गौरक्षा हेतु चाहिए पं. मदनमोहन मालवीय जैसे योजनाकार - सत्या सिंह राठौर



हिन्दू मुसलमानों में विभेद का सबसे बड़ा कारण है – गौहत्या ! अपने समय के युगपुरूष भारत रत्न पं. मदनमोहन मालवीय साहित्य सेवी, कुशल लेखक, संपादक, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और सच्चे समाजसेवी होने के साथ उनका सनातन धर्म की नव व्याख्या और गौरक्षा में भी बड़ा योगदान था। मालवीयजी ने गौ सेवा के लिए जो किया उसकी दूसरी मिसाल नहीं मिलती। गो सेवा, गो रक्षा के नाम पर झूठे आंसू बहाने वाले सत्ताधारी और आडम्बरी लोगों को उनसे सबक लेना चाहिए ! आज जिस प्रकार गौ वंश की तस्करी और गौ मांस का निर्यात हो रहा है वह किसी से छुपा नहीं है, लेकिन एक दुखदाई चुप्पी सबने साध रखी है।

जहाँ तक मालवीय जी का प्रश्न है, वे गौ वंश की दीन दषा को लेकर अत्यंत संवेदनशील और भावुक थे। पहली बार गोरक्षा के लिए कलकत्ता (कोलकाता) में सन 1928 में ‘काउ- प्रिज़र्वेशन लीग’ (गोरक्षा-संघ) स्थापित हुआ और इसके पहले अध्यक्ष बने सर आशुतोष मुखर्जी। इसके बाद गोरक्षक मण्डलियां बनीं। गो रक्षा के लिए लोग एकत्र और एक मत होने लगे। आज जानकर हैरत होती है कि राष्ट्रीय महासभा (कांग्रेस) के जन्म के साथ ही उसके बैनर तले प्रतिवर्ष गोरक्षा-सममेलन भी होने लगे और मालवीयजी उसमें बढ़-चढ़ कर भाग लेने लगे। मालवीयजी को गो रक्षा आन्दोलनों का संस्थापक कहें तो गलत न होगा। मालवीय जी का गोरक्षा का ढंग निराला था। गो की सेवा और रक्षा के लिए वे लोगों को प्रेरित तो किया ही करते थे, गौशालाओं के लिए झोली फैलाकर धन भी इकट्ठा किया करते थे। मालवीयजी गौ संवंर्धन के लिए पत्र, पत्रिकाओं में आलेख लिखते जो इतने भावुक और प्रेरणाप्रद होते थे कि सीधे जनता के हृदय तक पहुंच जाते थे । 

मालवीयजी जब उद्बोधन देते तो श्रोताओं की आंखें नम हो जातीं। वे गाय के केवल धार्मिक महत्व को नहीं बल्कि उसके आर्थिक पहलू पर ज्यादा जोर देते थे ! उनके व्याख्यान का एक अंश देखिये –

‘‘...श्रीकृष्ण स्वयं गाय चराने जाते थे, आज हमने इसे छोड दिया। हम इसे पहले अपनी जीविका, धन, बढाने के कार्य के रूप में करते थे, आज धर्मांदा समझकर करते हैं। गोधन के व्यापार का महत्व हमने भुला दिया है। हम नयी नयी मिलें खोलते हैं, परन्तु गायों का व्यापार नहीं करते, जिसे ईश्वर ने स्वयं हमारे लिये किया था। आप इस व्यापार को कीजिये, नही तो यह भी दूसरों के हाथ में निकल जायगा। बेकारी को दूर करने के लिये यह काम बहुत अच्छा है।’’...
कैसे खेद की बात है कि माता के स्तन का दूध छोडने के बाद हम जिसका दूध जिन्दगी भर पीते हों, उसकी दुर्दषा देखकर भी हमारा दिल नहीं पसीजता ! दूध न मिलने से देश में बाल मृत्यु दर विश्व के अनेक देशों से अधिक है, प्रसव के पहिले और बाद में माताओं को दूध न मिलने से कितनी जल्दी उन पर बुढापा आ जाता है, और बच्चे कितने कमजोर होते हैं।’’ 

इस प्रकार हम देखते हैं कि मालवीय जी के व्याख्यान कोरे धार्मिक बागाडम्बर नहीं थे, उनमें समाज का आर्थिक ढांचा और वैज्ञानिकता रहती थी। प. मदनमोहन मालवीय, भारतीय गोरक्षा प्रचारक मंडल, काशी के सभापति थे तब उन्होंने लिखा- 

