दशहरे का विरोध: राष्ट्रघाती शक्तियों की नई चाल - प्रवीण गुगनानी



प्रसिद्ध साहित्यकार हजारी प्रसाद द्विवेदी ने एक प्रख्यात निबंध लिखा है – “नाखून क्यों बढ़ते हैं” | प्रस्तुत संदर्भ में यह निबंध नितांत प्रासंगिक है | वस्तुतः नाखून हमारी बर्बरता, बुराई व दुर्गुणों का प्रतीक हैं जिनका समय समय पर बढ़ना मानवीय प्रक्रिया है और इन दुर्गुणों का नाश अर्थात नाखून काट लेना ही हममे सद्गुणों का प्रवाह बनाये रखता है | वर्तमान में गोंड जाति को रावण का वंशज बताने वाले लोग वस्तुतः कुछ और नहीं बल्कि इस समाज रुपी शरीर पर बढ़ आये नाखून हैं जिन्हें समय रहते काट देनें में ही तन की अर्थात देश-समाज की सुरक्षा है | 

इन दिनों देश के जनजातीय बहुल क्षेत्रों में दशहरे पर रावण का पुतला जलाने के तथाकथित विरोध का दौर चल रहा है | कुछ मुट्ठी भर राजनैतिक लोग जो इस देश के समाज, संस्कृति व परम्पराओं में निहित परस्पर सद्भाव व आदर की भावना को नष्ट कर पहले समाज को और फिर देश को तोड़ने का स्वप्न देख रहे हैं वे इस अभियान को चला रहे हैं | 

विभिन्न जिलों में “रावण का पुतला जलाने का विरोध” करने वाले ये दस-पच्चीस लोग उस समय तो दिखाई नहीं देते हैं जब जनजातीय समाज को जबरन, बहला कर, फुसलाकर, लालच से या उसकी अशिक्षा का लाभ उठाकर उसका धर्मांतरण कर उसे उसकी समस्त परम्पराओं से व गौरवशाली इतिहास से तोड़ दिया जाता है | ये मुट्ठी भर लोग तब भी कभी नहीं दिखें जब हजारों की संख्या में भोली-भाली जनजातीय कन्याओं को बहला-फुसलाकर उनकी मानव तस्करी होती है व उन्हें आजीवन कुचक्र में धकेल दिया जाता है | जनजातीय समाज की अवसरवादी राजनीति करने वाले ये लोग तब भी कहीं नहीं दिखते हैं जब विभिन्न वनांचलों में इनकी अशिक्षा का लाभ उठाकर उनकी धार्मिक परम्पराओं में चर्च प्रेरित लोग अपनी मान्यताओं को घुसाने का प्रयास करते हैं | 

आज जो रावण को जनजातीय समाज का आराध्य बता रहें हैं, वस्तुतः वे न तो जनजातियों के हितचिन्तक हैं और न ही वे जनजातीय समाज के इतिहास को जानते हैं, वे तो विदेशी शक्तियों के मोहरे मात्र हैं | देश भर के विभिन्न वनांचलों में अपने कथित एनजीओ के माध्यम से देश की सरकार से हजारों करोड़ की फंडिंग कराकर और इस राशि से जनजातीय समाज को उनके ही देश, परम्पराओ, रीति-रस्मों से तोड़ने वाले लोगों का ही यह नया वितंडा है कि आदिवासी रावण के वंशज हैं | वस्तुतः जनजातीय समाज का रावण से कभी कोई सीधा सम्बन्ध नहीं रहा | 

कई स्थानों पर रावण को ब्राहमण, विद्वान्, शास्त्री व वेदज्ञ आदि मानकर उसे सम्माननीय दृष्टि से देखा भी जाता है, तब भी रावण को अहंकार व बुराई का प्रतीक तो माना ही जाता है | हिंदू समाज की इस विकसित, सापेक्षिक व मनीषी दृष्टि का ही परिणाम है कि हजारों स्थानों पर रावण दहन के पूर्व उसका पूजन भी अनिवार्य रूप से किया जाता है | इस प्रकार रावण के प्रकांड पंडित स्वरूप को जितना सम्पूर्ण हिंदू समाज ने स्वीकार किया उतना ही हिंदू समाज के गौरवशाली अंग जनजातीय समाज ने भी स्वीकार किया | वर्तमान में हमारे समाज द्वारा रावण की विद्वता की स्वीकारोक्ति व उसके राक्षसत्व की भर्त्सना के मध्य की महीन रेखा का लाभ समाज विभाजक तत्व उठा रहे हैं व रावण को जनजातीय समाज का पूर्वज व आराध्य बता रहे हैं | 

