दीक्षांत नहीं है कन्वोकेशन - संजय तिवारी

कन्वोकेशन शब्द की उत्पत्ति लैटिन शब्द कन्वोकेयर से हुई है। कन्वोकेयर का अर्थ होता है-बुलाना या साथ आना। ग्रीक में कन्वोकेशन का प्रयोग शैक्षिक एवं सांस्कृतिक जुटान के समय किया जाता रहा है। कन्वोकेशन शब्द कहीं से भी दीक्षान्त का पर्यायवाची नहीं है।

छठवीं सातवीं शताब्दी में कैन्टरवरी के आर्क विषक के समय अंग्रेजी चर्च में पहली बार कन्वोकेशन शब्द का इस्तेमाल किया गया था। सन् ७३३ में जब कैन्टरवरी से अलग होकर यार्क एक अलग राज्य बना तब कन्वोकेशन का प्रयोग हुआ था। सन् १२२५ में कैथेड्रल और मोनैस्टिक चर्च के बीच जब विभाजन हुआ तब कन्वोकेशन का प्रयोग हुआ और पहली बार १२८५ में कन्वोकेशन की सदस्यता की शुरूआत हुई। जो १९२१ तक चलती रही है। कन्वोकेशन वस्तुत: चर्च के संचालन की अपनी व्यवस्था रही है जिसमें डीन, आर्कडीकॉन जैसे प्रतिनिधि शामिल होते रहे हैं। १५वीं शताब्दी में कन्वोकेशन दो अध्यायों में विभाजित हुआ। जिसमें उच्च सदन को बिसप कहा गया और निम्न सदन को शेष सदस्यों के लिए छोड़ दिया गया। १९२१ में चुने हुए प्रतिनिधियों को प्रॉक्टर का पद दिया गया। इस प्रकार कन्वोकेशन केवल चर्च की व्यावस्थपिका के रूप में एक संवैधानिक शब्द बनकर स्थापित था। बाद के दिनों में इसकी उपयोगिता चर्च और इससे जुड़े सभी संस्थाओं में होने लगी। विश्वविद्यालयों में यह सबसे पहले ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की मुख्य संचालक संस्था के रूप में सामने आया। स्कॉटिश विश्वविद्यालय में यह विश्वविद्यालय की जनरल काउंसिल का नाम था। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय ने कन्वोकेशन जरिए विश्वविद्यालय के चांसलर और प्रोफेसर ऑफ पोयट्री (काव्य शास्त्र के आचार्य) की नियुक्ति चयन के जरिए होती थी। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में भी कन्वोकेशन सीनेट के रूप में विद्यमान था। ऑक्सफोर्ड में १८३५ में तीन संकायों के लिए कन्वोकेशन की स्थापना की गई थी। इस प्रकार लंदन विश्वविद्यालय, शिकागो विश्वविद्यालय, इलियनियस विश्वविद्यालय के अलावा कनाडा और भारत में कन्वोकेशन की स्थानाएं होने लगीं और बहुत बाद दिनों में इसे डिग्री प्रदाता समारोह के रूप में कई विश्वविद्यालयों ने अपना लिया।

यह स्पष्ट है कि कन्वोकेशन और दीक्षान्त दोनों दो अलग-अलग शब्द हैं जिनके अलग-अलग अर्थ और प्रभाव हैं। कन्वोकेशन विशुद्ध चर्च की अपनी व्यवस्था है, जबकि दीक्षान्त अतिप्राचीन भारतीय संस्कारों में शामिल है। दीक्षान्त का अर्थ होता है दीक्षा की समाप्ति। इसका अतिप्राचीन इतिहास है। वस्तुत: तैत्तिरीय उपनिषद में दीक्षान्त का उल्लेख व्यापक रूप में मिलता है। यह भारतीय सनातन संस्कारों में उपनयन संस्कार के बाद और पाणिग्रहण संस्कार से पूर्व का अतिमहत्वपूर्ण समय होता है। यज्ञोपवीत के उपरान्त सनातन परम्परा में बालक को किसी न किसी गुरूकुल में प्रवेश के लिए भेजा जाता था। जिस आचार्य कुल में उसका प्रवेश होता था उसी आचार्य कुल से उसकी पहचान होती थी।

वह आचार्य कुल ही उस बालक को शिक्षित करता था। बालक के अभिभावक से बालक को दीक्षा देकर वह प्राप्त करता था और शिक्षा के समापन पर उसे गृहस्थ अथवा सामाजिक जीवन में प्रवेश से पूर्व उस दीक्षा का स्वयं उपदेश देकर समापन कर देता था। आचार्य का उपदेश ही दीक्षान्त उपदेश कहा जाता है। आज विश्वविद्यालयों में जिस तरह से दीक्षान्त समारोह आयोजित हो रहे हैं उनका वास्तविक दीक्षान्त से कोई संबंध नहीं है।

वास्तव में यूनिवर्सिटी और विश्वविद्यालय जैसे शब्दों में भी इसी प्रकार का अंतर है। यह दोनों शब्द भी एक दूसरे के पर्यायवाची नहीं हैं। यूनिवर्सिटी किसी ऐसी संस्था को कहा जाता है जिसका चरित्र वैश्विक हो। (यूनिवर्सल कैरेक्टर)। जबकि विश्वविद्यालय वह परिसर है जहां विश्व की सभी विद्याओं का केन्द्र होता है। वे विद्याएं वहां निवास करती हैं। यह केवल किसी अध्ययन केन्द्र का नाम नहीं है। विश्वविद्यालय विश्व की समस्त विद्याओं का आलय अर्थात आवास है। इस प्रकार यूनिवर्सिटी और विश्वविद्यालय में भी जमीन-आसमान का फर्क है।

भारत के समस्त गुरूकुल अपने-अपने विषय के विश्वविद्यालय होते थे और उनके आचार्य को कुलपति कहा जाता था। वह समस्त विद्या कुल उसी के चिंतन और निर्देशन में संचालित होता था। विश्वविद्यालयों में आजकल जिस प्रकार से पदों का निर्धारण है वह भी चर्च की ही व्यवस्था है। चांसलर, वाइसचांसलर, प्रोवाइस चांसलर, डीन जैसे शब्द और पद छठवीं शताब्दी से ही चर्चों में प्रयुक्त होते रहे हैं। इन शब्दों का किसी शिक्षा परिसर से कोई मतलब नहीं है। यह दुर्भाग्य है कि भारत की आजादी के बाद कम से कम अपनी शिक्षा प्रणाली और अपने परिसरों के लिए अपनी सनातन परम्परा से शब्दों को शामिल किया जाना चाहिए था, जो अब तक नहीं हो सका है। पश्चिम के विश्वविद्यालयों में जिस प्रकार कन्वोकेशन के कपड़े पहने जाते हैं वह चर्च के कन्वोकेशन की परम्परा है। उसे भारत ने अंग्रेजों ने उसी रूप में लागू कर दिया था और भारत के विश्वविद्यालय उसी रूप में उसे ढोते चले आ रहे हैं। अब विश्वविद्यालयों के दीक्षान्त समारोहों में उन वस्त्रों का निषेध कर भारतीय वस्त्र अपनाये जाने की व्यवस्था कहीं-कहीं दिख रही है।

