भारत की स्वतंत्रता कांग्रेस की बपौती ? - सतीश चन्द्र मिश्रा



लाला लाजपतराय का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है | अंग्रेजों के क्रूर लाठी चार्ज में जान गंवाने वाले, प्रखर राष्ट्रभक्त लाला लाजपतराय १९२० में कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे थे | किन्तु वे स्वयं कांग्रेस के विषय में क्या विचार रखते थे, यह जानना रोचक भी है और बस्तुपरक भी | यह इसलिए भी आवश्यक प्रतीत होता है कि भारत छोडो आन्दोलन की हीरक जयन्ती के अवसर पर कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी ने देश की आजादी के लिए केवल कांग्रेस को ही श्रेय देने का प्रत्यत्न किया| इतना ही नहीं तो उन्होंने हिन्दुत्ववादी शक्तियों को एक प्रकार से गद्दार ही घोषित करने का कुत्सित प्रयत्न किया |

कांग्रेस की स्थापना के 31 वर्ष पश्चात 1916 में अपनी पुस्तक “युवा भारत” के पृष्ठ क्रमांक 98 पर जो कुछ लिखा, वह आज के कांग्रेसियों के लिए विचार करने योग्य है | लाला लाजपतराय के उक्त आलेख का शीर्षक है – कांग्रेस की स्थापना साम्राज्य हितों के लिए थी | इतना ही नहीं वे आलेख के उप शीर्षक में लिखते हैं – 

यह तो स्पष्ट है कि उस समय कांग्रेस की स्थापना आने वाले खतरों से ब्रिटिश राज को बचाने के लिए ही की गई थी, न कि भारत को स्वतंत्रता दिलाने के लिए | उस समय ब्रिटिश राज्य की सुरक्षा का सवाल ही मुख्य था और भारत के हित गौण थे | इससे भी कोई इनकार नहीं करगा कि, कांग्रेस अपने उस समय के आदर्श के अनुकूल ही चलती रही | यह कथन नितांत न्यायुक्त तथा तर्क संगत है कि कांग्रेस के संस्थापक यह मानते थे कि भारत में ब्रिटिश शासन का चलते रहना अत्यंत आवश्यक है, और इसलिए उनकी चेष्टा थी कि यथाशक्ति किसी भी संभावित विपत्ति से ब्रिटिश शासन की न केवल रक्षा की जाए, बल्कि उसे और अधिक मजबूत बनाया जाए | उनकी दृष्टि में देशवासियों की राजनैतिक मांगों की पूर्ति तथा भारत की राजनैतिक प्रगति गौण थी | 

लाला लाजपत राय यहाँ ही नहीं रुके, बल्कि उन्होंने तत्कालीन कांग्रेस के नेताओं को भी आईना दिखाया | इसी पुस्तक के पृष्ठ क्रमांक १५४ पर “कांग्रेस के नेता” शीर्षक से उन्होंने लिखा –

कांग्रेस के अनेक नेता सच्चे देशभक्त हैं, किन्तु उन्हें ऐशोआराम तथा शांत जीवन से इतना प्रेम है कि वे अशांत परिस्थितियों, उपद्रवों तथा भयानक विपत्तियों का सामना करने में अपने को असमर्थ पाते हैं | यही कारण है कि उग्रवादियों के तरीकों के प्रति उनमें विरक्ति का भाव है तथा वे आम लोगों तक अपना प्रचार कार्य भी नहीं कर पाते | वे बहुत धीमे चलते हैं | यह भी सत्य है कि इनमें कई लोग कायर हैं | कुछ ऐसे हैं, जो स्वार्थ सिद्धि में लगे रहते हैं | उन्हें जजों के पदों पर नियुक्त होने की ख्वाहिस रहती है, वे कोंसिलों के सदस्य बनना चाहते हैं, सर या राय बहादुर का खिताब पाना चाहते हैं, किन्तु हम ऐसे लोगों को राष्ट्रवादी नहीं मानते | यह भी सत्य है कि कोई भी राजनैतिक पार्टी ऐसे लोगों से अछूती नहीं रहती | कुछ कांग्रेसी आचरण में उदारपंथी हैं, किन्तु विचारों में गरमदली है | उनमें साहस की इतनी कमी है कि वे स्वयं को उग्रदल वालों की पंक्ति में नहीं बिठा पाते, उसी प्रकार स्वयं को कांग्रेसी कहने वाले ऐसे लोग भी हैं जो पक्के राजभक्त हैं तथा सदा अपने हितों की वृद्धि के लिए चिंतित रहते हैं | 

किन्तु सबसे ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि, कांग्रेस के नेताओं को स्वार्थी और कायर मानने वाले लाला लाजपतराय “विनायक दामोदर सावरकर” जी के विषय में क्या लिखते हैं | अपनी पुस्तक के पृष्ठ १५७ पर ही “विनायक दामोदर सावरकर” उपशीर्षक से उन्होंने लिखा –

यहाँ एक अन्य राष्ट्रवादी का उल्लेख करेंगे, जिसका इंग्लेंड में रहते समय नौजवानों पर बहुत प्रभाव था और जो आजकल अंडमान में आजीवन कैद की सजा भोग रहा है | मेरा आशय विनायक दामोदर सावरकर से है | सादा जीवन बिताने की दृष्टि से वह अरविंद घोष तथा हरदयाल की श्रेणी में आता है | जीवन की पवित्रता के विचार से भी वह उपर्युक्त दोनों के समान है | जहाँ तक राजनीति का सम्बन्ध है, वह प्रथम वर्ग है, किन्तु उसमें इन लोगों जैसा धार्मिक जोश नहीं है | साधारण तौर पर विचार करें तो वह हरदयाल के तुल्य है, किन्तु हरदयाल ने राजनीति से तटस्थ रहने वालों की जैसी आलोचना की, वैसी सावरकर ने नहीं की | सावरकर में नेतृत्व के सर्वोच्च गुण हैं | वह पकड़ा तो इसलिए गया था, क्योंकि वह स्वयं के प्रति लापरवाह था | उसने अपनी व्यक्तिगत सुरक्षा की कभी चिंता नहीं की | उसमें पुराने योद्धाओं की सी आक्रामकता है, जो खतरे के समय सदा आगे रहता है |

अब इसे अज्ञान कहा जाए या दुर्बुद्धि कि जिन सावरकर के विषय में लाला लाजपतराय जैसे महापुरुष इतने सम्मानजनक विचार रखते थे, उनके देहावसान पर कांग्रेस नेताओं ने संसद में उन्हें श्रद्धांजलि भी अर्पित करने नहीं दी | यह असहिष्णुता की पराकाष्ठा थी | और आज भी कांग्रेस अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी हिन्दुत्ववादी शक्तियों को आजादी की लड़ाई का गद्दार घोषित करने का प्रयास करती रहती हैं | 

यह तो हुई लाला लाजपतराय की बात, अब देखते हैं कि जिस ब्रिटिश प्रधानमंत्री के कार्यकाल में भारत को आजादी देने का निर्णय हुआ, वह क्लीमेंट एटली इसका श्रेय किसे देता है | १९५६ में श्री एटली भारत आये थे, उस समय उनके साथ कलकत्ता के राजभवन में तत्कालीन गवर्नर पीवी चक्रवर्ती की चर्चा हुई, बाद में ३० मार्च १९७६ को श्री चक्रवर्ती ने उनके साथ हुई चर्चा को एक लेख के माध्यम से इस प्रकार सार्वजनिक किया –

अपनी भारत यात्रा के दौरान कलकत्ता के राजभवन में राजकीय अतिथि के रूप में रुके क्लीमेंट एटली ने भारतीय स्वतंत्रता के सन्दर्भ में मुझसे कहा था कि, १९४७ में जिस समय भारत को स्वतंत्रता मिली, उस समय गांधी का भारत छोडो आन्दोलन पूरी तरह मर चुका था और उसकी कोई ऐसी प्रासंगिकता या भूमिका नहीं रह गई थी, जिसने अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर मजबूर किया हो | इसके बजाय नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की आजादहिंद फ़ौज की गतिविधियों / कार्यवाहियों ने भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ों को बुरी तरह हिला दिया था | तत्कालीन भारतीय नौसेना के बगावती तेवरों ने ब्रिटिश शासकों को यह अहसास करा दिया था कि अब उनके दिन पूरे हो चुके हैं |

अब सवाल उठता है कि क्या क्लीमेंट एटली और पीवी चक्रवर्ती भी क्या आरएसएस के एजेंट थे ?

सोनिया गांधी या किसी भी कांग्रेस नेता ने 9 अगस्त को संसद में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का नाम भी लेना क्यों उचित नहीं समझा ? 

किसी ने नेताजी सुभाष या बगावती नौसैनिकों के लिए एक शब्द भी नहीं बोला |

एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें