1857 के इतिहास का बदनुमा दाग – कानपुर का बीबीघर काण्ड



1857 की क्रांति, अर्थात अंग्रेंजो (ईस्ट इंडिया कंपनी) के दमनकारी शासन के खिलाफ बुलंद हुई वह आवाज, जिसने स्वतंत्रता की बुनियाद रखी । यदि 1857 का स्वाधीनता संग्राम नहीं हुआ होता तो शायद देश पर ईस्ट इंडिया कंपनी का ही शासन चलता रहता और ब्रिटेन की राजशाही भारत को अपने अधिपत्य में लेने की बात भी नहीं सोचती। 

अंग्रेज इतिहासकार उस क्रान्ति को राजघरानों का विद्रोह निरूपित करते हैं, तो देश के राष्ट्रभक्त उसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम मानकर गौरव का अनुभव करते हैं । उक्त संग्राम के सूत्रधार माने जाने वाले नाना साहब पेशवा और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के अपने वैयक्तिक कारण हो सकते हैं, लेकिन यह वह आन्दोलन था, जिसमें देश का आमजन भी सहभागी हुआ | देश के जाने माने पत्रकार श्री विवेक सक्सेना ने उस समय की घटनाओं को अपने आलेखों में कुछ इस प्रकार वर्णित किया है –

बाजीराव पेशवा द्वितीय अंग्रेंजो के साथ हुए युद्ध में परास्त हुए, किन्तु इसके बाद भी उन्होंने पेशवा से समझौता किया | कारण यह था कि उनकी सेना में भी 5,000 घुड़सवार व 6000 पैदल सैनिक, पेशवा समर्थक थे, जोकि पेशवा के अपमान से आहत होकर विद्रोह कर सकते थे, अतः काफी सोच-विचार करने के बाद अंग्रेजों ने पेशवा के सामने एक प्रस्ताव रखा कि अगर वे पूना छोड़ दे तो वो उन्हें आठ लाख रुपए सालाना पेंशन मिलेगी | इतना ही नहीं तो उनके बाद उनके वंशज को भी वहीं सुविधाएं जारी रहेंगी ।

अंग्रेजों के मन में पहले से ही कुटिलता थी | उन्हें ज्ञात था कि पेशवा के कोई संतान नहीं है, और उन्होंने धोंदोपंत उपाख्य नाना साहब को गोद लिया है | पेशवा पूना छोड़कर कानपुर से करीब 25 किलोमीटर दूर स्थित बिठूर जा बसे और वहीं उनका देहांत हुआ । बाजीराव के मरने के बाद अंग्रेंजों ने अपनी कुटिल योजना को कार्यरूप में परिणित किया और नाना साहब को पेशवा मानने से इंकार कर दिया। उनकी पेंशन बंद कर दी गई व उन्हें तोपों की सलामी दिए जाने पर भी रोक लगा दी। 

नाना साहब ने अपने विश्वासपात्र सलाहकार अजीमुल्ला को अपने मामले की पैरवी करने के लिए महारानी के दरबार में लंदन भी भेजा मगर निराशा ही हाथ लगी । तात्या टोपे उस समय उनके सेनापति थे। ईस्ट इंडिया कंपनी ने यही रणनीति रानी लक्ष्मी बाई के साथ भी अपनाई और उनके बेटे को भी वारिस मानने से इंकार कर दिया।

तो क्या 1857 का वह महासंग्राम केवल इन राजपरिवारों के अधिकारों के कारण हुआ ? तो कलकत्ता की बैटकपुर छावनी का वह प्रसंग विचारणीय है, जो भारत के हिन्दू समाज की कमजोरी और खूबी दोनों को दर्शाता है । यह वह समय था जबकि सवर्ण लोग दलितो की छाया तक से बचते थे। एक ब्राह्मण सैनिक ने वहां से झाडू लेकर गुजर रहे सफाई कर्मी से कहा कि जरा दूर होकर निकलो, कहीं तुम्हारी छाया हम पर न पड़ जाए। सफाईकर्मी ने कटाक्ष करते हुए कहा कि यहां तो मेरी छाया से भी बचते हो मगर क्या तुम्हे पता है कि जो नई कारतूस आ रही है उसमें सुअर व गाय की चर्बी लगाई जा रही है जिसे तुम लोगों को अपने मुंह से खोलना पड़ेगा।
फिर क्या था, यह कानाफूसी फैलने लगी | क्या हिन्दू, क्या मुसलमान, सबके कान खड़े हो गए और उन्होंने कारतूस फैक्टरी में अपने सूत्रों से इस की पुष्टि की तो पता चला कि उसकी बात सही थी। नतीजतन विद्रोह की चिंगारी सुलगनी शुरू हुई। 