‘‘...गौ के बराबर मनुष्य का उपकार करने वाला कोई दूसरा जीव नहीं है। गौ घांस खाकर और जल पीकर मनुष्य को दूध और घृत से तृप्त करती है । उसके बछडों के द्वारा हमारी खेती होती है। वह कपास उपजाकर हमारे पहनने के लिए वस्त्र देती है और मरने के बाद भी अपनी हड्डी और चाम से मनुष्य की सेवा करती है। इसीलिये ऋषि लोग सृष्टि के आरम्भ से गौ की देवता के समान पूजा और सत्कार करते आये हैं । हिन्दुस्थान के करोडो मनुष्य गौ को पूजते हैं और गोमाता कहते हैं।’’

वर्तमान में हम गो मूत्र, गोबर से उपचार करने की बात कर रहे हैं जबकि यह तो भारत की सदियों पुरानी चिकित्सा पद्धति रही है। वह दिन न देखना पड़े कि इसका पेटेंट कोई और देश अपनी दुकान चलाने को करवा ले। इस आलेख का उद्देश्य पंच गव्य की खूबियां बताना नहीं हैं, उसकी प्रामाणिकता तो अनेक वैज्ञानिकों ने किया है, मूल बात है गौ संरक्षण और संवर्धन की ! 

बात उन दिनों की है जब खिलाफत और पंजाब का जलियांवाला कांड का मुद्दा बडे़ जोरों पर था और मुसलमान टर्की के खलीफा के लिए लामबंध थे। कांग्रेस के नेतृत्व में हिन्दू भी उनको समर्थन दे रहे थे, किन्तु वे ‘गौ वध’ के सख्त विरोधी थे। मध्यप्रदेश में पं. माखनलाल चतुर्वेदी ने ‘गौ वध’ रोकने के लिए आंदोलन छेड़ रखा था। उस दौरान मध्यप्रांत की लीग ने गौ वध रोकने प्रस्ताव पारित किया था। लेकिन उक्त प्रस्ताव के पीछे की तथाकथा बड़ी विलक्षण है ! 

हुआ कुछ यूं कि पं. माखनलाल चतुर्वेदी के गौ रक्षा आंदोलन को बल देने के लिए मालवीयजी जबलपुर पधारे । किन्तु उन्होंने गौरक्षा पर बात करने के स्थान पर आजादी के संघर्ष में हिंदु-मुसलमानों की एकता पर जोर दिया ! एक संयुक्त सभा में मालवीय जी ने कहा कि हिन्दू-मुसलमान को मिलकर काम करना चाहिए ! यदि मेरे मुसलमान भाई बिना गौ वध किये रह ही नहीं सकते, तो मैं ब्राह्मण हूं और सन्मुख खड़ा हूं, गौ वध कीजिये किन्तु मिल जरूर जाइये।’’ 

उनकी इस भावुक अपील का अद्भुत प्रभाव हुआ ! एक मुस्लिम पंचायत हुई और उसमें एक ऐतिहासिक निर्णय लिया गया कि कोई भी मुस्लिम भाई ईद के अवसर पर भी गौ वध नहीं करेगा, यदि कोई मुस्लिम किसी भी कारण से गौवध करता है तो अर्थ दण्ड के साथ उसे समाज से बहिष्कृत कर दिया जाएगा। 

इस निर्णय के समय भोपाल के पत्रकार अब्दुल गनी भी सम्मिलित थे और उन्होंने भी इस आंदोलन को धार दी । उन्होंने हिंदुओं के साथ मिलकर सागर के रतौना कसाईखाना खुलने का भी डट कर विरोध किया और आखिरकार ब्रिटिश हुकूमत को कसाईखाना खोलने की योजना वापस लेनी पड़ी। 

आज धर्म-मजहब के नाम पर जिस तरह का विवाद और वैमनस्यता है, उससे तो लगता है कि न तो कभी राम मंदिर बन पाएगा और न ही गो हत्याएं रोकी जा सकेंगी। दुर्भाग्य यह है कि आज की राजनीति समन्वय में नहीं बल्कि फुट डालने में विश्वास रखती है ! जबकि समय की मांग है कि पं. मदनमोहन मालवीय की नीति पर चलते हुए हिंदु- मुसलमानों को एकजुट किया जाए । एक ऐसा नेतृत्व चाहिए जो हिन्दुओं को यह समझा सके कि देश के 12 प्रतिशत मुसलमानों को पाकिस्तान नहीं भेजा जा सकता ! इसी प्रकार मुसलमानों को भी बहुसंख्यक आबादी की भावनाओं का आदर करते हुए भारत को दारुल इस्लाम बनाने का सपना छोड़ सबके साथ समरस होना होगा !

लेकिन यक्ष प्रश्न यह कि यह होगा कैसे और करेगा कौन ?

राजनीति से तो यह हो नहीं सकता, तो क्यों न देश के बुद्धिजीवी इस जिम्मेदारी को अपने कन्धों पर लें ? इसी बिंदु को अपने आलेखों का विषय बनाएं, इसे केंद्र में रखकर बहस हों, चर्चा परिचर्चा हों ! शायद देश की भावी पीढी का भविष्य निष्कंटक हो सके !

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