भारत में आचार्य कुलों में दीक्षान्त की अत्यंत कठिन और पवित्र परम्परा रही है। इस पूरी परम्परा को समझने के लिए पहले यह जान लेना आवश्यक है कि भारतीय परम्परा में किसी भी व्यक्ति की पहचान के लिए तीन प्रश्र किये जाते थे-आपका नाम क्या है? आपके कुल का नाम क्या है? और आपका आचार्य कुल क्या है? अर्थात जिस आचार्य कुल से दीक्षोपदेश लेकर स्नातक समाज में आता था वह आचार्य कुल ही आजीवन उसकी पहचान रहता था। इसी महत्ता इस बात से समझी जा सकती है कि दीक्षा के समय लिये गये संकल्प, प्रतीज्ञा और आचार्य द्वारा दिये गये दीक्षोपदेश को वह आजीवन अपना आधार मानकर ही कार्य करता था।

एक ही आचार्य कुल में शिक्षाग्रहण कर दीक्षोपरान्त एक बालक यदि किसी राजा का होता था तो वह राजकुमार के रूप में स्थापित होता था और यदि किसी आचार्य का बालक होता था तो अपने पिता के कुल में वापस लौटकर अपने लिए नये आचार्य कुल की स्थापना करता था। दोनों को समान शिक्षा मिलती थी, समान उपदेश मिलते थे और दोनों समान रूप से उसका पालन भी करते थे। वास्तव में दीक्षान्त शब्द किसी गुरूकुल में बालक के प्रवेश के समापन से जुड़ा हुआ है।

सनातन संस्कार

शुद्धिकरण अर्थात् मन, वाणी और शरीर का सुधार। मनुष्य की सारी प्रवृतियों का संप्रेरक मन में पलने वाला संस्कार होता है।व्यक्ति के चरित्र निर्माण में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका है।ये सामाजिक-धार्मिक कृत्य किसी व्यक्ति को अपने समुदाय का पूर्ण रुप से योग्य सदस्य बनाने के उद्देश्य से उसके शरीर, मन और मस्तिष्क को पवित्र करने के साथ-साथ व्यक्ति में अभीष्ट गुणों को जन्म देना है।मनु और याज्ञवल्क्य के अनुसार संस्कारों से द्विजों के गर्भ और बीज के दोषादि की शुद्धि होती है। कुमारिल के अनुसार मनुष्य दो प्रकार से समाज के योग्य-उपयुक्त बनता है: (1) पूर्व जन्म के कर्म के दोषों को दूर करने से और (2) इस जन्म में नए सत् गुणों के विकास से।

प्रत्येक संस्कार से पूर्व होम किया जाता है। जिस गृह्यसूत्र का अनुकरण किया जाता है उसी के अनुसार आहुतियों की संख्या, हव्यपदार्थों और मंत्रों के प्रयोग में अलग-अलग परिवारों में भिन्नता होती है।संस्कारों के द्वारा मनुष्य अपनी सहज प्रवृतियों का पूर्ण विकास करके अपना और समाज दोनों का कल्याण होता है। संस्कार केवल वर्तमान ही नहीं अपितु अगले जन्मों-पारलौकिक जीवन को भी पवित्र बनाते हैं।

ऋग्वेद के कुछ सूक्तों में विवाह, गर्भाधान और अंत्येष्टि से संबंधित कुछ धार्मिक कृत्यों का वर्णन मिलता है।यजुर्वेद में केवल श्रौत यज्ञों का उल्लेख है। अथर्ववेद में विवाह, अंत्येष्टि और गर्भाधान संस्कारों का विस्तृत वर्णन है। गोपथ और शतपथ ब्राह्मणों में उपनयन गोदान संस्कारों के धार्मिक कृत्यों का उल्लेख है।

तैत्तिरीय उपनिषद् में शिक्षा समाप्ति पर आचार्य की दीक्षांत शिक्षा का वर्णन है।गृहसूत्रों में संस्कारों की पूरी पद्धति का वर्णन मिलता है। गृह्यसूत्रों में संस्कारों के वर्णन में सबसे पहले विवाह संस्कार सहित गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोन्नयन, जात-कर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्न-प्राशन, चूड़ा-कर्म, उपनयन और समावर्तन संस्कारों का वर्णन किया गया है। अंत्येष्टि संस्कार का वर्णन अशुभ होने के कारण नहीं है। स्मृतियों के आचार प्रकरणों में संस्कारों का उल्लेख है और तत्संबंधी नियम दिए गए हैं। इनमें उपनयन और विवाह संस्कारों का वर्णन विस्तार के साथ दिया गया है, क्योंकि उपनयन संस्कार के द्वारा व्यक्ति ब्रह्मचर्य आश्रम में और विवाह संस्कार के द्वारा गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता था। वैखानस स्मृति सूत्र में शरीर संबंधी संस्कारों और यज्ञों का उल्लेख है।

मनु और याज्ञवल्क्य के अनुसार संस्कारों से द्विजों के गर्भ और बीज के दोषादि की शुद्धि होती है। कुमारिल के अनुसार मनुष्य दो प्रकार से योग्य बनता है :- पूर्व कर्म के दोषों को दूर करने से और नए गुणों के सृजन से। संस्कार ये दोनों ही काम करते हैं।

गौतम धर्मसूत्र में संस्कारों की संख्या चालीस हैं:-

(1). गर्भाधान, (2). पुंसवन, (3). सीमंतोन्नयन, (4). जातकर्म, (5). नामकरण, (6). अन्न प्राशन, (7). चौल, (8). उपनयन, (9-12). वेदों के चार व्रत, (13). स्नान, (14). विवाह, (15-19). पंच दैनिक महायज्ञ, (20-26). सात पाकयज्ञ, (27-33). सात हविर्यज्ञ, (34-40). सात सोमयज्ञ। अधिकतर धर्मशास्रों ने वेदों के चार व्रतों, पंच दैनिक महायज्ञों, सात पाकयज्ञों, सात हविर्यज्ञों और सात सोमयज्ञों का वर्णन संस्कारों में नहीं किया है।

मनु के अनुसार :- गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, उपनयन, केशांत, समावर्तन, विवाह और श्मशान, इन तेरह संस्कारों का उल्लेख किया है।

याज्ञवल्क्य ने भी इन्हीं संस्कारों का वर्णन किया है। केवल केशांत का वर्णन उसमें नहीं मिलता है, क्योंकि इस काल तक वैदिक ग्रंथों के अध्ययन का प्रचलन बंद हो गया था।

सोलह संस्कार :- गौतम स्मृति में चालीस प्रकार के संस्कारों का उल्लेख है। महर्षि अंगिरा ने इनका अंतर्भाव पच्चीस संस्कारों में किया। व्यास स्मृति में सोलह संस्कारों का वर्णन हुआ है। धर्म शास्त्रों में भी मुख्य रूप से सोलह संस्कारों की व्याख्या की गई है।

(1). गर्भाधान :- प्रथम कर्त्तव्य के रूप में इस संस्कार को मान्यता दी गई है। जीवन का प्रमुख उद्देश्य श्रेष्ठ सन्तानोत्पत्ति है। उत्तम संतति की इच्छा रखनेवाले माता-पिता को गर्भाधान से पूर्व अपने तन और मन की पवित्रता के लिये यह संस्कार करना चाहिए।

निषेकाद बैजिकं चैनो गार्भिकं चापमृज्यते। क्षेत्रसंस्कारसिद्धिश्च गर्भाधानफलं स्मृतम्॥

विधिपूर्वक संस्कार से युक्त गर्भाधान से अच्छी और सुयोग्य संतान उत्पन्न होती है। इस संस्कार से वीर्यसंबधी पाप का नाश होता है, दोष का मार्जन तथा क्षेत्र का संस्कार होता है। यही गर्भाधान-संस्कार का फल है।

गर्भाधान के समय स्त्री-पुरुष जिस भाव से भावित होते हैं, उसका प्रभाव उनके रज-वीर्य में भी पड़ता है। अतः उस रज-वीर्यजन्य संतान में माता-पिता के वे भाव स्वतः ही प्रकट हो जाते है। 