अब वह घटना, जिसे हम 1857 के इतिहास का काला पन्ना कह सकते हैं –

2 जून 1857 को जब भारतीय सैनिको में वेतन बांटा जा रहा था तो उन्हें एक-एक करके बुलाया जा रहा था। उस समय यह अफवाह फैलने लगी कि अंग्रेंज भारतीय सैनिको को मारना चाहते हैं। अगले दिन एक अंग्रेंज अफसर काक्स टेरेट ने शराब पीकर एक भारतीय सैनिक को गोली मार दी। सैनिक बच गया। उसी रात अफसर को कैद कर लिया गया। मगर अगले दो दिन ईस्ट इंडिया कंपनी की अदालत ने उसे रिहा कर दिया। इससे काफी नाराजगी पैदा हो गई।

वैसे भी अंग्रेंज शासक भारतीयों के साथ दुर्व्यवहार करते थे। ये लोग पेशवा, रानी लक्ष्मीबाई और बहादुरशाह जफर के साथ किए जाने वाले अंग्रेंजो के बर्ताव से नाराज थे। अतः पूर्व योजनानुसार जब नाना साहब ने खुद को कानपुर का शासक घोषित किया, तो उन्हें जबरदस्त समर्थन मिला । अंग्रेज पराजित हुए | 

जब अंग्रेंज घिर गए तो नाना पेशवा ने हग व्हीलर को पत्र लिखकर उन्हें शहर छोड़ कर इलाहाबाद जाने की इजाजत दे दी। 25 जून को जब बचे हुए करीब 450 ब्रिटिश पुरूष, महिलाएं व बच्चे वहां के सतीचौटा घाट पर नावों पर चढ़ रहे थे तभी किसी बात पर बागी सैनिको के साथ उनका टकराव हो गया जिसमें बड़ी तादाद में वे लोग मारे गए। शहर में जबरदस्त हिंसा व आगजनी हुई। भीड़ ने टेलीफोन दफ्तर, पोस्ट ऑफिस, जेल, अदालतें फूंक डाले। अंग्रेंज समर्थक बूने नवाब का घोड़ा छीन कर उसे टहू पर बैठाकर शहर में घुमाया गया। 

इससे पहले नाना पेशवा ने औरतों व बच्चों को कानपुर में ही रहने के लिए उन्हें लाने के लिए पालकी, घोडे आदि भेज दिए थे। इन लोगों की संख्या 150 थी जिन्हें नदी के करीब स्थित एक अंग्रेंज अफसर द्वारा अपनी रखैल के लिए बनवाए घर ‘बीबीघर’ में रख दिया गया। वहां करीब 150 औरते व बच्चे थे। उनकी देखभाल के लिए नाना पेश्वा ने अपनी एक रखैल हुसैनी बेगमा को नियुक्त कर दिया। माना जाता है कि उन्होंने अंग्रेंजो के साथ राजनीतिक मोलभाव करने के लिए इन लोगों को कानपुर में रोक लिया था मगर जब कुछ दिनों बाद अंग्रेंजो ने पुनः कानपुर को घेरा और उस पर कब्जा करने के लिए आगे बढ़े तो हुसैनी बेगम ने वहां मौजूद नाना के सैनिको से उनकी हत्या करने को कहा। उन लोगों ने महिलाओं व बच्चों पर गोली चलाने से इंकार कर दिया। इस पर हुसैनी बेगम ने अपने दोस्त सरदार खान से इसके लिए कहा। उसके लोगों ने इन महिलाओं व बच्चों की निर्ममता से हत्या कर दी। उनके शवों को वहां स्थित एक कुएं में फेंक दिया गया।

कुल 150 लोग मारे गए। अंग्रेंजो ने शहर पर कब्जा करने के बाद जम कर कत्लेआम किया। बताते हैं कि चंद दिनों के अंदर ही 6,000 लोग मारे गए। तमाम बागियो को चौराहों पर फांसी पर लटका दिया गया। बागियों से बीबीघर के खून से लथपथ फर्श को जीभ से चाट कर साफ करने को कहा गया। मुसलमानों के मुंह में सुअर व हिंदुओं के मुंह में गाय का मांस भरने का आदेश दिया गया। हिंदुओं को गाय व मुसलमानों को सुअर की खाल में सिलने का आदेश देते हुए जनरल हैक्टी है ब्लाक ने कहा कि मैं तुम्हें ऐसी सजा दूंगा कि मरने के बाद भी स्वर्ग के हकदार न हो पाओ।
यह घटना 31 जुलाई 1857 को घटी थी।


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