खत्म हो चुका मायावतीजी का भविष्य अखिलेश दूसरे नम्बर के नेता बनें - डा.राधेश्याम द्विवेदी

दलित वोट बैंक में सेंधमारीः- वर्ष 2002 2007 के विधान सभा के चुनाव में बसपा सुप्रीमों मायावतीजी ने अपनी दो बार ताजपोशी कराकर बाजी मार ले गयी थी.दलितों को बेवकूफ बनाकर उनके वोट बैंक को धनवाले प्रत्याशियों को बेंचकर उन्होंने अपनी आर्थिक स्थिति निरन्तर मजबूत करती रहीं. उन्होंने मुसलमानों और दलितों के कुछ गिने चुने दिग्गजों से भारी कीमत लेकर उनको सुनहरे भविष्य का प्रलोभन दिया. उन दिग्गजों के प्रभाव का उपयोग अपने पक्ष में कर एक अजेय गठजोड़ रचकर चुनाव की बैतरणी भी पार किया है. इन तथाकथित राजनेताओं में से कुछ को ललीपाप देकर अपने दलित एजेन्डे को पूरा भी किया और अपनी आर्थिक स्थिति के साथ राजनीतिक स्थिति भी मजबूत कर ली. मायवतीजी ने 2007 में उत्तर प्रदेश में 14 सालों से चले रही गठबंधन सरकारों के दौर को खत्म किया था. कांशीराम की विरासत को अपने हाथें में लेकर वह देश के सबसे बड़े दलित नेता स्व. जगजीवन राम की खाली जगह को मायावतीजी भरने की कोशिस भी की हैं.उन्होने पूर्व लोकसभा अध्यक्ष श्रीमती मीरा कुमार को काफी पीछे छोड़ दिया है . उनका बुनियादी जनाधार जाटवों में है. गैर जाटव वोटों को 2014 में हथियाकर बीजेपी ने बसपा के दलित जनाधार में तकरीबन सेंध लगा ही दी है. अनेक दलित नेता रोज के रोज बसपा से कटते गये. वे भाजपा में अच्छे स्थान बना लिये. आज बसपा में दलित नेता समाप्त होते जा रहे हैं. दलित नेता उदय राज आज भाजपा में अपना सम्मानित स्थान बना लिये हैं. राम विलास पासवान भी भाजपा के सहयोगी बन गये हैं. अब दलित वोट बैंक का तिलस्म टूट सा गया है.

बसपा ह्रास की ओरः- देश भर में कई जगहों पर चुनाव लड़ने के बाद मायावतीजी धीरे-धीरे अपना अखिल भारतीय छवि खोने लगीं हैं. मायावतीजी के उभार ने दलितों को आवाज दी और उन्हें ऐसा लगने लगा कि यह वोट बैंक उनकी जागीर है. दलित चट्टान की तरह मायावतीजी के पीछे खड़े रहे. उन्हें पहली बार ऐसा लगा कि उनकी अपनी बिरादरी का कोई सरकार चला रहा है. 1984 में बसपा के गठन के बाद से ही दलित ये सपना देखते आए थे कि किसी दलित को प्रधानमंत्री पद पर देखकर ही उनका मिशन खत्म होगा. मायावतीजी की सत्ता में वापसी को लेकर उनके समर्थकों में उम्मीदें बंधी थी. उनके कुछ समर्थक लोग तो यहां तक मानते हैं कि केवल वही मजबूत विकल्प हैं. पर यह मायावती का भ्रम धीरे धीरे खत्म होता गया . 2017 के चुनाव में उन्हें प्रदेश में तीसरे स्थान पर आकर उनको अपनी औकात का आभास हो गया है.

कांग्रेस का अप्रासंगिक होनाः-इससे पहले इसी समीकरण के बलबूते कांग्रेस आजादी के बाद चार दशकों तक उत्तर प्रदेश में शासन करती आई थी. 1992 में बाबरी मस्जिद के विवादित ढांचे के विध्वंस के बाद कांग्रेस ने अपना जनाधार गंवा दिया और सत्ता से बाहर हो गई.तब से 27 वर्षो तक वह उत्तर प्रदेश में टिकने की कोशिस तो कर रही है परन्तु उसके पांव टिक नहीं पा रहे है. वह पूरी तरह से अपना जनाधार खोती गयी.जहां केन्द्र में उसका मुख्य प्रतिद्वन्दी भाजपा रही है, वहीं राज्यों में उसे मजबूरन क्षेत्रीय दलों से समर्थन देना और लेना पड़ा है. यह पार्टी भी परिवारवाद के प्रभाव से मुक्त नहीं हो सकी है. नेहरु इन्दिराजी के कृत्यों को अब तक भुनाती रही है. वर्तमान समय में यह पूर्णतः अप्रसांगिक होती जा रही है. योग्य लोगों के होने के बावजूद नेहरु गांधी के व्यामोह यह पार्टी पूर्ण खत्म होने की तरफ बढ़ती जा रही है.कांग्रेस अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी जी की अस्वस्थता, पूरे देश में सहयोगियों के पुराने भ्रष्टाचार तथा पार्टी उपाध्यक्ष श्री राहुल गांधी की अक्षमता कांग्रेस के भविष्य के लिए प्रश्न चिन्ह उपस्थित कर रहे हैं।

क्षेत्रीय पार्टियों का वर्चस्व कम होनाः- उत्तर प्रदेश राज्य के वोटर शासन करने के लिए समाजवादी पार्टी या बसपा जैसी क्षेत्रीय पार्टी को तरजीह शायद ही दे. केंद्र में बीजेपी सरकार की स्थिति एक मजबूत विकल्प आशान्वित भविष्य की ओर इशारा करती हैं. सरकार के गठन में राष्ट्रीय पार्टी का अपना अलग ही दृष्टिकोण जनाधार होता है. यदि साल 2014 के चुनाव में माननीय श्री नरेंद्रभाई मोदी की बीजेपी ने सियासी फलक पर इतना बड़ा धमाका नहीं किया होता तो मायावतीजी का रास्ता कुछ आसान हो सकता था. ‘सबका साथ सबका विकासके मोदीजी के नारे और बीजेपी के अध्यक्ष श्री अमित शाह के अखिल भारतीय अभियान ने मायावतीजी और श्री मुलायम सिंहजी यादव के जनाधार को बीजेपी की तरफ खिसका दिया है . श्री शिवपाल जी तथा श्री आजमखां के बेतरतीब बयान से भी सपा के भविष्य पर प्रभाव पड़ना लाजिमी है.समाजवादी पार्टी के पारिवारिक कलह ने इस प्रभाव को और भी कम कर दिया। उनका वोट बैंक निरन्तर खिसकता रहा. कार्यकाल खत्म होने के करीब पहुंचते अखिलेश की लोकप्रियता लगातार घटती गयी. उनके आधे अधूरे काम बोलने लगे जनता का उन पर विश्वास उठता गया

प्रधानमंत्री का नोटबंदी का प्रयोगः- प्रधानमंत्रीजी के नोटबंदी वाले प्रयोग ने सभी पार्टियों को बड़ा झटका दिया है जिसमें बसपा भी एक है.नकदी का संकट बड़ा सवाल नहीं है, जातियों का बर्ताव उन्हें फिक्र में डाले हुए है. मतदाता खामोश हैं और अधीर भी, लेकिन इसके बावजूद लोग एक सुर में मोदी की आलोचना नहीं कर रहे हैं. अपनी परेशानियों को झेलते हुए गरीब यह सोचकर खुश हैं कि अमीर अपनी दौलत गंवा रहे हैं. इनमें अधिकांशतः मायावती के समर्थक भी हैं. इसलिए तीन लोकप्रिय नेताओं- मोदी, मायावती और अखिलेश के त्रिकोणीय मुकाबले में कोई भी विजेता बन सकता है.

सर्जिकल स्ट्राइक का प्रयोगः- प्रधान मंत्री का सर्जिकल स्ट्राइक का प्रयोग भी सभी विपक्षियों के लिए एक मुद्दा मिल गया था. सभी ने निरन्तर जनता को भड़काने का प्रयास किया परन्तु जनता इन विपक्षियों के बहकावे को समझ चुकी थी. वह परेशानी झेलते हुए इस निर्णय को देश के लिए जरुरी समझा और सरकार का ही साथ दिया.