आहाराचारचेष्टाभिर्यादृशोभि: समन्वितौ। स्त्रीपुंसौ समुपेयातां तयोः पुतोडपि तादृशः॥

स्त्री और पुरुष जैसे आहार-व्यवहार तथा चेष्टा से संयुक्त होकर परस्पर समागम करते हैं, उनका पुत्र भी वैसे ही स्वभाव का होता है।

सन्तानार्थी पुरुष ऋतुकाल में ही स्त्री का समागम करे, पर-स्त्री का सदा त्याग रखे। स्त्रियों का स्वाभाविक ऋतुकाल रजो-दर्शन से 16 रात्रि पर्यन्त है। इसमे प्रथम चार रात्रियों में तो स्त्री-पुरुष सम्बन्ध होना ही नहीं चाहिए, ऐसा समागम व्यर्थ ही नहीं होता अपितु महा रोग कारक भी है। इसी प्रकार 11 वीं और तेरहवी रात्रि भी गर्भाधान के लिए वर्जित है। शेष दस रात्रियां ठीक है। इनमें भी जो पूर्णमासी, अमावस्या, चदुर्दशी व अष्टमी (पर्व) रात्रि हो उसमें भी स्त्री-समागम से बचा रहे। छ्ठी, आठवी दशवी, बारहवी, चौदहवी और सोलहवी ये छः रात्रि पुत्र चाहने वाले के लिए तथा पाचंवी, सातवीं, नवीं और पन्द्रहवीं-ये चार रात्रियां कन्या की इच्छा से किये गये गर्भाधान के लिए उत्तम मानी गई है।

ऋतुस्नान के बाद स्त्री जिस प्रकार के पुरुष का दर्शन करती है, वैसा ही पुत्र उत्पन्न होता है। अतः जो स्त्री चाहती है कि मेरे पति के समान गुण वाला या अभिमन्यु जैसा वीर, ध्रुव जैसा भक्त, जनक जैसा आत्मज्ञानी, कर्ण जैसा दानी पुत्र हो, तो उसे चाहिए की ऋतुकाल के चौथे दिन स्नान आदि से पवित्र होकर अपने आदर्श रुप इन महापुरुषों के चित्रों का दर्शन तथा सात्त्विक भावों से उनका चिंतन करें और इसी सात्त्विकभावों में योग्य रात्रि को गर्भाधान करावे। रात्रि के तृतीय प्रहर (12 से 3 बजे) की संतान हरिभक्त और धर्मपरायण होती है।

संतानप्राप्ति के उद्देश्य से किए जाने वाले समागम के लिए अनेक वर्जनाएं भी निर्धारित की गई है, जैसे गंदी या मलिन-अवस्था में, मासिक धर्म के समय, प्रातः या सायं की संधिवेला में अथवा चिंता, भय, क्रोध आदि मनोविकारों के पैदा होने पर गर्भाधान नहीं करना चाहिए।

दिन में गर्भाधान करने से उत्पन्न संतान दुराचारी और अधम होती है। दिति के गर्भ से हिरण्यकशिपु जैसा महादानव इसलिए उत्पन्न हुआ था कि उसने आग्रहपूर्वक अपने स्वामी कश्यप के द्धारा संध्याकाल में गर्भाधान करवाया था। श्राद्ध के दिनों, पर्वों व प्रदोष-काल में भी समागम करना शास्त्रों में वर्जित है।

(2). पुंसवन :- गर्भस्थ शिशु के मानसिक विकास की दृष्टि से यह संस्कार उपयोगी समझा जाता है। गर्भाधान के दूसरे या तीसरे महीने में इस संस्कार को करने का विधान है। गर्भस्थ शिशु से सम्बन्धित इस संस्कार को शुभ नक्षत्र में सम्पन्न किया जाता है। विशेष तिथि एवं ग्रहों की गणना के आधार पर ही गर्भधान करना उचित माना गया है। पुंसवन संस्कार का प्रयोजन स्वस्थ एवं उत्तम संतति को जन्म देना है। मनीषियों ने सन्तानोत्कर्ष के उद्देश्य से किये जाने वाले इस संस्कार को अनिवार्य माना है। गर्भधारण के पश्चात संभोग निषिद्ध है। 

पुंसवन संस्कार के दो प्रमुख लाभ :- पुत्र प्राप्ति और स्वस्थ, सुंदर गुणवान संतान है। गर्भ ठहर जाने पर भावी माता के आहार, आचार, व्यवहार, चिंतन, भाव सभी को उत्तम और संतुलित बनाने का प्रयास किया जाय। शारीरिक, मानसिक दृष्टि से परिपक्व हो जाने के बाद, समाज को श्रेष्ठ, तेजस्वी नई पीढ़ी देने के संकल्प के साथ ही संतान पैदा करने की पहल करें। उसके लिए अनुकूल वातवरण भी निर्मित किया जाता है। गर्भ के तीसरे माह में विधिवत पुंसवन संस्कार सम्पन्न कराया जाता है, क्योंकि इस समय तक गर्भस्थ शिशु के विचार तंत्र का विकास प्रारंभ हो जाता है। वेद मंत्रों, यज्ञीय वातावरण एवं संस्कार सूत्रों की प्रेरणाओं से शिशु के मानस पर तो श्रेष्ठ प्रभाव पड़ता ही है, अभिभावकों और परिजनों को भी यह प्रेरणा मिलती है कि भावी माँ के लिए श्रेष्ठ मनःस्थिति और परिस्थितियाँ कैसे विकसित की जाए।

क्रिया और भावना :- गर्भ पूजन के लिए गर्भिणी के घर परिवार के सभी वयस्क परिजनों के हाथ में अक्षत, पुष्प आदि दिये जाएँ। निम्न मंत्रोचारण किया जाये :-

ॐ सुपर्णोऽसि गरुत्माँस्त्रिवृत्ते शिरो, गायत्रं चक्षुबरृहद्रथन्तरे पक्षौ। स्तोमऽआत्मा छन्दा स्यङ्गानि यजूषि नाम।
साम ते तनूर्वामदेव्यं, यज्ञायज्ञियं पुच्छं धिष्ण्याः शफाः। सुपर्णोऽसि गरुत्मान दिवं गच्छ स्वःपत॥

मंत्र समाप्ति पर अक्षत, पुष्प एक तश्तरी में एकत्रित करके गर्भिणी को दिया जाए। वह उसे पेट से स्पर्श करके रख दे। भावना की जाए, गर्भस्थ शिशु को सद्भाव और देव अनुग्रह का लाभ देने के लिए पूजन किया जा रहा है। गर्भिणी उसे स्वीकार करके गर्भ को वह लाभ पहुँचाने में सहयोग कर रही है।

(3). सीमन्तोन्नयन

सीमन्तोन्नयन का अभिप्राय है सौभाग्य संपन्न होना। गर्भपात रोकने के साथ-साथ गर्भस्थ शिशु एवं उसकी माता की रक्षा करना भी इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है। इस संस्कार के माध्यम से गर्भिणी स्त्री का मन प्रसन्न रखने के लिये सौभाग्यवती स्त्रियां गर्भवती की माँग भरती हैं। यह संस्कार गर्भ धारण के छठे अथवा आठवें महीने में होता है।

(4). प्रसव उपरान्त क्रियाएँ- जातकर्म 

नवजात शिशु के नालच्छेदन से पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है। इस दैवी जगत् से प्रत्यक्ष सम्पर्क में आने वाले बालक को मेधा, बल एवं दीर्घायु के लिये स्वर्ण खण्ड से मधु एवं घृत चटाया जाता है। दो बूंद घी तथा छह बूंद शहद का सम्मिश्रण अभिमंत्रित कर चटाने के बाद पिता यज्ञ करता है , बालक के बुद्धिमान, बलवान, स्वस्थ एवं दीर्घ जीवी होने की प्रार्थना करता है। इसके बाद माता बालक को स्तनपान कराती है।यह संस्कार विशेष मन्त्रों एवं विधि से किया जाता है।

शिशु के विश्व प्रवेश पर उसके ओजमय अभिनन्दन का यह संस्कार है। इसमें सन्तान की अबोध अवस्था में भी उस पर संस्कार डालने की चेष्टा की जाती है। माता से शारीरिक सम्बन्ध टूटने पर उसके मुख नाकादि को स्वच्छ करना ताकि वह श्वास ले सके तथा दूध पी सके।

यह सफाई सधी हुई दाई या नर्स द्वारा किया जाता है। सैंधव नमक घी में मिलाकर देने से नाक और गला साफ हो जाते हैं। बच्चे की त्वचा को साफ करने के लिए साबुन या बेसन और दही को मिलाकर उबटन की तरह प्रयोग किया जाता है।

स्नान के लिए गुनगुने पानी का प्रयोग होता है। चरक के अनुसार कान को साफ करके वे शब्द सुन सकें इसलिए कान के पास पत्थरों को बजाना चाहिए।

बच्चे के सिर पर घी में डूबोया हुआ फाया रखते हैं क्योंकि तालु जहां पर सिर की तीन अस्थियां दो पासे की ओर एक माथे से मिलती है वहां पर जन्मजात बच्चे में एक पतली झिल्ली होती है।

इस तालु को दृढ़ बनाने इसकी रक्षा करने इसे पोषण दिलाने के लिए ये आवश्यक होता है। इस प्रयोग से बच्चे को सर्दी जुकाम आदि नहीं सताते। जन्म पश्चात सम शीतोष्ण वातावरण में शिशु प्रथम श्वास ले।

शिशु का प्रथम श्वास लेना अति महत्वपूर्ण घटना है। गर्भ में जन्म पूर्व शिशु के फफ्फुस जल से भारी होते हैं। प्रथम श्वास लेते समय ही वे फैलते हैं और जल से हलके होते हैं। इस समय का श्वसन-प्रश्वसन शुद्ध समशीतोष्ण वातायन में हो।

शिशु के तन को कोमल वस्त्र या रुई से सावधानीपूर्वक साफ-सुथरा कर गोद में लेकर देवयज्ञ करके स्वर्ण शलाका को सममात्रा मिश्रित घी-षहद में डुबोकर उसकी जिह्वा पर ब्रह्म नाम लिखकर उसके वाक देवता जागृत करे।

इसके साथ उसके दाहिने तथा बाएं कान में "वेदोऽसि" कहा जाता है। अर्थात तू ज्ञानवाला प्राणी है, अज्ञानी नहीं है। तेरा नाम ब्रह्मज्ञान है। इसके पष्चात सोने की शलाका से उसे मधु-घृत चटाया जाता है और उसके अन्य बीज देवताओं में शब्द उच्चारण द्वारा शतवर्ष स्वस्थ अदीन ब्रह्म निकटतम जीने की भावना भरें, यह कामना की जाती है।

शिशु के दाएं तथा बाएं कान में क्रमषः शब्दोच्चार करते सविता, सरस्वती, इड़ा, पिंगला, सुषुम्णा, मेधा, अग्नि, वनस्पति, सोम, देव, ऋषि, पितर, यज्ञ, समुद्र, समग्र व्यवस्था द्वारा आयुवृद्धि, स्वस्थता प्राप्ति भावना भरें, यह कामना की जाती है। 

तत्पश्चात शिशु के कन्धों को अपनत्व भाव स्पर्श करके उसके लिए उत्तम दिवसों, ऐश्वर्य, दक्षता, वाक का भाव रखते उसके ब्रह्मचर्य-गृहस्थ-वानप्रस्थ (संन्यास सहित) तथा बल-पराक्रमयुक्त इन्द्रियों सहित और विद्या-शिक्षा-परोपकार सहित (त्र्यायुष-त्रि) होने की भावना का शब्दोच्चार करें।

इसी के साथ प्रसूता पत्नी के अंगों का सुवासित जल से मार्जन करता परिशुद्धता ऋत-शृत भाव उच्चारे।

इसके पश्चात शिशु को कः, कतरः, कतमः याने आनन्द, आनन्दतर, आनन्दतम भाव से सशब्द आशीर्वाद देकर, अपनत्व भावना भरा उसके अंग-हृदय सम-भाव अभिव्यक्त करते हुए उसके ज्ञानमय शतवर्ष जीने की कामना करता उसके शीष को सूंघे।

इतना करने के पश्चात पत्नी के दोनों स्तनों को पुष्पों द्वारा सुगन्धित जल से मार्जन कराकर दक्षिण, वाम स्तनों से शिशु को ऊर्जित, सरस, मधुमय प्रविष्ट कराने दुग्धपान कराए। इसके पष्चात वैदिक विद्वान पिता-माता सहित शिशु को दिव्य इन्द्रिय, दिव्य जीवन, स्वस्थ तन, व्यापक-अभय-उत्तम जीवन शतवर्षाधिक जीने का आषीर्वाद दें।

जातकर्म की अन्तिम प्रक्रिया जो शिशु के माता-पिता को करनी है वह है :- दस दिनों तक भात तथा सरसौं मिलाकर आहुतियां देना।

(5). नामकरण 

इस संस्कार का सनातन धर्म में बहुत अधिक महत्व है।जन्म के दस दिन तक अशौच (-सूतक) माना जाता है। इसलिये यह संस्कार ग्यारहवें दिन करने का विधान है। लेकिन अनेक कर्मकाण्डी विद्वान इस संस्कार को शुभ नक्षत्र अथवा शुभ दिन में करना उचित मानते हैं।यह व्यक्तित्व के विकास में सहायक होता है। महर्षि याज्ञवल्क्य का भी यही मत है, लेकिन अनेक कर्म काण्डी विद्वान इस संस्कार को शुभ नक्षत्र अथवा शुभ दिन में करना उचित मानते हैं।मनीषियों ने नाम का प्रभाव इसलिये भी अधिक बताया है, क्योंकि यह व्यक्तित्व के विकास में भी सहायक है।कहा गया है राम से बड़ा राम का नाम। धर्म में ज्योतिष मनुष्य के भविष्य की रूपरेखा का ज्ञान-भान करा देता है। इस संस्कार का उदेश्य केवल शिशु को नाम देना भर नहीं है, अपितु उसे श्रेष्ठ तम सस्कारों सहित उच्च कोटि के मानव के रूप में विकसित करना है। नाम केवल सम्बोधन के लिए अपितु साभिप्राय होना चाहिये। सन्तान के जन्म के दिन से ग्यारहवें दिन, एक सौ एकवें दिन या दूसरे वर्ष के आरम्भ में जिस दिन जन्म हुआ हो यह संस्कार करना चाहिए। नाम ऐसा रक्खे कि श्रवण मात्र से मन में उदात्त भाव उत्पन्न करनेवाला हो।यह उच्चारण में सरल होना चाहिए। स्व-नाम श्रवण व्यक्ति अपने जीवन में अधिकतम बार करता है। अपना नाम उसकी सबसे बड़ी पहचान है। अपना नाम पढ़ना, सुनना हमेशा भला और उत्तम लगता है। नाम रखने में देवश्रव, दिवस ऋत या श्रेष्ठ श्रव भाव आना चाहिए। नाम हमेशा शुभ ही रखना चाहिए। शुभ तथा अर्थमय नाम ही सार्थक नाम है। कः कतमः सिद्धान्त नामकरण का आधार सिद्धान्त है। कौन हो ? सुख हो, ब्रह्मवत हो। कौन-तर हो ? ब्रह्मतर हो। कौन-तम हो ? ब्रह्मतम हो। ब्रह्म व्यापकता का नाम है। मानव का व्यापक रूप प्रजा है। अतिव्यापक रूप सु-प्रजा है। भौतिक व्यापकता क्रमश: पृथ्वी, अन्तरिक्ष, द्युलोक है। इन लोकों के आरोहण के भाव वेद मन्त्रों में हैं। वीर शरीर-आत्म-समाज बल से युक्त युद्ध कुशल व्यक्ति का नाम है। सुवीर प्रशस्त वीर का नाम है, जो परमात्म बल शरीर, आत्म, समाज में उतारने में कुशल होता है। सामाजिक आत्मिक निष्ठाओं (यमों) का पालन ही व्यक्ति को श्रेष्ठ ऐश्वर्य देता उसको सु-ऐश्वर्य दे परिपुष्ट करता है। 