जनजातीय समाज के कितने ही वीर-वीरांगनाओं ने हिंदू समाज के सम्पूर्ण विकास के लिए अथवा इस पर समय समय पर आये संकटों हेतु अपने राज्य, धन, प्राण सभी कुछ त्यागे हैं | रानी दुर्गावती से लेकर टंट्या भील, बिरसा मुंडा, शहीद साबुलाल, शहीद गुलाबसिंह, महादेव तेली, तिलका मांझी, बुद्धू भगत, सरदार विष्णु सिंह गोंड आदि कितने ही ज्ञात अज्ञात नाम हैं जिन्होंने अपने प्राण सम्पूर्ण हिंदू समाज की एकता व रक्षा हेतु न्योछावर किये हैं | किन्तु आज हिंदू समाज के इस अविभाज्य भाग को हिंदुओं के प्रति ही विरोधी बनाने हेतु योजनाबद्ध काम चल रहा है | 

रावण के पुतले को जलाने का तथाकथित जनजातीय समाज का विरोध और कुछ नहीं बल्कि हिंदू समाज को परस्पर दो फाड़ करने का एक दुष्प्रयास और कुचक्र मात्र है | इस देश का जनजातीय समाज हजारों शताब्दियों से स्वयं को हिंदू समाज का अभिन्न अंग मान कर भगवान् शिव को पूजता आया है | भगवान् शिव के पूजन की कई रीतियों, परम्पराओं व विधियों को शेष हिंदू समाज ने आदरपूर्वक ग्रहण किया है व उन्हें अपने वेदों, ग्रंथों व धार्मिक साहित्य में लिपिबद्ध कर स्वीकार्यता की मोहर लगाई है | ठीक इसी प्रकार जनजातीय समाज ने भी बड़ा देव अर्थात शिवशंकर के पूजन की कई अन्य हिंदू समाजों की पूजन विधियों को उदार ह्रदय से स्वीकारा है व उसे पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ा रहें हैं | वस्तुतः वृहद हिंदू समाज में जनजातीयों के पूज्य बड़ा पेन अर्थात बड़ा देव अर्थात भगवान् शिव की पूजन विधियों का सुंदर सम्मिश्रण कोई एक पीढ़ी में नहीं हुआ | हजारों वर्षों में परस्पर प्रेम, सामंजस्य व समविचार की अवधारणा के फलस्वरूप आज हम इस स्वरूप को प्राप्त कर पायें हैं |

पिछले एक हजार वर्षों के इतिहास को यदि हम देखें तो हमें यह स्पष्ट दिख जाएगा कि इस्लाम और चर्च ने हमारी एकता की अंतर्शक्ति को चोटिल करने के हजारों प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रयास किये हैं | वस्तुतः विभिन्न विरोधाभासी परम्परायें होते हुए भी समाज का एक सुर में चलना विदेशियों व राष्ट्रघाती तत्वों को सदा से खटकता आया है | भारत को खंड खंड करने का स्वप्न संजोये इन्हीं तत्वों का नया प्रपंच है - “रावण का पुतला मत जलाओ” | यह उनके राष्ट्रविरोधी अभियान का ही एक अंश मात्र है | 

ध्यान देने योग्य तथ्य है कि वर्ष 158 से 1789 तक सतत गोंडवाना पर गोंड राजाओं का राज रहा है | इस गोंडवाना में व अन्य गोंड, कोरकू, भील आदि जनजातीय क्षेत्रों में जहां कि जनजातीय राजाओं का भी राज्य स्थापित रहा है तथा उन्होंने अपने अनेक मठ, मंदिर किले बनवाए हैं जहां शिव-पार्वती, राम-सिया, राधा-कृष्ण, हनुमान, माँ दुर्गा भवानी अपने विभिन्न रूपों में विराजित हैं | किन्तु रावण की उपस्थिति इन मंदिरों में कहीं भी देखने को नहीं मिलती है | दक्षिण के जिन राज्यों के मंदिरों में रावण की उपस्थिति देखने को मिलती भी है, वहां भी रावण को अहंकार के प्रतीक के रूप में मंदिर के बाहरी हिस्से में उसी स्वरूप में रखा जाता है जिस स्वरूप में रावण हिंदू आख्यानों में उल्लेखित है अर्थात राक्षसी रूप में | यह सिद्ध तथ्य है कि किसी भी जनजातीय समाज या अन्य समाज द्वारा स्थापित मंदिर में रावण को देव स्वरूप में स्थापित नहीं किया गया है | इस प्रकार के स्थापत्य, एतिहासिक व सिद्ध प्रमाणों के बाद भी जनजातीय समाज को रावण का वंशज कहा जाना वस्तुतः उसका अपमान है | 

