भारतीय सेना की शेरनियाँ - सेवा निवृत्त मेजर जनरल राज मेहता



युद्ध क्षेत्र में कार्यरत भारतीय सेना की एक महिला चिकित्सक की गाथा, जो कर्तव्य परायणता और साहस की अद्भुत मिसाल है -

जनवरी 2004 की दांत कटकटा देने वाली सर्दी और उत्तरी काश्मीर का आतंकवाद के लिए कुख्यात बारुमुला शहर, जहाँ मैं डिवीजन मुख्यालय का जीओसी (जनरल ऑफिसर कमांडिंग) था। 18 घंटे के भागदौड़ भरे कार्यदिवस के बाद में नींद के आगोश में पहुंचा ही था कि तभी फोन की घंटी ने मुझे जगा दिया । फोन पर ऑपरेटर ने सूचना दी कि अभी अभी "आईईडी विस्फोट हुआ है और चिकित्सा कक्ष से कैप्टिन देविका गुप्ता आपसे बात करना चाहती हैं ... "

कश्मीर हथियारों के साथ ही सोता है और मैं भी कोई अपवाद नहीं था। दो मिनट में वर्दी पहिनकर मैं क्यूआरटी (क्विक रिस्पांस टीम) के साथ झेलम नदी के किनारे जीओसी के बंगले की ओर दौड़ा । चिकित्सा कक्ष भी नजदीक ही था, और जब मैं वहां पहुंचा तब लगभग शान्ति थी । राष्ट्रीय राइफल्स का एक जवान जब रात को गश्त पर था, तब उसका पैर जमीन में छुपे आईईडी पर पड़ा और विस्फोट में उसकी आंतों में गहरी चोट आई | मेडिकल ऑफिसर, कैप्टन देविका गुप्ता के हाथों को कंधे तक ढके दस्ताने खून से सने हुए थे और वे जवान के रक्तस्राव को रोकने के लिए तत्परता से टाँके लगा रही थीं !

मेरे स्टाफ ने तत्परता दिखाते हुए दक्षिण अफ्रीका में बनी हुई एक बख्तरबंद कार कैसाइपर की व्यवस्था की ताकि लेडी डॉक्टर और घायल सैनिक को 60 किलोमीटर दूर श्रीनगर के बेस हॉस्पिटल तक ले जाया जा सके, जोकि उस समय की परिस्थितियों में अत्यंत आवश्यक था ।
कैप्टन देविका ने मुझसे कहा “सर मैंने इसे लगभग 150 टाँके लगाए हैं। इसे तुरंत श्रीनगर में आईसीयू तक पहुंचना है, क्योंकि इसकी साँसें टूट रही है। मुझे उसे मॉनिटर करने और ड्रिप को पकड़ने की ज़रूरत है, अन्यथा यह मर जाएगा । अतः एक बख्तरबंद टेंक नहीं, एक खुली जीप की आवश्यकता है ।

उस समय रात के एक बज रहे थे और बारामूला-पट्टन रोड हमारे काफिले पर आतंकवादी हमलों के लिए कुख्यात था, क्योंकि पतली सी ऊबड़खाबड़ सड़क पहाड़ियों के बीच से निकलती थी, जोकि जहाँ तहां से क्षतिग्रस्त भी थी । मैं जीओसी था और मेरे द्वारा दिए गए किसी भी आदेश के लिए भी नैतिक रूप से जिम्मेदार था। स्वाभाविक ही मुझे हिचकिचाहट हुई | मुझे लगा कि अगर वह कैसाइपर के स्थान पर एम्बुलेंस जिप्सी में जायेगी तो घायल जवान और उसकी खुदकी जिन्दगी खतरे में पड़ेगी, अतः वही मैंने उससे कहा भी । मैंने उससे कहा कि जनरलों को तो समस्याओं से निबटने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है | 

किन्तु उसी समय एक शांत, दृढ, प्रामाणिक आवाज ने मुझे टोका । " एक मिनट रुकिए जनरल सर" | यह कैप्टन देविका की आवाज़ थी, जो उसके पूर्व मैंने नहीं सुनी थी | सेना की उसकी हरी साड़ी पर जगह जगह खून लगा हुआ था, क्योंकि वह सैनिक के पेट में टाँके लगाकर बस उठकर ही आई थी । बैसे तो उसका कद महज पांच फुट था, किन्तु उस समय वह मुझे उसकी ऊंचाई मुझसे भी ज्यादा प्रतीत हुई | वहां उपस्थित सभी 50 सैनिक उसके शांत सौम्य और प्रभावशाली व्यक्तित्व से सम्मोहित प्रतीत हो रहे थे!