यदि सन्तान बालक है तो समाक्षरी अर्थात दो अथवा चार अक्षरोंयुक्त नाम रखा जाता है। और इनमें ग घ ङ ज झ ´ ड ढ ण द ध न ब भ म य र ल व इन अक्षरों का प्रयोग किया जाए। बालिका का नाम विषमाक्षर अथात एक, तीन या पांच अक्षरयुक्त होना चाहिए।

(6). निष्क्रमण

निष्क्रमण का अर्थ है बाहर निकालना। तीन माह तक शिशु का शरीर बाहरी वातावरण यथा तेज धूप, तेज हवा आदि के अनुकूल नहीं होता है इसलिये प्राय: तीन मास तक उसे बहुत सावधानी से घर में रखना चाहिए। इसके बाद धीरे-धीरे उसे बाहरी वातावरण के संपर्क में आने देना चाहिए। इस संस्कार का तात्पर्य यही है कि शिशु समाज के सम्पर्क में आकर सामाजिक परिस्थितियों से अवगत हो। यह घर की अपेक्षा अधिक शुद्ध वातावरण में शिशु के भ्रमण की योजना है। बच्चे के शरीर तथा मन के विकास के लिए उसे घर के चार दीवारी से बाहर ताजी शुद्ध हवा एवं सूर्यप्रकाश का सेवन कराना इस संस्कार का उद्देश्य है। 

गृह्यसूत्रों के अनुसार जन्म के बाद तीसरे शुक्ल पक्ष की तृतीया अर्थात चान्द्रमास की दृष्टि से जन्म के दो माह तीन दिन बाद अथवा जन्म के चौथे माह में यह संस्कार करे। दैवी जगत् से शिशु की प्रगाढ़ता बढ़े तथा ब्रह्माजी की सृष्टि से वह अच्छी तरह परिचित होकर दीर्घ काल तक धर्म और मर्यादा की रक्षा करते हुए इस लोक का भोग करे यही इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है। भगवान् भास्कर के तेज तथा चन्द्रमा की शीतलता से शिशु को अवगत कराना ही इसका उद्देश्य है। इसके पीछे मनीषियों की शिशु को तेजस्वी तथा विनम्र बनाने की परिकल्पना होगी। उस दिन देवी-देवताओं के दर्शन तथा उनसे शिशु के दीर्घ एवं यशस्वी जीवन के लिये आशीर्वाद ग्रहण किया जाता है। इस संस्कार का तात्पर्य यही है कि शिशु समाज के सम्पर्क में आकर सामाजिक परिस्थितियों से अवगत हो। हमारा शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश जिन्हें पंचभूत कहा जाता है, से बना है। इसलिए पिता इन देवताओं से बच्चे के कल्याण की प्रार्थना करते हैं।

इसमें शिशु को ब्रह्म द्वारा समाज में अनघ अर्थात पाप रहित करने की भावना तथा वेद द्वारा ज्ञान पूर्ण करने की भावना अभिव्यक्त करते माता-पिता यज्ञ करें। पति-पत्नी प्रेमपूर्वक शिशु के शत तथा शताधिक वर्ष तक समृद्ध, स्वस्थ, सामाजिक, आध्यात्मिक जीने की भावनामय होकर शिशु को सूर्य का दर्शन कराए।इसी प्रकार रात्रि में चन्द्रमा का दर्षन उपरोक्त भावना सहित कराए। यह संस्कार शिशु को आकाष, चन्द्र, सूर्य, तारे, वनस्पति आदि से परिचित कराने के लिए है।

आयुर्वेद के ग्रन्थों में कुमारागार, बालकों के वस्त्र, उसके खिलौने, उसकी रक्षा एवं पालनादि विषयों पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। कुमारागार ऐसा हो जिसमें अधिक हवा न आती हो किन्तु एक ही मार्ग से वायु प्रवेश हो। कुत्ते, हिंसक जन्तु, चूहे, मच्छर, आदि न आ सकें ऐसा पक्का मकान हो।जिसमें यथा स्थान जल, कूटने-पीसने का स्थान, मल-मूत्र त्याग के स्थान, स्नानगृह, रसोई अलग-अलग हों। इस कुमारागार में रक्षा के समस्त साधन, मंगलकार्य, होमादि की सामग्री उपस्थित हों।

बच्चों के बिस्तर, आसन, बिछाने के वस्त्र कोमल, हल्के पवित्र, सुगन्धित होनें चाहिए। पसीना, मलमूत्र एवं जूं आदि से दूषित कपड़े हटा देवें। बरतन नए हों अन्यथा अच्छी प्रकार धोकर गुग्गुल, सरसो, हींग, वच, चोरक आदि का धुंआ देकर साफ करके सुखाकर काम में ले सकते हैं। बच्चों के खिलौने विचित्र प्रकार के बजनेवाले, देखने में सुन्दर एवं हल्के हों। वे नुकीले न हों, मुख में न आ सकनेवाले तथा प्राणहरण न करनेवाले होनें चाहिए।

(7). अन्नप्राशन 

शिशु जो अब तक पेय पदार्थो विशेषकर दूध पर आधारित था, अब अन्न जिसे शास्त्रों में प्राण कहा गया है उसको ग्रहण कर शारीरिक व मानसिक रूप से अपने को बलवान व प्रबुद्ध बनाए। तन और मन को सुदृढ़ बनाने में अन्न का सर्वाधिक योगदान है। शुद्ध, सात्विक एवं पौष्टिक आहार से ही तन स्वस्थ रहता है और स्वस्थ तन में ही स्वस्थ मन का निवास होता है। आहार शुद्ध होने पर ही अन्त:करण शुद्ध होता है तथा मन, बुद्धि, आत्मा सबका पोषण होता है। अन्नप्राशन के लिये जन्म से छठे महीने को उपयुक्त माना है। छठे मास में शुभ नक्षत्र एवं शुभ दिन देखकर यह संस्कार करना चाहिए। खीर और मिठाई से शिशु के अन्नग्रहण को शुभ माना गया है। हमारे शास्त्रों में खीर को अमृत के समान माना गया है।

जब बालक के प्रायः दाँत निकल आते हैं, तब उसे उबला हुआ अन्न खिलाया जाता है। इसमें वह दही, मधु, घी, चावल आदि खिला सकते हैं। इस संस्कार के पूर्व शिशु अपने भोजन के लिए माता के दूध या गाय के दूध पर निर्भर रहता था। जब उसकी पाचन शक्ति बढ़ जाती है और उसके शरीर के विकास के लिए पौष्टिक तत्वों की आवश्यकता पड़ती है, तब बालक को प्रथम बार अन्न अथवा ठोस भोजन दिया जाता है।