मुसलमानों की पसंद अहम हो सकता हैः-इन परिस्थितियों को देखते हुए मायावतीजी केवल मुसलमानों पर भरोसा कर सकती हैं लेकिन मुसलमानों को यह भी डर हो सकता है कि चुनावों के बाद मायावती कहीं भाजपा से फिर हाथ मिला लें.यद्यपि उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की पहली पसंद समाजवादी पार्टी रही है. परिवार के झगड़े से बात बिगडी़ भी है. मुसलमान वोटर अपने दूसरे विकल्प के तौर पर बसपा को पूरी तरह नहीं अपना सके हैं.उनके कुछ साथी टिकट बेंचने के नाम पर पार्टी छोड़कर चले भी गये. किसी का पार्टी छोड़कर चला जाना मायावती के लिए नई बात नहीं है लेकिन यह क्रम लगातार जारी रहने पर पार्टी के विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह जरुर प्रस्तुत करेगा.

अस्तित्व की लड़ाई में समाप्तप्राय:-पूरा देश प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके अगले कदम का इंतजार कर रहा है. मायावतीजी भी उनमें से एक हैं. एक तरफ उनके लिए 2017 के विधानसभा चुनाव राज्य की राजनीति में अस्तित्व की लड़ाई हार गयी है. दूसरी तरफ भाजपा 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले उत्तर प्रदेश में अपना झंडा बुलंद करना चाहेगी. बाकी पार्टियां तो खाना पूरा करती हुई देखी जा सकती हैं. जहां भाजपा अब कुछ भी कठोर निर्णय लेती हुई देखी जा सकती है. राज्य सभा में अपनी संख्या बढ़ाना, राष्ट्रपति उपराष्ट्रपति का चुनाव , धारा 370 पर निर्णय, राम मन्दिर पर काननू बनाने आदि में उसे अब आसानी हो जाएगी.

चुनाव आयोग पर निराधार आरोप लगानाः- मायावती यह जानते हुए कि उनका अस्तित्व खत्म होता जा रहा है. उनका वोट प्रतिशत निरन्तर कम होता जा रहा है. उनके वोटर उनसे स्थाई रुप से ना खिसकें इसलिए ईवीएम मशीन की गड़बड़ी दिखाकर अपने वोटरों को भ्रमित कर रही हैं. एसे ही रहा तो भारत में यह जातिवाद तुष्टिकरण की नीति समाप्त हो जायेगी और हर जरुरत मन्द को उनकी जरुरत के अनुसार सरकार मदद भी करेगी. इसमे पारिदर्शिता होगी तथा कोई भेदभाव नहीं होगा.

डा.राधेश्याम द्विवेदी
लेखक परिचय - डा.राधेश्याम द्विवेदी ने अवध विश्वविद्यालय फैजाबाद से बी.. और बी.एड. की डिग्री,गोरखपुर विश्वविद्यालय से एम.. (हिन्दी),एल.एल.बी., सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी का शास्त्री, साहित्याचार्य तथा ग्रंथालय विज्ञान की डिग्री तथा विद्यावारिधि की (पी.एच.डी) की डिग्री उपार्जित किया। आगरा विश्वविद्यालय से प्राचीन इतिहास से एम..डिग्री तथा’’बस्ती का पुरातत्व’’ विषय पर दूसरी पी.एच.डी.उपार्जित किया। बस्तीजयमानवसाप्ताहिक का संवाददाता, ’ग्रामदूतदैनिक साप्ताहिक में नियमित लेखन, राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित, बस्ती से प्रकाशित होने वाले  ‘अगौना संदेशके तथानवसृजनत्रयमासिक का प्रकाशन संपादन भी किया। सम्प्रति 2014 से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण आगरा मण्डल आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद पर कार्यरत हैं। प्रकाशित कृतिःइन्डेक्स टू एनुवल रिपोर्ट टू डायरेक्टर जनरल आफ आकाॅलाजिकल सर्वे आफ इण्डिया” 1930-36 (1997) पब्लिस्ड बाई डायरेक्टर जनरल, आकालाजिकल सर्वे आफ इण्डिया, न्यू डेलही। अनेक राष्ट्रीय पोर्टलों में नियमित रिर्पोटिंग कर रहे हैं।
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