हमारे ऋषि मुनियों की अनुपम देन – अग्निहोत्र वैदिक कृषि

पर्यावरण शुद्धि व जलवायु नियंत्रण के सिद्धांतों पर आधारित वैदिक कृषि पद्धति हमारी देव संस्कृति के क्रांतिदर्शी ऋषियों के ऐसे उत्कृष्ट चिंतन का परिणाम है जिसका आज भी कोई सानी नहीं है। खेती की वैदिक पद्धति भारत की ऋषि संस्कृति का मानव समुदाय को दिया गया ऐसा अनूठा उपहार है जिसकी उपयोगिता उस युग की तुलना में आज कई गुना अधिक है। प्रयोगों व प्रमाणों की कसौटी पर कस कर इस विधा को आधुनिक कृषि विज्ञानी भी स्वीकार कर चुके हैं। वैदिकयुगीन यज्ञ पद्धति पर आधारित अग्निहोत्र कृषि का पूर्ण प्रकट विज्ञान आज हमारे सामने उपलब्ध है।

वैदिक कृषि को दीर्घकालिक जैविक कृषि के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो स्वस्थ भोजन और जीवन के लिये पोषणकारी प्रभाव उत्पन्न करती है। वैदिक जैविक कृषि प्राकृतिक विधान के सामन्जस्य युक्त कृषि है । यह कृषि की वह प्रणाली है जो किसान, उसकी फसल एवं पर्यावरण का बड़े स्तर पर पोषण व समर्थन करती है । कृषि में पूर्णता की अभिव्यक्ति लाने के लिए हम इसे वैदिक जैविक कृषि कहते हैं।

इस समय रासायनिक उर्वरकों के दुष्प्रभावों को देखते हुए देश के प्रगतिशील कृषकों का रुझान पुन: तेजी से कृषि की इस पद्धति की ओर बढ़ रहा है। इसका कारण है कि इस पद्धति से उत्पादित फसल गुणवत्ता की दृष्टि से तो बेहतर होती ही है, भूमि की उर्वरा शक्ति भी इससे बरकरार रहती है। इसके साथ ही पर्यावरण को संरक्षित करके इसके द्वारा ईको सिस्टम (पारिस्थितिकी तंत्र) का संतुलन भी बरकरार रखा जा सकता है।

भारत में जैविक कृषि के सफल प्रयोगों से प्रेरित होकर आस्ट्रेलिया, कनाडा, अस्ट्रिया, पोलैण्ड, जर्मनी, रूस, अमरीका, कम्बोडिया, पेरू, चिली अर्जेन्टीना आदि देशों में भी जैविक कृषि व अग्निहोत्र के द्वारा भूमि व मनुष्य दोनों की सेहत को सुधारने के प्रयास युद्धस्तर पर शुरू हो चुके हैं।

अग्निहोत्र कृषि का मूल सिद्धांत

अग्निहोत्र कृषि का मूल सिद्धांत अग्नि द्वारा व्यक्ति, कृषि प्रक्षेत्र व वायुमंडल को पवित्र करने की प्रक्रिया से है। इसकी प्रक्रिया द्वारा वायुमंडल एवं वातावरण में प्रकृति की स्वाभाविक शक्तियों, ज्योतिषीय संयोजनों एवं मंत्र शक्ति से ऐसे परिवर्तन लाने का प्रयास किया जाता है जिससे सूर्य और चन्द्रमा से प्राप्त होने वाली उच्च शक्ति युक्त ब्रह्माण्डीय ऊर्जा को और अच्छे ढंग से ग्रहण किया जा सके।

यज्ञाहुति देने की विधि 

एक ताम्र पात्र में से अक्षत के कुछ दाने बायीं हथेली में लेकर गाय के घी की कुछ बूंदें उस पर छिड़ककर अच्छी प्रकार मिलाकर ठीक सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय निर्धारित मंत्रों का उच्चारण करते हुए प्रज्ज्वलित अग्नि में श्रद्धाभाव के साथ दो-दो आहुतियां अर्पित की जाती हैं।