मानव एवं शंख के अनुसार यह संस्कार जन्म से पाँचवें या छठे महीने में किया जाना चाहिए, किंतु मनु तथा याज्ञवलक्य दोनों ही इसके लिए 6-12 मास के बीच का समय उपयुक्त मानते हैं तथा साथ ही यह मत भी कि पुत्र शिशु का अन्नप्राशन सम मासों ( 6, 8, 10, 12) तथा कन्या शिशु का विषम मासों ( 5, 7, 9, 11) में किया जाना अधिक उपयुक्त होता है। जीवन में पहले पहल बालक को अन्न खिलाना इस संस्कार का उद्देश्य है। पारस्कर गृह्यसूत्र के अनुसार छठे माह में अन्नप्राशन संस्कार होना चाहिए। कमजोर पाचन शिशु का सातवे माह जन्म दिवस पर कराए।

इसमें ईश्वर प्रार्थना उपासना पश्चात शिशु के प्राण-अपानादि श्वसन व्यवस्था तथा पंचेन्द्रिय परिशुद्धि भावना का उच्चारण करता घृतमय भात पकाना तथा इसी भात से यज्ञ करने का विधान है।

इस यजन में माता-पिता तथा यजमान विश्व देवी प्रारूप की अवधारणा के साथ शिशु में वाज स्थापना (षक्तिकरण-ऊर्जाकरण) की भावना अभिव्यक्त करे। इसके पश्चात पुनः पंच श्वसन व्यवस्था तथा इन्द्रिय व्यवस्था की शुद्धि भावना पूर्वक भात से हवन करे। फिर शिशु को घृत, मधु, दही, सुगन्धि (अति बारीक पिसी इलायची आदि) मय भात रुचि अनुकूल सहजतापूर्वक खिलाए। इस संस्कार में अन्न के प्रति पकाने की सौम्य महक तथा हवन के एन्झाइम ग्रहण से क्रमषः संस्कारित अन्नभक्षण का अनुकूलन है। माता के दूध से पहले पहल शिशु को अन्न पर लाना हो तो मां के दूध की जगह गाय का दूध देना चाहिए। इस दूध को देने के लिए 150 मि.ग्रा. गाय के दूध में 60 मि.ग्रा. उबला पानी व एक चम्मच मीठा ड़ालकर शिशु को पिला दें। यह क्रम एक सप्ताह तक चलाकर दूसरे सप्ताह एक बार की जगह दो बार बाहर का दूध दें। तीसरे सप्ताह दो बार की जगह तीन बार बाहर का दूध दें, चौथे सप्ताह दोपहर दूध के स्थान पर सब्जी का रसा, थोड़ा दही, थोड़ा शहद, थोड़ा चावल दें। पांचवें सप्ताह दो समय के दूध के स्थान पर रसा, सब्जी, दही, शहद आदि बढ़ा दें। इस प्रकार बालक को धीरे-धीरे माता का दूध छुड़ाकर अन्न पर ले आने से बच्चे के पेट में कोई रोग होने की सम्भावना नहीं रहती। इस संस्कार पश्चात कालान्तर में दिवस-दिवस क्रमश: मूंगदाल, आलू, विभिन्न मौसमी सब्जियां, शकरकंद, गाजर, पालक, लौकी आदि (सभी भातवत अर्थात अति पकी- गलने की सीमा तक पकी) द्वारा भी शिशु का आहार अनुकूलन करना चाहिए। इस प्रकार व्यापक अनुकूलित अन्न खिलाने से शिशु अपने जीवन में सुभक्षण का आदि होता है तथा स्वस्थता प्राप्त करता है। इस संस्कार के बाद शिशु मितभुक्, हितभुक्, ऋतभुक्, शृतभुक होता है।

(8). चूड़ा कर्म-मुण्डन संस्कार

बालक के पहले, तीसरे या पांचवें वर्ष में इस संस्कार को करने का विधान है। इस संस्कार के पीछे शुाचिता और बौद्धिक विकास की भावना है। मुंडन संस्कार का अभिप्राय है कि जन्म के समय उत्पन्न अपवित्र बालों को हटाकर बालक को प्रखर बनाना है। नौ माह तक गर्भ में रहने के कारण शरीर के साथ-साथ उसके बालों भी अपवित्र-अशुद्ध हो जाते हैं। मुंडन संस्कार से इन दोषों का निवारण होता है।ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इस संस्कार को शुभ मुहूर्त में करने का विधान है।

संस्कारों की प्रतिष्ठापना बालकपन में ही करके उन्हें सुसंस्कारी बनाया जाता है ताकि वेदारम्भ तथा क्रिया-कर्मों के लिए अधिकारी बन सके अर्थात वेद-वेदान्तों के पढ़ने तथा यज्ञादिक कार्यों में भाग ले सके। उसका मस्तिष्कीय विकास एवं सुरक्षा व्यवस्थित रूप से आरम्भ हो जाए, ऐसा विचार किया जाता है।चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करते रहने के कारण आत्मा कितने ही ऐसे पाशविक संस्कार, विचार, मनोभाव अपने भीतर धारण किये रहती है, जो मानव जीवन में अनुपयुक्त एवं अवांछनीय होते हैं।मूल केशों को हटाकर मानवता वादी आदर्शो को प्रतिष्ठापित किये जाने हेतु यह कर्म आवश्यक है। ऐसा न होने पर यह मानना होगा कि आकृति मात्र मनुष्य की हुई-प्रवृत्ति पशु की।

रोग रहित उत्तम समृद्ध ब्रह्म गुणमय आयु तथा समृद्धि-भावना के कथन के साथ शिशु के प्रथम केशों के छेदन का विधान चूडाकर्म अर्थात मुण्डन संस्कार है। बच्चे के दांत छः सात मास की आयु से निकलना प्रारम्भ होकर ढाई-तीन वर्ष तक की आयु तक निकलते रहते हैं।

दांत निकलते समय सिर भारी हो जाता है, गर्म रहता है, सिर में दर्द होता है, मसूड़े सूझ जाते हैं, लार बहा करती है, दस्त लग जाते हैं, आंखे आ जाती हैं, बच्चा चिड़चिड़ा हो जाता है।दांतों के निकलने का भारी प्रभाव सिर पर पड़ता है। इसलिए सिर को हल्का और ठंडा रखने के लिए सिर पर बालों का बोझ उतार ड़ालना ही इस संस्कार का उदेश्य है।

शिशु गर्भ में होता है तभी उसके बाल आ जाते हैं, उन मलिन बालों को निकाल देने से, सिर की खुजली दाद आदि से रक्षा होती है। उसके उपरांत उगने वाले बाल मजबूत-घने होते हैं। 

इस संस्कार द्वारा बालक में त्र्यायुष भरने की भावना भरी जाती है। त्र्यायुष एक व्यापक विज्ञान है।

(i) ज्ञान-कर्म-उपासना त्रिमय चार आश्रम त्र्यायुष हैं। (ii) शुद्धि, बल और पराक्रम त्र्यायुष हैं। (iii) शरीर, आत्मा और समाज त्र्यायुष हैं। (iv) विद्या, धर्म, परोपकार त्र्यायुष हैं। (v) शरीर-मन-बुद्धि, धी-चित्त-अहंकार आदि अर्थात आधिदैविक, आधिभौतिक, आध्यात्मिक इन त्रिताप से रहित करके त्रिसमृद्धमय जीवन जीना त्र्यायुष है।

