नेताजी का दुखांत - डॉ नीलम महेंद्र


देश के सबसे बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश के सबसे शक्तिशाली राजनैतिक परिवार में कुछ समय से चल रहा राजनैतिक ड्रामा लगभग अपने क्लाइमैक्स पर पहुंच ही गया ( कुछ कुछ फेरबदल के साथ )।
दरअसल यू पी के होने वाले चुनावों और मुलायम सिंह की छवि को देखते हुए केवल उनके राजनैतिक विरोधी ही नहीं बल्कि लगभग हर किसी को उनकी यह पारिवारिक उथल पुथल महज एक ड्रामा ही दिखाई दे रहा था , वो क्या कहते हैं न महज एक पोलीटिकल स्टंट !
आखिर वो पटकथा ही क्या जिसके केंद्र में कोई रोमांच न हो !
सबकुछ ठीक ही चल रहा था। एक पात्र था अखिलेश , तो दूसरा शिवपाल और जिस को वो दोनों ही पाना चाहते थे , वह थी सत्ता की शक्ति।
पटकथा भी बेहद सधी हुई , एक को नायक बनाने के लिए घटनाक्रम लिखे गए तो दूसरा खुदबखुद ही दर्शकों की नजरों में खलनायक बनता गया ।
1992 में समाजवादी पार्टी के गठन से लेकर आज तक पार्टी पर नेताजी का पूरा कंट्रोल था ।भले ही अपने भाईयों के साथ उन्होंने इसे सींचा था लेकिन 'नेताजी ' तो एक ही थे जिनके बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता था।
यह उन्हीं की पटकथा का कमाल था कि आज अखिलेश को पार्टी से निकाले जाने के बाद पार्टी के 200 से भी अधिक लगभग 90% विधायक मुलायम शिवपाल नहीं अखिलेश के साथ हैं !
2012 के चुनावी दंगल में उन्होंने अखिलेश को पहली बार जनता के सामने रखा ।
मुलायम की कूटनीति और अखिलेश की मेहनत से समाजवादी पार्टी की साइकिल ने वो स्पीड पकड़ी कि सबको पछाड़ती हुई आगे निकल गई ।
शिवपाल की महत्वाकांक्षाओं और अपेक्षाओं के विपरीत अखिलेश को न सिर्फ सी एम की कुर्सी मिली बल्कि जनता को उनका युवराज मिल गया ।
उनके पूरे कार्यकाल में जनता को यही संदेश गया कि वे एक ऐसे नई पीढ़ी के युवा नेता हैं जो एक नई सोच और जोश के रथ पर यूपी को विकास की राह पर आगे ले जाने के लिए प्रयासरत हैं ।
वे ईमानदारी और मेहनत से प्रदेश के बुनियादी ढांचे में सुधार से लाकर आम आदमी के जीवन स्तर को सुधारने के लिए प्रतिबद्ध हैं और अपनी इस छवि निर्माण में वे काफी हद तक सफल भी हुए हैं ।
जिस रिकॉर्ड समय में आगरा लखनऊ एकस्प्रेस हाईवे बनकर तैयार हुआ है वह यूपी की नौकरशाही के इतिहास को देखते हुए अपने आप में एक बहुत बड़ी उपलब्धि है ।
आज लखनऊ मेट्रो केवल अखिलेश का ड्रीम प्रोजेक्ट नहीं रह गया है बल्कि उसने यूपी के हर आमोखास की आँखों में भविष्य के सपने और दिल को उम्मीदों की रोशनी से भर दिया है ।
अखिलेश के सम्पूर्ण कार्यकाल में मुलायम सिंह की सबसे बड़ी उपलब्धि अखिलेश की यही छवि निर्माण रही ।
किसी भी नेता को जनता का इससे अधिक प्यार क्या मिलेगा कि विकास का जो भी काम हो रहा है उसका क्रेडिट लेने वाला वह अकेला हो लेकिन जो असफलताएं एवं अनुपलब्धियाँ हों वह किसी और के कारण हों । मसलन प्रदेश में गुंडा राज हो या भू माफिया हो अथवा कानून व्यवस्था पर कमजोर पकड़ हो सब अपने चाचा और अपने पिता के आगे एक आज्ञाकारी पुत्र के कुछ बोल न पाने के कारण हो ।
सार्वजनिक मंचों पर पिता द्वारा अपमानित होकर भी हंसते रहना और कहना कि वो कौन सा बेटा है जो पिता की डाँट खाए बगैर बड़ा हुआ है या फिर चाचा के सामने बेबस हो जाना। यह सभी उस पटकथा का हिस्सा था जिसके पात्रों को यह सब जी रहे थे ।
असली कहानी तब शुरू होती है जब शिवपाल के कहने पर मुलायम ,आजम खान और अमर सिंह से हाथ मिलाते हैं तो अखिलेश विद्रोह करते हैं । जनता के दिल में अखिलेश के लिए सहानुभूति की लहर दौड़ जाती है और उनकी साफ सुथरी छवि पर जनता की मुहर लग जाती है।
