ईमानदार हो तो भुला दिए जाओगे - विक्रम शर्मा



अरे हाँ, यह तो मन्त्री जी ही हैं. हम सकपका गये. सुना तो था, कि कभी-कभी मन्त्री जी स्वयं कॉफ़ी बोर्ड के काउण्टर पर आकर कॉफ़ी पीते हैं, किन्तु विश्वास नहीं होता था. आज जबकि हम स्वयं खड़े थे काउण्टर पर, तो उन्हें प्रत्यक्ष देखकर अचरज भी हुआ और थोड़ी घबराहट भी हुई. आखिर वह हमारे मन्त्री महोदय थे और हम उनके मन्त्रालय में काम करने वाले सामान्य कर्मचारी!

हम सकपकाते हुए काउण्टर से अलग हो गये ताकि मन्त्री महोदय पहले अपना ऑर्डर दे सकें. मन्त्री जी ने निकट आकर सौम्यता के साथ कहा, "आप लोग पहले से खड़े हैं. पहले आप लीजिए." हमने चुपचाप आज्ञा का पालन किया. अपनी बारी आने पर मन्त्री जी ने पहले भुगतान किया, फिर कॉफ़ी का मग लेकर हमारे निकट ही खड़े हो गये.

कॉफ़ी बोर्ड की कॉफ़ी का मज़ा ही कुछ और था. वैसे चाय कॉफ़ी हमारी सीटों पर भी उपलब्ध हो जाती थी, किन्तु कॉफ़ी बोर्ड की कॉफ़ी नहीं. उच्चाधिकारियों और मन्त्रीगण के पास तो निजी परिचारक उपलब्ध रहते हैं. परन्तु मन्त्री जी की सादगी थी अथवा व्यवस्था पर नज़र बनाये रखने का एक बहाना, वह ऐसी सामान्य जगहों पर अक्सर देखे जा सकते थे.

मेरे साथ मेरे वरिष्ठ सहयोगी वर्मा जी थे. कई वर्षों से वहाँ कार्यरत थे. मन्त्रालय का कोना-कोना उनसे परिचित था. पिछले मन्त्री जी के निजी स्टाफ़ में भी रह चुके थे. बातों-बातों में उन्होंने मुझे अगले दिन मन्त्री जी का कार्यालय दिखाने का वादा कर दिया.

अगले दिन हम लोग मन्त्री जी के कार्यालय में थे. मन्त्री जी के निजी स्टाफ़ के अधिकांश व्यक्ति वर्मा जी के मित्र थे. मन्त्री जी कार्यालय में नहीं थे. सब लोग अनौपचारिक तरीके से बातचीत कर रहे थे. थोड़ी देर में मन्त्री जी के बारे में बात होने लगी. कुछ लोग उनकी सादगी की प्रशंसा कर रहे थे तो कुछ उन्हें अनाड़ी बता रहे थे. कुछ उनकी ईमानदारी के कायल थे तो एक ने तो यहाँ तक कह डाला, "अजी काहे का ईमानदार! भुक्खड़ है****, न खाता है, न खाने देता है."

बातों-बातों में पता चला, मन्त्रियों के स्टाफ़ के काफ़ी विशेषाधिकार होते हैं. ऊपर की आमदनी नहीं तो खाने-पीने की मौज तो रहती ही है. पिछले मन्त्री जी के कार्यकाल में आये दिन मन्त्री जी के मेहमानों के लिए विशेष भोजन की व्यवस्था की जाती थे. वही भोजन उनके निजी स्टाफ़ के लिए भी आता था. लगे हाथ स्टाफ़ के लोग अपने मित्रों को भी आमन्त्रित कर लिया करते थे. तो आए दिन पार्टी हो जाया करती थी.

जब से इन मन्त्री जी ने कार्यभार संभाला था, एक बार भी भोजन का आयोजन नहीं किया गया था. मेहमानों के स्वागत के लिए केवल चाय-कॉफ़ी और साथ में नमकीन काजू. मेहमान के विदा होने के बाद वे काजू वापस डिब्बे में रख दिये जाते और अगले आगन्तुक के आने पर उन्हें दोबारा प्लेट में सजा कर प्रस्तुत कर दिया जाता. "यह जनता का पैसा है. हमें कोई हक नहीं बनता कि इस पैसे का दुरुपयोग करें," वह अकसर कहा करते. इस मितव्ययिता के कारण उन्हें ’भुक्खड़’ नाम से सम्मानित किया गया था.

