भारत, भारतवर्ष, भारतमाता और भारतमाता की जय – भाग 1 – (उमेश कुमार सिंह)

भारत या इंडिया ?

“We, the people of India that is Bharat”, (The preamble of Indian constitution)

इस देश का प्राचीन नाम भारत है ! इस नामकरण की कुछ प्राचीन अवधारणाएं है ! एक बहुप्रचलित अवधारणा है कि दुष्यंत कुमार और चक्रवर्ती राजा “भरत” के नाम पर इस देश का नाम “भारत” पड़ा ! अवधारणा का दूसरा स्त्रोत श्रीमदभागवत और जैन पुराणों में मिलता है ! इसके अनुसार रिषभ देव के पुत्र महाराज भरत, जो आगे चलकर बड़े महात्मा और योगी हो गए थे, के नाम पर इस देश का नाम ‘भारत’ पड़ा !

भृगु, अंगिरा, वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वामदेव, अगस्त्य, पाराशर, व्यास, कश्यप, बृहस्पति, जमदग्नि, केतु, पुलह, मारीच, अंगिरस, क्रतु, अष्टावक्र, याज्ञवल्यक्य, कात्यायन, ऐतरेय, कवष ऐलूष, अथर्वा, कपिल, जैमिनी, गौतम, पातंजलि, शम्बूक, पिप्ल्लाद, वाल्मीकि, उद्धालक, महिदास, सत्यकाम जालाब, सूत-शौनक, कागभुसुंडी – गरुण सभी तो भारतवर्ष (आर्यावर्त) में ही पैदा हुए है ! कण्व के आश्रम में ही शकुंतला और उस भरत का पालन पोषण हुआ ! ब्रह्मवादिनी सूर्या, घोषा, अपाला, रोमशा, गार्गी, लोपामुद्रा, अनुसुइया, शची, सीता, सावित्री, यमी, विभावटी, अदिति, हों या शबरी सभी भारत वर्ष में पैदा हुई ! दधिची, रंतिदेव, दिलीप, नल, यदिती, अम्बरीश, मान्धाता, नहुष, मुचुकुन्द, शिवि, रिषभ, महाराज नृग, भर्तहरी, जनक, राम, कृष्ण, भीष्म, विधुर सबको भारत वर्ष बहुत प्रिय रहा है ! चार्वाक, महावीर, बुद्ध, कोटिल्य, रामानंद, बल्लभाचार्य, कंबन, पारिणी तक भारतवर्ष नाम अस्तित्व में है ! 

द्वापर में महर्षि वेद व्यास की परंपरा में “जय”, “भारत” और “महाभारत” प्राप्त होते है ! उसी भारत देश की संतति और संस्कृति भारती कहलायी ! विष्णु पुराण में भारतवर्ष की सीमा इस प्रकार है ‘उत्तरम् यत् समुद्रस्य हिमाद्रे: चैव दक्षिणम्। वर्षम् तद् भारतम् नाम भारती यत्र संतति: ||’ (हिमालय से समुद्र तक के उत्तर दक्षिण भू भाग का नाम भारत है, इसमें भारती प्रजा रहती है) भारती सरस्वती का एक पर्याय है ! भारती का सम्बन्ध वैदिक भरतों से है ! भरतों के सांस्कृतिक अवदान का अभिव्यक्तिकरण ही भारती है ! शंकर के दसनामी सन्यासियों की एक शाखा का नाम भी ‘भारती’ है ! इसमें संतति की कल्पना सांस्कृतिक है, प्रजातीय नहीं ! जहाँ सनातन धर्म, सनातन संस्कृति, सान्स्क्रितिक्जीवान मूल्य वर्द्धित, परिवर्द्धित हुए, उसी का नाम भारत था ! तात्पर्य यह कि जब जीवन मूल्य से लेकर साहित्य तक में भारत और भारती उपस्थित है और इसका नाम भारतवर्ष है, तब फिर १९५० तक आते आते यह ‘India that is Bharat’ कैसे हो गया ?

जरा इसे समझने का प्रयत्न करें ! वस्तुतः शंकराचार्य तक आते आते हम बाह्य वातावरण से प्रभावित होने लगे थे ! सायण, तिरुवल्लुवर, रामदास, नामदव, ज्ञानदेव, नानकदेव, कबीर, सूर, तुलसी, पीपा, दद्दू, रैदास, मीरा, लल्लण, चैतन्य महाप्रभु, नरशी मेहता, रामकृष्ण, विवेकानंद, अरविन्द तक हम नाम के लिए संघर्ष करते दिखते है ; किन्तु समझने की बात है कि यह केवल नाम का संघर्ष नहीं था ! यह अस्मिता का संघर्ष था ! परिचय का संघर्ष था ! यह इतिहास के स्मृतियों के विस्मृति होने का संकट था ! 

विस्मृति के इस दौर में उन्नीसवी सदी तक आते आते हम भारत के प्रति कृतज्ञ नहीं रह सके ! उसके भारतवर्ष क स्वरुप को हमने खोना प्रारम्भ किया और विश्वजननी, जगतगुरु का सिंहासन हिल गया ! भारत के मैकाले-मानस पुत्रों से माता का सम्बन्ध शिथिल होना प्रारम्भ हुआ ! यह ‘स्व’ के ह्रास होने का दुखद समय था ! १९वी शताब्दी के आरम्भ में ईसाई मत ने इस्लाम की विध्वंसक/ धर्मांतरण परंपरा को बढाते हुए सनातन विचारों पर गहरी कील ठोकनी प्रारम्भ की, मौलिक सिद्धांतों पर पड़े आघातों के कारण प्रतिक्रया रूप में हिन्दू एकता ने जन्म लिया ! इसके फलस्वरूप ‘भारत धर्म महामंडल’ की स्थापना बंगदेशी स्वामी ज्ञानानंद जी ने की जिसमे तीन उद्धेश्य रखे गए : ‘हिंदुत्व की एकता और उत्थान; दो- इस कार्य के सम्पादन के लिए उपदेशकों का संगठन; तीन- हिन्दू धर्म के सनातन तत्वों के प्रचारार्थ उपयुक्त साहित्य का निर्माण !’ यह बहुत महत्वपूर्ण दौर था जब हमें सनातन परम्परा के, आर्य परम्परा के, हिन्दू जीवन मूल्यों के संरक्षण के लिए संघर्ष करना पड़ रहा था !

भारत का नाम इंडिया कहाँ से आया, स्पष्ट नहीं है ! १८३५ के आसपास तक अंग्रेज लेखक इस देश को हिन्दुस्तान और भारतवर्ष ही लिखते रहे है ! स्पष्ट है कि अंग्रेजों ने भारत को इंडिया नाम उसके मूल को विस्मरण करने के लिए दिया ! १८५७ में भी यह हिन्दुस्तान है, “हम है इसके मालिक हिन्दुस्ता हमारा, पाक वतन है कौम का जन्नत से भी प्यारा” !

सूर्यकांत बाली भारतीय काल गणना को युगाब्द को कुछ अलग नजरिये से देखते है, शायद नवीन काल गणना के अवधारणावादियों से टकराने का जोखिम लेना नहीं चाहते ! स्वतंत्रता के बाद हमने जहाँ अपने कर्मकांड से लेकर अशासकीय-शासकीय व्यवहारों में युगाब्द को छोड़ा, विक्रम सम्वत को छोड़ा, वहीँ शक तथा ईसा सम्वत को अंगीकार कर लिया; परिणाम हमारे सामने है ! यदि ऐसा नहीं होता तो इस देश का नाम शायद ही कोई भारतीय संविधान में ‘इंडिया’ स्वीकार करता ! फिर भी वे एक महत्वपूर्ण बात लिखते है, ‘जिस पौधे को एक खांटी प्रयोग के तहत दुत्कार और कोस कर जगदीश चन्द्र बोस ने पाया कि वह पौधा सूख कर काँटा हो गया और फिर ख़त्म हो गया, वैसे ही पिछले करेब तीन-साढ़े तीन सौ वर्षों से इस देश की प्रतिभा पर शासन करने वाले पश्चिमी विद्वानों, उनके राजनैतिक प्रतिनिधियों और उनके भारतवंशी मानसपुत्रों ने इस देश के कोमल मन को इतना कोसा है, उसे इतना धित्कारा-दुत्कारा है, उसे छोटा समझने को इतना मजबूर किया है, उसे इतना पतित-दें-दरिद्र साबित किया है कि हम भारतवासी अपनी निगाह में खुद ही गिर गए है ! ... तो क्योँ किया गया छल ? ताकि सिद्ध किया जा सके कि भारत एक धर्मशाला है ! यहाँ अंग्रेज आये, मुग़ल आये, तुर्क-अफगान आये, अरब आये, कुषाण आये, हूण आये, शक आये, यवन आये, आर्य भी बाहर से आये ! यह देश किसी एक का नहीं रहा ! जो आता गया, बसता गया ! इस देश की अपनी कोई संस्कृति नहीं, कोई इतिहास नहीं, कोई सभ्यता नहीं ! बस, सब यूं ही चलता रहा ! एक अघटित को इतिहास बनाने का छल इसलिए हुआ ! इसे इतिहास कहें या कूटनीति !’ यहाँ समझा जा सकता है कि नया नाम ‘इंडिया’ पहचान मिटाने का हथियार और महत्वपूर्ण व्यवहार बना !

कोई भी समाज, उसके उत्तराधिकारी जब सदियों की गूंजती वाणी को भूलना प्रारंभ कर देते है, तब वहां से जीवन मूल्य, संस्कृति, हमारे महापुरुष, हमारा जातीय बोध समाप्त होने लगता है ! हम भारत को भूलते ही, भरत को, तीर्थकर को, चाणक्य को, बुद्ध और शंकराचार्य को भूलते है; चेन्नमा, शिवाजी और ताना जी को भूलते है; समुद्रगुप्त, महाराजा प्रताप, छत्रसाल को भूलते है; हर्षवर्धन, देवराय, विक्रमादित्य और अशोक को भूलते है; बंकिम, तिलक, सुभाष, भगत, आजाद को भूलते है; कालिदास, भास, भोज, भट्ट और अभिनवगुप्त को भूलते है; भूलने की एक लम्बी फेरहिस्त है !

हमारे ऋषियों, संतों ने भारतवर्ष की जिस आलिखी स्लेट पर ‘संस्कृत’ लिखी थी, उस पर स्वतंत्रता के साथ ही कांग्रेस सत्ता पर हावी वामपंथियों ने उसे मिटा कर ‘अंग्रेजी’ लिखना प्रारंभ किया ! परिणामः वह भस्मासुर भारत की अस्मिता को खाने लगा ! जहाँ-जहाँ हिंदी, बांगला, मलयायम, तेलगु, कन्नड़, मराठी, गुजराती, असमिया, पस्तो, शारदा थी, वहां सभी जगह हमने अंग्रेजी लिख दी ! गिलगिट, वाल्तिस्तान अपने भाषायी अस्मिता को बचाए रखने के लिए मंडारिन और उर्दू की मार से रक्तरंजित हो रहे है ! भारतीय विश्वविद्यालयों ने कालिदास की जगह शेक्सपियर लिखा ! जिन मील क पत्थरों के सहारे हम भारतवर्ष को समझने का प्रयत्न करते रहे, जीते रहे, उस लीक को ही मिटा दिया; भारतवर्ष रुपी प्लेट पर India that is Bharat जड़ दिया ! हमारा साहित्यकार, इतिहासकार सोता रहा और भारतवर्ष से वर्ष (वर्ष अथवा स्थान बटा और वर्ष अर्थात नित्यनूतन चिरपुरातन धारा अवरुद्ध हुई) कटा, भारत और इंडिया पर्यायवाची बना ! भारतवर्ष ‘इंडिया’ रुपी भोग भूमि में परिवर्तित हो गया !


क्रमशः................        

उमेश कुमार सिंह
निदेशक,साहित्य अकादमी ,भोपाल
umeshksingh58@gmail.com

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