सूर्योदय का मंत्र 

ॐ सूर्याय स्वाहा इदम् सूर्याय इदम् न मम्
(पहली आहुति अर्पित करें)।
ॐ प्रजापतये स्वाहा 
इदम् प्रजापतये इदम् न मम्
(दूसरी आहुति अर्पित करें)।
सूर्यास्त का मंत्र 
ॐ अग्नये स्वाहा 
इदम् अग्नये इदम् न मम्
(पहली आहुति अर्पित करें)।
ॐ प्रजापतये स्वाहा
इदम् प्रजापतये इदम् न मम्
(दूसरी आहुति अर्पित करें)।

अग्निहोत्र के समय बरती जाने वाली सावधानी

इस अग्निहोत्र में समय की पाबंदी (स्थान विशेष का सूर्योदय तथा सूर्यास्त समय) का विशेष महत्व है। आहुति देने के बाद लौ बुझने तक शांत चित्त भाव से बैठे रहना चाहिए तथा अग्निहोत्र भस्म को अगले दिन एकत्रित कर मिट्टी के पात्र में एकत्र कर लेना चाहिए।

अग्निहोत्र कृषि के विविध प्रकार

व्याहृति यज्ञ 

यह अग्निहोत्र की तरह नित्य नहीं बल्कि नैमित्तिक यज्ञ है। हर कृषि सम्बन्धी कार्य के पूर्व व पश्चात इसे करना चाहिए। अग्निहोत्र पात्र के निकट उसी प्रकार के दूसरे पात्र में व्याहृति होम करने के लिए गाय के गोबर के कण्डे जलाएं। इस हवन के लिए निर्धारित चार वेद मंत्र इस प्रकार है- 

ॐ भू: स्वाहा, अग्नये इदम न मम।
ॐ भुव: स्वाहा, वायवे इदम न मम
ॐस्व: स्वाहा, सूर्याय इदम् न मम्।
ॐ भू भुव: स्व: स्वाहा, 
प्रजापतये इदम् न मम।

प्रत्येक मन्त्र बोलते समय स्वाहा के उच्चारण पर सिर्फ एक बूंद गाय का घी अग्नि में अर्पित किया जाय। इस यज्ञ में चार बूंद गाय के घी के अलावा अन्य किसी भी पदार्थ की आहुति नहीं दी जाती। भू:, भुव:, स्व: इन तीनों शब्दों का आशय क्रमश: भूमण्डल, वायुमण्डल और आकाश हैं। अन्त में चौथी आहुति इन तीनों व्याहृतियों का उच्चारण एक साथ करके जो अग्नि, वायु और सूर्य के जनक हैं, उन प्रजापति के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने को दी जाती है। होम किये गये घी के जलकर वायुरूप होने तक यथास्थान बैठे रहना चाहिये। यज्ञ पात्र शीतल होने के पश्चात अग्निहोत्र के पात्र को उठाकर उचित स्थान पर रख देना चाहिए।

त्र्यम्बकम् यज्ञ 

अग्निहोत्र कृषि में संधिकालों का अत्यधिक महत्व है। जिस तरह सूर्योदय-सूर्यास्त के संधिकालों में नियमित अग्निहोत्र किया जाता है, उसी तरह पाक्षिक संधिकालों अर्थात् अमावस्या-पूर्णिमा को भी विशिष्ट यज्ञ किया जाता है। इसे त्र्यम्बकमयज्ञ कहते हैं। इसका मंत्र इस प्रकार है-

ॐ त्र्यम्बकम् यजामहे सुगन्धिम् पुष्टिवर्द्धनम्।
उर्वाकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् स्वाहा।

इस मंत्र के उच्चारण के साथ स्वाहा बोलने के साथ प्रज्वलित अग्नि में सिर्फ एक बूंद गाय का घी अर्पित किया जाता है। चार लोग एक घण्टा देकर यह यज्ञ कर सकते हैं। चार लोगों के एक घण्टे के यज्ञ के लिए 200 ग्राम घी पर्याप्त है। यह यज्ञ खेत में ही करना चाहिए। इस यज्ञ के लिए ईंटों से जमीन में चौकोर पात्र भी बनाया जा सकता है। पात्र में राख अधिक होने पर उसे निकालते रहना चाहिये और नये कण्डे लगाकर अग्नि लगातार इतनी प्रज्ज्वलित रखनी चाहिये कि एक बूंद घृत की आहुति से लौ निकलती रहे। 