एतिहासिक तथ्य है कि गोंडवाना पर राज करने वाले राजा यदुराय से राजा सुमेद्साही तक के 63 वीर पराक्रमी राजाओं व उनके बाद के 1857 में शहीद हुए राजा शंकर शाह, कुंवर रघुनाथ शाह तक किसी भी राजा का नाम राक्षस वंश से नहीं जुडा है | तब इन इतिहास के अज्ञानी किंतु राजनीति व अवसरवाद के चतुर खिलाड़ी, गोंडो को रावण का वंशज क्यों बता रहे हैं, उसकी अंतर्भावना सहज समझी जा सकती?

जरा गौर कीजिए गोंड राजाओं के नामों पर - गोंडवाना के प्रथम राजा यदुराय(यादव राय) तथा उसके बाद माधव सिंह,जगन्नाथ, रघुनाथ, रुद्रसिंह,बिहारी सिंह, नरसिंह देव, सूर्यभानु, वासुदेव, गोपाल साहि, भूपाल साहि, गोपीनाथ, रामचंद्र, सुरतान सिंह, हरिहर देव, कृष्ण देव, जगत सिंह, महासिंह, दुर्जन मल्ल, यश कर्ण, प्रतापादित्य,यश चंद्र, मनोहर सिंह, गोविंद सिंह, रामचन्द्र, कर्ण, रत्नसेन, कमल नयन, नरहरिदेव, वीर सिंह, त्रिभुवनराय,पृथ्वी राय, भारतीय चंद्र, मदन सिंह, उग्रसेन, रामसाहि, तारा चंद्र, उदय सिंह, भानुमित्र, भावनी दास, शिव सिंह, हरि नारायण, सबल सिंह, राय सिंह, दादी राय, गोरक्ष दास, अर्जुन सिंह, संग्राम साहि, दलपति साहि, वीर नारायण, चंद्र साहि, मधुकर साहि, प्रेम नारायण, हिरदैसाहि, छत्रसाहि, केसरीसाहि, नरेंद्र साहि, महाराज साहि,शिवराज साहि, दुर्जन साहि,निजाम साहि,नरहर साहि से लेकर सुमेद साहि तक क्या किसी का भी नाम रावण या उसके अन्य परिजनों पर रखा गया ? 

विस्तृत, गौरवशाली व भारतप्रेमी इतिहास रहा है गोंड राजाओं का | इस गौरवशाली इतिहास को रावण से जोड़ने का कुत्सित प्रयास करने वाले केवल यह चाहते हैं कि इस देश के जनजातीय हिंदू समाज में शेष हिंदू समाज से अलग-विलग होनें का भाव विकसित हो जाए, ताकि इस देश के टुकड़े टुकड़े करने का वामपंथियों, नक्सलियों का विदेशी स्वप्न पूर्ण हो सकें |

दशहरा सम्पूर्ण भारत में उत्साह और धार्मिक निष्ठा के साथ मनाया जाता है | इस दिन भगवान राम ने आसुरी शक्तियों के प्रतीक राक्षस रावण का वध बुराई पर अच्छाई की विजय के प्रतीक की स्थापना की थी | राम-रावण युद्ध में, रावण की मृत्यु अष्टमी-नवमी के संधिकाल में हुई थी और उसका दाह संस्कार अश्विन शुक्ल की दशमी तिथि को किये जाने की परम्परा इस देश में हजारों वर्षों से सम्पूर्ण देश में चलती आ रही है | इस देश का जनजातीय हिंदू समाज हो या नगरीय हिंदू समाज सदा से इस दशहरे के पर्व को हर्ष और उल्लास से मनाता आया है | इस दिन मनुष्य को अपने अंदर व्याप्त पाप, लोभ, मद, क्रोध, आलस्य, चोरी, अंहकार, काम, हिंसा, मोह आदि दुर्भावनाओं को समाप्त करने की प्रेरणा मिलती है | अहंकार विनाश का कारण होता है यह संदेश देता दशहरे का यह पर्व इन दिनों विघ्नसंतोषियों के निशाने पर है, जिसे इस देश का सामंजस्य शाली समाज कभी स्वीकार नहीं करेगा व सदा की भांति राष्ट्रविरोधी तत्वों को मूंह की खानी पड़ेगी | यही विश्वास, आस्था व मान्यता आज इस दिन प्रकट की जानी चाहिए और यही होने भी वाला है |

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