(9). विद्यारम्भ :- विद्यारम्भ संस्कार के क्रम के बारे में मतभिन्नता है। कुछ का मत है कि अन्नप्राशन के बाद विद्यारम्भ संस्कार होना चाहिये तो कुछ चूड़ाकर्म के बाद इस संस्कार को उपयुक्त मानते हैं चूड़ाकर्म के बाद ही विद्यारम्भ संस्कार उपयुक्त लगता है। विद्यारम्भ का अभिप्राय बालक को शिक्षा के प्रारम्भिक स्तर से परिचित कराना है। प्राचीन काल में जब गुरुकुल की परम्परा थी तो बालक को वेदाध्ययन के लिये भेजने से पहले घर में अक्षर बोध कराया जाता था। शुभ मुहूर्त में ही विद्यारम्भ संस्कार करना चाहिये। विद्यारंभ संस्कार का संबध उपनयन संस्कार की भांति गुरुकुल प्रथा से था, जब गुरुकुल का आचार्य बालक को यज्ञोपवीत धारण कराकर, वेदाध्ययन करता था। गुरुजनों से वेदों और उपनिषदों का अध्ययन कर तत्त्वज्ञान की प्राप्ति करना ही इस संस्कार का परम प्रयोजन है। जब बालक-बालिका का मस्तिष्क शिक्षा ग्रहण करने योग्य हो जाता है, तब यह संस्कार किया जाता है। आमतौर या 5 वर्ष का बच्चा इसके लिए उपयुक्त होता है। मंगल के देवता गणेश और कला की देवी सरस्वती को दमन करके उनसे प्रेरणा ग्रहण करने की मूल भावना इस संस्कार में निहित होती है। बालक विद्या देने वाले गुरु का पूर्ण श्रद्धा से अभिवादन व प्रणाम इसलिए करता है कि गुरु उसे एक श्रेष्ठ मानव बनाए। ज्ञानस्वरुप वेदों का विस्तृत अध्ययन करने के पूर्व मेधाजनन नामक एक उपांग-संस्कार करने का विधान भी शास्त्रों में वर्णित है। इसके करने से बालक में मेधा, प्रज्ञा, विद्या तथा श्रद्धा की अभिवृद्धि होती है। इससे वेदाध्ययन आदि में ना केवल सुविधा होती है, बल्कि विद्याध्ययन में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती।

विद्यया लुप्यते पापं विद्ययाडयुः प्रवर्धते। विद्यया सर्वसिद्धिः स्याद्धिद्ययामृतश्नुते॥ 

वेदविद्या के अध्ययन से सारे पापों का लोप होता है, आयु की वृद्धि होती है, सारी सिद्धियां प्राप्त होती है, यहां तक कि विद्यार्थी के समक्ष साक्षात् अमृतरस अशन-पान के रुप में उपलब्ध हो जाता है। शास्त्रवचन है की जिसे विद्या नहीं आती, उसे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के चारों फलों से वंचित रहना पडता है। इसलिए विद्या की आवश्यकता अनिवार्य है।

(10). कर्ण वेध-कन्छेदन 

सनातन परंपरा में कर्णवेध संस्कार नवम संस्कार है।यह बालक की शारीरिक व्याधि से रक्षा ही इस संस्कार का मूल उद्देश्य है। प्रकृति प्रदत्त इस शरीर के सारे अंग महत्वपूर्ण हैं। कान हमारे श्रवण द्वार हैं। कर्ण वेधन से व्याधियां दूर होती हैं तथा श्रवण शक्ति भी बढ़ती है। इसके साथ ही कानों में आभूषण हमारे सौन्दर्य बोध का परिचायक भी है।यज्ञोपवीत के पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शुक्ल पक्ष के शुभ मुहूर्त में इस संस्कार का सम्पादन श्रेयस्कर है। यह पैरों का सन्तुलन बनाये रखने हेतु भी किया जाता है।मूल नक्षत्र में पैदा हुए बालक का कर्ण भेदन अवश्य कराना चाहिये।कन्याओं के लिये तो कर्णवेध नितान्त आवश्यक माना गया है। इसमें दोनों कानों को वेध करके उसकी नस को ठीक रखने के लिए उसमें सुवर्ण कुण्डल धारण कराया जाता है। इससे शारीरिक लाभ होता है।इसे उपनयन के पूर्व ही कर दिया जाना चाहिए। इस संस्कार को 6 माह से लेकर 16 वें माह तक अथवा 3,5 आदि विषम वर्षों में या कुल की पंरपरा के अनुसार उचित आयु में किया जाता है।

इसे स्त्री-पुरुषों में पूर्ण स्त्रीत्व एवं पुरुषत्व की प्राप्ति के उद्देश्य से कराया जाता है। मान्यता यह भी है की सूर्य की किरणें कानों के छिद्र से प्रवेश पाकर बालक-बालिका को तेज़ संपन्न बनाती है। बालिकाओं के आभुषण धारण हेतु तथा रोगों से बचाव हेतु यह संस्कार आधुनिक एक्युपंचर पद्धति के अनुरुप एक सशक्त माध्यम भी है। हमारे शास्त्रों में कर्णवेध रहित पुरुष को श्राद्ध का अधिकारी नहीं माना गया है। ब्राह्मण और वैश्य का कर्णवेध चांदी की सुई से, शुद्र का लोहे की सुई से तथा क्षत्रिय और संपन्न पुरुषों का सोने की सुई से करने का विधान है। कर्णवेध-संस्कार द्धिजों (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) का साही के कांटे से भी करने का विधान है। शुभ समय में, पवित्र स्थान पर बैठकर देवताओं का पूजन करने के पश्चात सूर्य के सम्मुख बालक या बालिका के कानों को मंत्र द्धारा अभिंमत्रित करना चाहिए। 

भद्रं कर्णेभिः क्षृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।स्थिरैरंगैस्तुष्टुवां सस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः॥ 

इसके बाद बालक के दाहिने कान में पहले और बाएं कान में बाद में सुई से छेद करें। उनमें कुडंल आदि पहनाएं। बालिका के पहले बाएं कान में, फिर दाहिने कान में छेद करके तथा बाएं नाक में भी छेद करके आभुषण पहनाने का विधान है। मस्तिष्क के दोनों भागों को विद्युत के प्रभावों से प्रभावशील बनाने के लिए नाक और कान में छिद्र करके सोना पहनना लाभकारी माना गया है। नाक में नथुनी पहनने से नासिका-संबधी रोग नहीं होते और सर्दी-खांसी में राहत मिलती है। कानों में सोने की बालियं या झुमकें आदि पहनने से स्त्रियों में मासिक धर्म नियमित रहता है, इससे हिस्टीरिया रोग में भी लाभ मिलता है।

(11). यज्ञोपवीत-जनेऊ

यज्ञोपवीत बौद्धिक विकास के लिये सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। धार्मिक उन्नति का इस संस्कार में पूर्णरूपेण समावेश है। इस संस्कार के माध्यम से वेदमाता गायत्री को आत्मसात करने का प्रावधान दिया है। आधुनिक युग में भी गायत्री मंत्र पर विशेष शोध हो चुका है। गायत्री एक शक्तिशाली मंत्र है। यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं अर्थात् यज्ञोपवीत जिसे जनेऊ भी कहा जाता है अत्यन्त पवित्र है। प्रजापति ने स्वाभाविक रूप से इसका निर्माण किया है। यह आयु को बढ़ानेवाला, बल और तेज प्रदान करनेवाला है। गुरुकुल परम्परा में प्राय: आठ वर्ष की उम्र में यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न किया जाता था।

