, कह रहे हैं कि देश के 80% गांवों में बैंक नहीं है। संभवतः यह प्रतिशत सही है। लेकिन यह निष्कर्ष निकालना गलत है कि देश के 80% लोगों तक बैंकिंग सुविधाओं की पहुँच नहीं है । स्वयं तात्कालिक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2012 में स्वतंत्रता दिवस पर दिए अपने भाषण में कहा था कि देश के 50% परिवारों के बैंक खाते हैं।
उसके बाद तो चार साल और निकल चुके हैं, और फिर जन धन योजना के बाद तो बैंक खाता धारक परिवारों का प्रतिशत तो और अधिक ही नहीं तो काफी अधिक होने की संभावना है। यह 70% तक हो सकता है। अर्थशास्त्री मोदी का उपहास करने की कोशिश में इस तथ्य को नजर अंदाज कर रहे हैं कि छोटे शहरों के बैंक आसपास के सभी गांवों में अपनी सेवा देते हैं। ग्रामवासी क्या शहरों में केवल स्कूल, कॉलेज या हाट बाजार के लिए या फिर सिनेमा देखने ही आते हैं ? क्या वे बैंकों के लिए भी नहीं आतेजाते ?

काला धन और काली अर्थव्यवस्था - काली अर्थव्यवस्था अलग है और काला धन अलग, कालाधन तो इस बड़ी अर्थव्यवस्था का मात्र एक हिस्सा है । 500 और 1000 रुपये के नोटों का कुल मूल्य 15.5 लाख करोड़ रुपये है, जबकि काली अर्थव्यवस्था भूमि, अचल संपत्ति, आभूषण और नकदी के रूप में कुल कितनी है, इसका कोई विश्वसनीय अनुमान भी नहीं है। केवल नकद हिस्सा ही काला धन है। नोटबंदी केवल काले धन के खिलाफ है, काली अर्थव्यवस्था के खिलाफ नहीं । यदि आलोचकों का यह मानना है तो वह गलत है।
अघोषित नकद जमा – यही सबसे पेचीदा मामला है, जिसे समझना चाहिए । सरकार को उम्मीद थी कि जो नकदी संचलन में है, उसमें से 4-5 लाख करोड़ रुपये वापस नहीं आयेंगे । लेकिन अब माना जा रहा है कि यह राशि अनुमान के विपरीत एक लाख करोड़ से ज्यादा नहीं हो सकती । हो सकता है कि इसमें से अधिकाँश ही वापस आ जाए । लेकिन क्या बैंक में जमा हो जाने भर से वह सब सफेद हो जायेगी । आयकर विभाग द्वारा उसकी जांच की जायेगी और यदि जमाकर्ता अपनी जमा राशि की समुचित व्याख्या करने में सक्षम नहीं हुए, तो उन्हें भारी भरकम टैक्स और जुर्माना चुकाना होगा, इससे निश्चय ही राजस्व में भारी वृद्धि होगी । इसके अतिरिक्त आयकर विभाग को ऊंची व्याज दर पर आयकर की प्राप्ति होगी, आयकरदाताओं की संख्या बढ़ेगी वह अलग । निश्चित रूप से इसका लाभ आने वाले वर्षों में देखने को मिलेगा । अर्थव्यवस्था में भी सफेद पैसा, काले धन से अधिक होगा। यही मौलिक परिवर्तन है।
जाली करेंसी इस एक कदम से ही 400 करोड़ रुपये की अनुमानित जाली करेंसी का सफाया हो गया ।
संपत्ति की कीमतें - रियल एस्टेट की कीमतें गिरने से मध्यम वर्ग को लाभ हुआ है। अचल संपत्ति की बेहिसाब कीमतें अभी तक उद्यमशीलता, वैश्विक प्रतिस्पर्धा और रोजगार सृजन के मार्ग में अवरोध के रूप में खडी थी ।
मंदी - काले धन से भुगतान पर निर्भर कुछ आर्थिक गतिविधियां धीमी हो सकती हैं, किन्तु वे जल्द ही सफेद पैसे के साथ फिर गति पकड़ेंगी ।
GST- कौशिक बसु का यह बयान कि जीएसटी, नोटबंदी की तुलना में एक बेहतर विकल्प था, यह पूर्णतः भ्रामक है ! वस्तुतः जीएसटी (वस्तु एवं सेवा कर) अप्रत्यक्ष कर से संबंधित है, जबकि अधिकाँश काला धन प्रत्यक्ष कर में से उत्पन्न होता है। और यहां तक ​​कि ब्रिटेन, जर्मनी या कनाडा जैसे विकसित देशों में भी, जहां जीएसटी पूर्व से मौजूद है, पर्याप्त चोरी होती है।

डिजिटलीकरण नोटबंदी के चलते डिजिटलीकरण की प्रक्रिया में तेजी आई है, जिससे व्यापार आसान होगा ।

इसलिए, नोटबंदी के प्रभाव का आंकलन केवल इस आधार पर किया जाना कि कितना काला धन बेकार हुआ, न्याय संगत नहीं है । इसे भी ध्यान में रखना होगा कि इसके बाद आयकर विभाग के छापों में कितना अघोषित धन जब्त किया, टैक्स में कितनी वृद्धि हुई, जुर्माने के रूप में उसे कितनी उपलब्धि हुई और सबसे ख़ास बात कि तंत्र में कितना स्थाई सुधार हुआ ।

इस सबको छोडिये, मान लीजिये कि सारा काला धन ही सफ़ेद हो गया, तो भी काली अर्थ व्यवस्था का सफ़ेद में रूपांतर भी क्या कम महत्वपूर्ण है ? बैसे खातिर जमा रखिये कि अब कर अपवंचन करने वाले, काले धन के बिस्तर पर सोने वाले लोगों की रीढ़ की हड्डी में कंपकंपाहट आयेगी । भ्रष्टाचार के खिलाफ अब पांचजन्य संघोष हो चुका है !

एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें