स्वतंत्रता दिवस पर विशेष- प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का अपराजेय योद्धा - पूनम नेगी



वह सचमुच असाधरण थे। राम नाम उनका सर्वस्व था और महावीर हनुमान परम इष्ट। सदैव एक ही बात कहते थे कि साधना हो तो महावीर हनुमान जैसी। "राम कजु कीन्हें बिनु मोहिं कहाँ विश्राम" को जीवन का ध्येय वाक्य मानने वाले वे निराभिमानी संत सदा-सर्वदा अनथक भाव से लोक कल्याण में ही निरत रहते थे। उनकी इस सेवा-सहायता के व्रत में जाति-पांति, नर-नारी, ऊँच-नीच का कहीं कोई भी भेद न था। "सिय राम मय सब जग जानी" के भाव से उन्होंने जनसेवा को ही प्रभु सेवा मान लिया था। सोलह वर्ष की किशोरवय से 40 वर्ष की अवस्था तक उन्होंने कठोरतम तप साधना के अनुबंधों का सम्पूर्ण निष्ठा व दृढ़ता से इस तरह पालन किया कि बजरंग बली अपने इस अनन्य भक्त पर कृपालु हुए बिना न रह सके। कहते हैं कि महावीर हनुमान स्वयं अपने इस भक्त के सम्मुख प्रत्यक्ष प्रकट हुए थे और उन्हें "अष्ट सिद्धि" का वरदान दिया था। 

ये महासाधक थे संत आनंद भारती। जिन्होंने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अंग्रेज अधिकारियों को पहली बार भारत की आध्यात्मिक शक्ति का अहसास कराया था। आइए, आजादी के इस पर्व पर आपको सुनाते हैं लक्कड़ बाबा के नाम से मशहूर संत आनंद भारती के जीवन से जुड़ा वह प्रसंग जिसे सुनकर कोई भी सच्चा राष्ट्रभक्त रोमांचित हुए बिना न रह सकेगा। 

वाकया तब का है जब 1857 की क्रांति को विफल हुए अभी कुछ ही दिन बीते थे; मगर अब भारत का शासन ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों में न होकर सीधे ब्रिटिश शासन के अधीन हो गया था। लार्ड वारेन हेस्टिंग्स को ब्रिटिश भारत का सर्वप्रथम गवर्नर जनरल बनाया गया था। उस दासता के युग में भारतवासी आये दिन अंग्रेजों की उपेक्षा एवं अवमानना के शिकार होते रहते थे। अंग्रेज अधिकारी सामान्य नागरिकों को ही नहीं; साधु-संतों का भी अपमान करने से नहीं चूकते थे। घटना कलकत्ता की है। अपनी मंडली के साथ देश भ्रमण पर निकले संत आनंद भारती ने उन दिनों उसी नगर में अपना डेरा डाल रखा था। वह स्थल अंग्रेज छावनी से कुछ ही दूरी पर था। उनकी उस मंडली में लगभग डेढ़ सौ संत शामिल थे। बात पहले ही दिन की है। उन साधु-संतों ने अलख निरंजन के जयघोष के ज्यों ही अपनी संध्या आरती की; शंख, नगाड़े तुरही, झाँझ, ढोल आदि वाद्ययंत्रों के नाद से समूचा वातावरण गूंज उठा।

आरती की यह ध्वनि जब अंग्रेज छावनी तक पहुंची। वहां का अंग्रेज अफसर भड़क उठा। वह अपने साथ सिपाहियों की एक टुकड़ी लेकर साधुओं के डेरे पर पहुंचा और क्रोध से चिल्लाकर बोला, "बंद करो अपना यह शोरगुल। अपना डेरा-तंबू उठाओ और यहां से चलते बनो।" यह धमकी देकर वह चिल्लाने वाले तेज स्वर में बोला, "कौन है तुम्हारा मुखिया? उसे सामने बुलाओ।" उस अंग्रेज अफसर का तेज स्वर सुनकर बाबा डेरे से बाहर आये और निर्भीक शांत स्वर में बोले, "हम लोग शोर नहीं, अपने भगवान की आरती कर रहे हैं और हमारे ही देश में हमें हमारे भगवान के पूजन से रोककर बदतमीजी तो आप कर रहे हैं महोदय।" बाबा का खरा उत्तर सुनते ही वह आग-बबूला हो उठा। तेज स्वर में बोला, "जुबान बंद करो अपनी, जानते नहीं ब्रिटिश शासन है, तुम्हारा राज नहीं है।" बाबा भी तैश में आ गये। उसे डपटते हुए बोले, "हिम्मत है तो आरती बंद कराकर तो दिखाओ! देखता हूं कितनी ताकत है तुममें!" 