यह यज्ञ कृषि भूमि से प्रदूषण कारक हानिकारक तत्वों व रोगाणुओं को प्रतिबंधित करता है। त्र्यम्बकम् यज्ञ की शुरुआत व समापन व्याहृति होम से ही किया जाना चाहिए। यदि अमावस्या-पूर्णिमा को यज्ञ न कर सकें तो खेती में बोनी, कटनी आदि कृषि कार्यों के दौरान इसे करना फसल के लिए काफी लाभदायी होता है। नित्य अग्निहोत्र और समय-समय पर ये दो नैमित्तिक यज्ञ और इनकी भस्म का उपयोग, यह देश की प्राचीन कृषि पद्धति का मूल आधार है। 

अग्निहोत्र की अग्नि प्रज्ज्वलित करने की विधि

ताम्र पिरामिड में सर्वप्रथम एक चपटे आकार के उपले का टुकड़ा केन्द्र में रखते हैं। उसके ऊपर उपलों के टुकड़ों को इस प्रकार रखा जाता है जिससे पात्र के मध्य वायु का आवागमन सुचारु रूप से हो सके। उपले के एक टुकड़े में गाय का थोड़ा घी लगाकर अथवा घी चुपड़ी रुई की बत्ती की सहायता से अग्नि को प्रज्ज्वलित किया जाता है। शीघ्र ही रखे हुए अन्य उपले भी आग पकड़ लेंगे  आवश्यकता पड़ने पर हस्तचालित पंखे का प्रयोग अग्निदाह करने के लिए किया जा सकता है। 

घी के स्थान पर अन्य किसी भी प्रकार के तेल का प्रयोग करने व मुंह से फूंककर अग्नि प्रज्ज्वलित करने की मनाही है।

ये प्रक्रिया पृथ्वी के ऊर्जा चक्र को इस प्रकार नियंत्रित करती है, जिससे यह ऊर्जा प्रकृति के अनुरूप प्राणीमात्र के कल्याण के लिए सकारात्मक दिशा में प्रवाहित होती रहे।

एक अद्भुत विज्ञान अग्निहोत्र

सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय 45 से 55 सेकेंड की एक ऐसी घड़ी आती है जब पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र में 20 गुना अधिक वृद्धि होती है। इस 45-55 सेकेंड के दरम्यान जब देशी गाय के जलते हुए कंडे पर एक ग्राम देशी गाय के घी में दो ग्राम अक्षत चावल मिला कर सूर्य मंत्र के साथ डाले जाते है। तब एक टन आक्सीजन के अलावा एसीटीलीन, एथीलीन, प्रोपलीन, फार्मल्दीहाईड, बीटा प्रापियोलेक्टीन, जैसे सूक्ष्म पदार्थ निकलते हैं जो सेकेंड के बीसवें हिस्से में सवा किलोमीटर तक तीव्रगति से प्रक्षेपित हो जाते हैं।

जिससे तन और मन को अद्भुत ऊर्जा की प्राप्ति होती है तथा उससे मष्तिक शोधित पोषित हो कर व्यवहारिक निर्णय लेने में सक्षम हो जाता है। इस ही क्रिया को अग्नि होत्र कहते हैं जो हजारों लाखों वर्ष पुरानी हमारी संस्कृतिक विधा है। जिसे राम, कृष्ण, भीष्म, कर्ण और द्रोणाचार्य भी किया करते थे।

वर्तमान में जितना संपूर्ण विश्व में अग्नि होत्र हो रहा है भारत में उसका दस प्रतिशत भी नहीं है बल्कि कई लोंगों को तो इसके बारे में जरा भी पता नहीं है। जबकि इंटरनेट पर इसकी चार लाख से अधिक वेबसाइट उपलब्ध है।

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