वह मेरे पास आई | उसकी आँखों में गुस्सा दिखाई दे रहा था । "सर जीओसी कौन है?"

मैंने उससे पूछा - "क्या आपको कोई संदेह है?" 

उसने कहा, “नहीं, मुझे तो कोई संदेह नहीं है, लेकिन आप मुझे बताईए कि सैनिक का इलाज कौन कर रहा हैं? 

मैं मूर्ख नहीं था, समझ गया, कोई भी समझ जाएगा । 

उसने आगे कहा - "सर, जवान मेरा पेशेंट है। आप हस्तक्षेप करेंगे तो उसकी मृत्यु के ज़िम्मेदार भी आप ही होंगे । मैं उसे खुली जिप्सी में ही ले जाऊंगी, कैसपर में नहीं। अगर मैं मारी जाती हूँ, तो मेरे लिए मेरे पति दुखी होंगे, उसके लिए आपको परेशान होने की जरूरत नहीं है | और महोदय, अगर आप चाहें तो बाद में मेरा कोर्ट मार्शल कर सकते हैं, लेकिन फिलहाल मुझे जाने दो "।

मुझे बाद में ज्ञात हुआ कि उसके पति बेस अस्पताल में एक मेडिकल विशेषज्ञ थे |

मेरे सभी जवान मेरी और हैरत से देख रहे थे और मेरी प्रतिक्रिया का इंतज़ार कर रहे थे | मेरी सेना की सर्विस के 36 वर्ष पूरे हो चुके थे, जबकि इस लड़की के महज 3 वर्ष | किन्तु उस समय मैंने वही किया, जो कोई भी अधिकारी उस युद्ध क्षेत्र में करता | मैंने उसे सेल्यूट किया और कहा - "कैप्टन देविका, मुझे खेद है कि मैंने हस्तक्षेप किया। आप जाईये। भगवान आपके साथ है"। उस अंधेरी रात ने मेरे आँसू छिपाने में मेरी मदद की ।

कहानी यहीं ख़तम नहीं हुई । जिस क्षेत्र को लेकर मैं सबसे अधिक चिंतित था, उसी पट्टन क्षेत्र में रात्री लगभग 2.30 बजे, उसका गोरखा अनुरक्षण वाहन क्षतिग्रस्त हो गया। किन्तु उस बहादुर चिकित्सक ने बिना किसी रक्षण व्यवस्था के उस खुली जिप्सी में 30 किलोमीटर की दूरी तय की। आखिर उसके साथ उसका साहस और भगवान तो थे ही !

आतंक प्रभावित क्षेत्र में कर्तव्य निर्वहन मुख्य है, पद नहीं | मुझे भारी प्रसन्नता हुई जब, दूसरे दिन अपरान्ह 4.30 पर देविका ने मुझे फोन किया और बताया कि घायल जवान अब ठीक है और खतरे से बाहर है | 

तभी मुझे यह भी ज्ञात हुआ कि वह छः माह की गर्भवती है | मैंने अगले ही दिन कोर कमांडर को फोन किया और उसकी दिलेरी की दास्तान सुनाई! तीन दिन बाद, उसे उसकी वीरता और कर्तव्य परायणता के लिए सेना के प्रशस्ति पत्र से सम्मानित किया गया .. एक दुर्लभ सम्मान! तीन महीने बाद इस शेरनी ने एक बच्चे को जन्म दिया, जो निश्चय ही बड़ा होकर अपनी इस महान माँ पर गर्व करेगा । 

मेरे कुछ साथी जब यह कहते हैं कि सेना के लिए महिलायें उपयुक्त नहीं, तो मुझे हैरत होती है, क्योंकि मैं सेना के अपने कार्यकाल में जितनी भी महिलाओं से मिला, उनके साथ बातचीत की, वे सभी वस्तुतः शेरनी ही थीं । 

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