फिर एक दिन मुलायम सपा के उम्मीदवारों की लिस्ट शिवपाल के 'दबाव ' में घोषित करते हैं जिनमें अखिलेश समर्थकों की कोई जगह नहीं है तो दूसरे ही दिन अखिलेश अपनी लिस्ट घोषित करते हैं । लोगों तक स्पष्ट संदेश जाता है कि मुलायम शिवपाल के 'दबाव ' में हैं न भाई को छोड़ पा रहे हैं न बेटे को । और चूँकि वह लिस्ट अपराधिक तत्वों तथा बाहुबलियों से भरी थी , अखिलेश को मंजूर नहीं थी और 'साफ सुथरी राजनीति ' के लिए वे 'परिवार ' से ऊपर 'पार्टी ' को रखते हैं । यह अलग बात है कि जो लिस्ट अखिलेश ने जारी की बाहुबली उसमें भी कम नहीं थे ।
शिवपाल भले ही न जानते हों कि वे क्या कर रहे हैं ( अखिलेश की छवि निर्माण में उनकी बलि ली जा रही है ) लेकिन मुलायम भली भाँति जानते थे वे क्या कर रहे हैं । 2014 में उन्होंने जब अखिलेश को सी एम की कुर्सी दी थी तो कहा था कि प्रदेश बेटे के हाथों सौंप कर अब वह केंद्र में अपना ध्यान और शक्ति दोनों लगाएंगे। इस दिशा में उन्होंने प्रयास भी किए , लालू के साथ मिलकर महागठबन्धन भी बनाया जो कालांतर में महाठगबन्धन ही साबित हुआ।
2014 के चुनावों में जनता ने जब सब कुछ कीचड़ कर दिया और पूरे देश में कमल खिला दिया तो वे समझ गए कि केंद्र में उनके पास तो क्या पूरे विपक्ष के पास आज करने के लिए कुछ ख़ास नहीं है तो वापस प्रदेश में ध्यान लगाया लेकिन अब तक लगभग दो साल बीत चुके थे और समय के साथ उन्हीं की दी साइकिल पर बैठ कर बेटा काफी आगे निकल चुका था। जबकि वो प्रदेश से निकल कर केंद्र में जाने की चाह में बहुत पीछे जा चुके थे , हवा के बहाव में वे वहाँ भी खड़े नहीं रह पाए जहाँ पर वह थे ।
दिल्ली तो शुरू से ही दूर थी लेकिन सैफई भी छूट जाएगी इसे जब तक मुलायम समझ पाते तब तक काफी देर हो चुकी थी ।
मुलायम सोचते थे कि आखिर तक कहानी में पटकथा वो ही चलती है जो लेखक लिखता है लेकिन शायद यह भूल गए कि फिल्म हो या कहानी उसकी पटकथा बेशक लेखक लिखता है लेकिन जिंदगी की पटकथा लिखने वाला तो एक ही है वो परमपिता परमेश्वर और उसके आगे अच्छे अच्छों की पटकथा फेल हो जाती है ।
जिन पात्रों और जिस पटकथा को ये सभी जी रहे थे उसके कैरेक्टर में सभी इतने इन्वोल्व हो गए कि कलाइमैक्स आते आते वे सभी अपने मूल व्यक्तित्व को भूल कर कैरेक्टर के रंग में रंग चुके थे ।
शिवपाल अब तक समझ चुके थे कि कुर्सी की डोर उनके हाथों से छूट चुकी है किन्तु हार नहीं मान रहे थे , अपने वफादारों को टिकट दिलवा कर हारी हुई लड़ाई जीतने की कोशिश रहे थे।
अखिलेश को अब सत्ता पर किसी और का नियंत्रण स्वीकार कतई नहीं था और टिकट देने में स्वतंत्र हाथ चाहते थे ।
मुलायम जिन्होंने पटकथा लिखी थी और कहानी की शुरुआत में जो पात्र उनके हाथों की कथपुतली थे आज अपनी अपनी डोर से मुक्त हो चुके थे ।
परदे के पीछे अखिलेश और शिवपाल को यह याद दिलाने की उनकी हर कोशिश नाकाम होती गई कि वे सिर्फ कहानी के पात्र हैं डायरेक्टर तो स्वयं मुलायम हैं। लेकिन न तो शिवपाल सुनने को तैयार थे और न ही अखिलेश।
पार्टी परिवार और कहानी तीनों ही उनके हाथ से फिसल चुके थे । जिस पटकथा के अन्त में अखिलेश शिवपाल को चारों खाने चित्त करके विजेता बनकर और मुलायम एक बेबस भाई और पिता के बीच फंसे ' नेताजी 'बन कर उभरते जिन्हें जनता की सहानुभूति प्राप्त होती उसका अन्त अब बदल चुका था ।
बात चुनाव आयोग तक पहुँच गई । जिस अखिलेश ने यू पी के लोगों के दिलों के सहारे सत्ता तक की अपनी राह लगभग पक्की कर ली थी , आज उनका मुकाबला न सिर्फ सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबंदी के बाद बदले हुए परिदृश्य से है बल्कि चुनाव आयोग तक पहुँच चुकी सपा की ही अन्दरूनी फूट से भी है । वो चिंगारी कब खेलते खेलते लौ बन गई खुद मुलायम भी नहीं समझपाए । जो समाजवादी पार्टी अपने दम पर सरकार बनाने का माद्दा रखती थी आज कांग्रेस के साथ गठबंधन की ओर अग्रसर है ।
जिस राजनीति को मुलायम शतरंज कि बिसात समझ कर खेल रहे थे वे स्वयं उसका मोहरा बन जायेंगे यह तो शायद उन्होंने भी नहीं सोचा होगा ।


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