बाबा के उन शब्दों में न जाने कौन सी अदृश्य शक्ति थी कि उनके यह बोलते ही उस अंग्रेज अधिकारी का मुंह ही सिल गया। लाख कोशिश के बाद भी उसके मुंह से एक शब्द भी न निकल सका। अपमानित सा होकर वह अपनी छावनी को लौट गया और शराब का सहारा लिया कि शायद जुबान खुल जाए पर उपाय व्यर्थ गया। सारी कोशिशें कर लीं पर सब की सब नाकाम रहीं। अंतत: वह बाबा के डेरे पर गया और इशारे से माफी मांगते हुए बोला कि न जाने क्या हो गया कि उसकी आवाज ही बंद हो गयी। बाबा मुस्कुराए। करुणाशील संत को उस पर दया आ गयी। वे उसे क्षमा करते हुए बोले, "जा बच्चा! मगर अब आगे कभी किसी भजन-पूजन करने वाले को कष्ट मत पहुंचाना।" संत के यह कहते ही उस अंग्रेज अधिकारी की आवाज तुरंत लौट आई। उसने "ओ माई गॉड" कहते हुए संत को प्रणाम किया और तुरंत वहां से लौट गया। मगर, आज उसे इस बात का अच्छी तरह अहसास हो गया कि इस दुबले-पतले लँगोटी वाले निहत्थे भारतीय साधु में कोई न कोई ऐसी अदृश्य शक्ति अवश्य है जिसके आगे वह कुछ भी नहीं कर सका। 

इस घटना की खबर जब गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स को हुई तो उसने इसे अपनी पूरी अंग्रेज जाति का अपमान समझा। वह बदला लेने की मंशा से तुरंत कलकत्ता पहुंचा और फरमान जारी कर दिया ब्रिटिश ताकत से लोहा लेने की जुर्रत करने वाले इन साधुओं के मुखिया को लकड़ियों के बीच डालकर जिंदा जला दिया जाए। तत्काल हुक्म की तामील हुई। अंग्रेज सिपाहियों की फौज साधुओं के डेरे पर पहुंची और ललकारते हुए कहा, "सामने करो अपने बाबा को, हम अभी उन्हें जलती लकड़ियों में जिंदा जला देंगे तब तुम सब को सबक मिलेगा।" उन अंग्रेज सिपाहियों के मुंह से अपने गुरु के प्रति ऐसे अपमानजनक शब्द सुनते ही डेरे के साधुओं ने तुरंत क्रोध में भरकर अपने चिमटे व त्रिशूल उठा लिये किन्तु अगले ही पल बाबा का ठहरो! स्वर सुनते ही सबके के सब जहां के तहां रुक गये। बाबा सहज रूप से सामने आये और उन अंग्रेज सिपाहियों की ओर देखकर हंसते हुए बोले, "चलो लगाओ आग! आज मैं तुम्हें व तुम्हारी सरकार को भारत की आध्यात्मिक सामर्थ्य की एक झलक दिखाता हूं।" यह कहकर वे आगे बढ़े और हनुमान जी को नमन करते उस खुले मैदान के बीचोबीच भूमि पर पद्मासन लगाकर बैठ गये। एक संत को जिंदा जलाये जाने की यह खबर जंगल की आग की तरह चारो ओर फैल गयी। सैकड़ों लोग यह दृश्य देखने के लिए घटनास्थल पर जुट गये। गर्वनर जनरल की उपस्थिति में उस भारतीय संत के चारो ओर लकड़ियों का ढेर चिनवा कर आग लगवा दी गयी। वारेन हेस्टिंग्स सोच रहा था कि इस घटना के बाद भारत की जनता के दिल में अंग्रेज शासन के प्रति भारी दहशत फैल जाएगी और आगे से कोई बेअदबी करने की जुर्रत नहीं करेगा। दूसरी ओर वहां बड़ी संख्या मौजूद लोग मन ही मन अंग्रेजों को बद्दुआ दे रहे थे। 

मगर यह क्या! मनों लकड़ियां जल जाने के बाद बाबा उसके भीतर से हंसते हुए बाहर निकल आये। यह चमत्कार देख वहां जुटे आम लोगों ने ही नहीं, वरन अंग्रेज अधिकारियों व सैनिकों ने भी दांतो तले अंगुलियां दबा लीं। लोग बार-बार आंखों को मल कर यकीन करने की कोशिश कर रहे थे। समूचा क्षेत्र बाबा की जय-जयकार से गूंज उठा। गवर्नर जनरल की हैरानी की कोई सीमा न थी। मौके पर वह अंग्रेज अधिकारी भी मौजूद था, बाबा की शक्ति ने जिनकी आवाज बंद कर दी थी और उसने गवर्नर साहब को वह कदम उठाने से रोका भी था। विदेशी शासकों के खेमे एक अजब सा बैचैन कर देने वाला मौन पसर गया था। आज एक भारतीय संत की आध्यात्मिक शक्ति के आगे सारी विदेशी सत्ता बौनी हो गयी थी। वारेन हेस्टिंग्स ने शर्मिन्दगी भरे स्वर में अपने इस कुकृत्य के लिए बाबा से माफी मांगी तो वे मुस्कुराते हुए बोले, "बुराई करने वाले को उसका फल अपने आप मिल जाता है।" 

फिर दो पल गहन दृष्टि से उसे देखते हुए बोले, "अच्छा एक बात पूरी ईमानदारी से सच-सच बताना हमें जलाने के लिए तुम लोगों कितने मन लकड़ियां फूंक दीं।" जवाब आया- "कुल नब्बे मन।" यह सुनकर मानो एक निर्णायक स्वर में बाबा ने कहा- देख लेना! भारत में तुम्हारी सल्तनत भी इन नब्बे मन लकड़ियों की तरह नब्बे साल में खत्म हो जाएगी। तुम्हारे भांति-भांति के अन्याय व अत्याचार इस देवभूमि का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकेंगे। भारत की आध्यात्मिक सामर्थ्य बहुत गहरी है। ईश्वर की कृपा से यह राष्ट्र तमाम विपदाओं को झेलने के बाद भी ठीक उसी तरह सुरक्षित बाहर निकल जाएगा, जैसे मैं इस आग से।"

इस घटना के बाद से संत आनंद भारती लक्कड़ बाबा के नाम से मशहूर हो गये। लार्ड वारेन हेस्टिंग्स ने उनकी इस भविष्यवाणी को पूरी सावधानी से नोट किया। कलकत्ता की यह घटना लंदन टाइम्स में विस्तार से प्रकाशित हुई। लंदन टाइम्स ने लिखा, भारतीय संतों की सिद्धियों की अनेक बातें अब तक हमने सुन रखी थीं; परंतु यह अद्भुत चमत्कार हजारों लोगों की आँखों के सामने हुआ। नब्बे मन लकड़ियाँ जल गयीं पर एक भारतीय साधु उसमें से पूरी तरह सुरक्षित व जीवित बाहर निकल आया। यही नहीं, उस संत ने यह भी कहा कि भारत में अंग्रेजों की हुकूमत सिर्फ नब्बे साल ही चल सकेगी। उसके बाद उन्हें लौटना ही होगा। सचमुच ही 1857 से 1947 तक यानी नब्बे वर्षों तक ही भारत में अंग्रेजों का शासन रहा।

कहते हैं कि भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के इस अपराजेय योद्धा व महान भारतीय संत ने जीवन के उतरार्द्ध में व गुजराज के गिरनार पर्वत की तलहटी में भवनाथ को अपनी साधनास्थली बना लिया था। वहीं उन्होंने पद्मासन की मुद्रा में अपने प्राणों को ब्रह्मरंध्रों में चढ़ाकर जीते जी महासमाधि ले ली थी। कहा जाता है कि महासमाधि से पूर्व उन्होंने वहां मौजूद जन समुदाय को संबोधित करते हुए कहा था, "मेरे प्रिय देशवासियों तुम निराश न हो, ये अंग्रेज हमारे देश में ज्यादा नहीं टिक पाएंगे। हमारा देश जरूर आजाद होगा और भविष्य में एक दिन वह भी आएगा जब बहुत सारी उथल-पुथल और संकटों की आग में तपकर एक दिन हमारा भारतवर्ष समूचे विश्व का सिरमौर बनेगा।" सच में लक्कड़ बाबा का समाधि स्थल आज भी सच्चे अध्यात्मवेत्ताओं व सच्चे राष्ट्रभक्तों को प्रेरणा देता है। आजादी के इस पावन पर्व इस राष्ट्र के इस संत सच्चे को शत-शत नमन!



पूनम नेगी 
16 ए, अशोक मार्ग 
पटियाला कम्पाउण्ड
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