बाद में वर्मा जी ने मुझे बताया कि स्टाफ़ कई कारणों से मन्त्री जी से चिढ़ता था. मन्त्री जी एक अपवाद की हद तक मितव्ययी थे. अपनी निजी आवश्यकताओं को सीमित रखने के पक्षधर थे. मन्त्री होने के नाते जिन सरकारी सुविधाओं पर उनका सहज अधिकार था, उनसे भी वह यथासंभव बचते. स्टाफ़ के लोग अवसर पाकर उन्हें बार-बार उनके अधिकार स्मरण कराते और हर बार वह टाल जाते. स्टाफ़ का मन्तव्य स्पष्ट था, मन्त्री जी के बहाने सुविधाओं का लाभ उठाना.

कार्य के सिलसिले में मन्त्री जी के घर भी स्टाफ़ का आना-जाना रहता. मन्त्री जी के सामने दाल न गलती देख स्टाफ़ सदस्यों ने उनकी पत्नी के माध्यम से खेल खेलना प्रारम्भ कर दिया. "भाभी जी, मन्त्री जी तो देवता समान हैं. बहुत सीधे हैं. भला जो हक है उनका, उसे लेने में कैसा ऐतराज़? अब देखिए न, आप मन्त्री की पत्नी हैं, फिर भी आपके पास गाड़ी नहीं! यह कोई बात है? ऐसा भी कोई करता है? मन्त्री बनने का परिवार को भी तो कुछ लाभ होना चाहिए."

मन्त्री जी की पत्नी को समझाने में वे सफल हो गये. श्रीमती जी ने अपने पति के सामने गाड़ी के लिए गुहार लगायी. पति देव ने पूछा, "आप करेंगी क्या, गाड़ी का?"

उत्तर मिला, "तरकारी लेने जाएंगे."

"अपने शहर में क्या तरकारी लेने के लिए गाड़ी में जाया करती थीं?"

"तब की बात और थी. अब हम मन्त्री की बीवी हूँ."

"हम हमेशा के लिए मन्त्री नहीं बना हूँ. जब मन्त्री नहीं रहूँगा, तब कहाँ से लाएंगी गाड़ी? अभी तो आदत नहीं पड़ी है. जब आदत पड़ जाएगी, तब कैसे गुज़ारा करेंगी?"

"तब की तब देखी जाएगी. अभी तो हमें गाड़ी चाहिए, बस!" श्रीमती जी ने अलटीमेटम दे दिया.

"यह आपकी समस्या नहीं है. यह हमारी समस्या है. आप बर्दाश्त नहीं कर पाएंगी तब, जब आपके पास गाड़ी नहीं रहेगी. या तो हम गलत तरीके से कमाई करके आपकी गाड़ी के लिए पैसा इकट्ठा करना शुरू करें. या फिर आपको पल-पल जलते हुए देखें. आपकी जली-कटी सुनें सारी उम्र. बेहतर है, ईश्वर ने जिस हाल में हमें रखा है, उसी हाल में खुश रहें." मन्त्री जी का दो-टूक उत्तर था.

कुछ दिन बाद श्रीमती जी ने खुद को समझा लिया. स्टाफ़ ने भी.

28 महीने बाद मन्त्री जी की पार्टी सत्ता से बाहर हो गयी. मन्त्री जी वापस अपने घर चले गये. गुमनामी के अंधेरे में गुम हो गये.

उसके बाद किसी पत्र-पत्रिका में उनका नाम नहीं छपा. किसी ने उनके बारे में बात नहीं की. किसी ने उन्हें स्मरण नहीं किया.

पत्र-पत्रिकाओं में भ्रष्टाचार के समाचार छपते रहे. टी. वी. में भ्रष्ट आचरण पर स्टिंग ऑपरेशन होते रहे, सनसनी मचती रही, पत्र-पत्रिकाओं में तहलका मचता रहा, मगर कभी किसी चैनल ने, किसी पत्र-पत्रिका ने लोगों को यह नहीं बताया कि ऐसे भले, सच्चे और ईमानदार मन्त्री भी हुए हैं.

शायद अब भी हों. किन्तु कौन कहना सुनना चाहता है ऐसे लोगों के बारे में! क्या ऐसे लोगों के साथ एक दिन भलाई, सच्चाई और ईमानदारी भी विस्मृत हो जाएगी? 

आखिर भारत के सादगी पसंद ईमानदार पूर्व प्रधानमंत्री गुलजारीलाल नंदा की चर्चा कौन करता है ? जिनके कपडे विदेश में धुलते थे, ऐसे नफासती चचा को सब आज भी याद रखते हैं !

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