यज्ञोपवीत से ही बालक को ब्रह्मचर्य की दीक्षा दी जाती थी जिसका पालन गृहस्थाश्रम में आने से पूर्व तक किया जाता था। इस संस्कार का उद्देश्य संयमित जीवन के साथ आत्मिक विकास में रत रहने के लिये बालक को प्रेरित करना है।

(12). वेदारम्भ 

यह संस्कारज्ञानार्जन से सम्बन्धित है। इस संस्कार का अभिप्राय है कि बालक वेदाध्ययन से ज्ञान को समाविष्ट करना शुरू करे। शास्त्रों में ज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई प्रकाश नहीं समझा गया है।यज्ञोपवीत के बाद बालकों को वेदों का अध्ययन एवं विशिष्ट ज्ञान से परिचित होने के लिये गुरुकुल में भेजा जाता था। असंयमित जीवन जीने वाले वेदाध्ययन के अधिकारी नहीं माने जाते थे। चारों वेद ज्ञान के अक्षुण्ण भंडार हैं। वेदारम्भ से पहले आचार्य अपने शिष्यों को ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने एवं संयमित जीवन जीने की प्रतिज्ञा कराते थे तथा उसकी परीक्षा लेने के बाद ही वेदाध्ययन कराते थे। जीवन को सकारात्मक बनाने के लिए शिक्षा जरूरी है। शिक्षा का शुरू होना ही विद्यारंभ संस्कार है। गुरु के आश्रम में भेजने के पहले अभिभावक अपने पुत्र को अनुशासन के साथ आश्रम में रहने की सीख देते हुए भेजते थे। ये संस्कार भी उपनयन संस्कार जैसा ही है, इस संस्कार के बाद बच्चों को वेदों की शिक्षा मिलना आरम्भ किया जाता है

(13). केशान्त-मुण्डन 

वेदाध्ययन पूर्ण कर लेने पर आचार्य के समक्ष यह संस्कार सम्पन्न किया जाता था। वस्तुत: यह संस्कार गुरुकुल से विदाई लेने तथा गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का उपक्रम है। वेद-पुराणों एवं विभिन्न विषयों में पारंगत होने के बाद ब्रह्मचारी के समावर्तन संस्कार के पूर्व बालों की सफाई की जाती थी तथा उसे स्नान कराकर स्नातक की उपाधि दी जाती थी। केशान्त संस्कार शुभ मुहूर्त में किया जाता था। इस संस्कार के बाद ही ब्रह्मचारी युवक को गृहस्थ जीवन के योग्य शारीरिक और व्यावहारिक योग्यता की दीक्षा दी जाती थी।[आगोदानकर्मणः-ब्रह्मचर्यम्‌-भा.यू.सू.] उसके बाद इस केशान्त संस्कार में भी मुंण्डन करना होता है। इसलिए कहा भी है कि शास्त्रोक्त विधि से भली-भाँति व्रत का आचरण करने वाला ब्रह्मचारी इस केशान्त-संस्कार में सिर के केशों को तथा श्मश्रु के बालों को कटवाता है।

केशान्तकर्मणा तत्र यथोक्त-चरितव्रतः [व्यासस्मृति ] इस संस्कार में दाढ़ी बनाने के पश्चात उन बालों को या तो गाय के गोबर में मिला दिया जाता था या गौशाला में गढ्ठा खोदकर दबा दिया जाता था अथवा किसी नदी में प्रवाहित कर दिया जाता था।इस प्रकार की क्रिया इसलिए की जाती थी ताकि कोई तांत्रिक उन बालों पर अपनी तान्त्रिक क्रिया के द्वारा नुकसान न पहुंचा सके।इस संस्कार के बाद गुरू को गाय दान दिया जाता था। यह संस्कार शुभ मुहुर्त देखकर आयोजित किया जाता था।

(14). समावर्तन 

गुरुकुल से विदाई लेने से पूर्व शिष्य का समावर्तन संस्कार होता था। इस संस्कार से पूर्व ब्रह्मचारी का केशान्त संस्कार होता था और फिर उसे स्नान कराया जाता था। यह स्नान समावर्तन संस्कार के तहत होता था। इसमें सुगन्धित पदार्थो एवं औषधादि युक्त जल से भरे हुए वेदी के उत्तर भाग में आठ घड़ों के जल से स्नान करने का विधान है। यह स्नान विशेष मन्त्रोच्चारण के साथ होता था। इसके बाद ब्रह्मचारी मेखला व दण्ड को छोड़ देता था जिसे यज्ञोपवीत के समय धारण कराया जाता था। इस उपाधि से वह सगर्व गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का अधिकारी समझा जाता था। सुन्दर वस्त्र व आभूषण धारण करता था तथा गुरुजनों से आशीर्वाद ग्रहण कर अपने घर के लिये विदा होता था।

दीक्षांत 

१. वह अवभृत यज्ञ जो किसी यज्ञ के समापनांत में उसकी त्रुटि आदि के दोष की शांति के लिये किया जाता है ।
२. विश्वविद्यालयों में परीक्षोत्तीर्ण स्नातकों को उपाधि या प्रमाणपत्र प्रदान करने का अवसर ।
३. किसी गुरुकुल या विद्यालय में अध्ययन क्रम की समाप्ति । यौ॰— दीक्षांत भाषण । दीक्षांतोपदेश = उत्तीर्ण स्नातकों को प्रमाणपत्र देने के अनंतर किसी विशिष्ट विद्वान् या कुलपति द्वारा उन स्नातकों को संबोधित कर दिया जानेवाला उपदेश ।

(15). विवाह 

स्त्री और पुरुष दोनों के लिये यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। यज्ञोपवीत से समावर्तन संस्कार तक ब्रह्मचर्य व्रत के पालन का शास्त्रों में विधान है। वेदाध्ययन के बाद जब युवक में सामाजिक परम्परा निर्वाह करने की क्षमता व परिपक्वता आ जाती थी तो उसे गृर्हस्थ्य धर्म में प्रवेश कराया जाता था। लगभग पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का व्रत का पालन करने के बाद युवक परिणय सूत्र में बंधता था।शास्त्रों में आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख है- ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्रजापत्य, आसुर, गन्धर्व, राक्षस एवं पैशाच। वैदिक काल में ये सभी प्रथाएं प्रचलित थीं। विवाह शब्द का तात्पर्य मात्र स्त्री-पुरुष के समागम सम्बन्ध तक ही सीमित नहीं है अपितु सन्तानोत्पादन के साथ-साथ सन्तान को सक्षम आत्मनिर्भर होने तक के दायित्व का निर्वाह और सन्तति परम्परा को योग्य लोक शिक्षण देना भी इसी संस्कार का अंग है। शास्त्रों में अविवाहित व्यक्ति को अयज्ञीय कहा गया है और उसे सभी प्रकार के अधिकारों के अयोग्य माना गया है-

अयज्ञियो वा एष योऽपत्नीकः

मनुष्य जन्म ग्रहण करते ही तीन ऋणों से युक्त हो जाता है, ऋषि ऋण, देव ऋण, पितृऋण और तीनों ऋणों से क्रमशः ब्रह्मचर्य, यज्ञ, सन्तानोत्पादन करके मुक्त हो पाता है। 

जायमानो ह वै ब्राहणस्त्रिार्ऋणवान्‌ जायते-ब्रह्मचर्येण ऋषिभ्यो, यज्ञेन देवेभ्यः प्रजया पितृभ्यः। 

गृहस्थाश्रम सभी आश्रमों का आश्रम है। जैसे वायु प्राणिमात्रा के जीवन का आश्रय है, उसी प्रकार गार्हस्थ्य सभी आश्रमों का आश्रम है। 

यथा वायुं समाश्रित्य वर्त्तन्ते सर्वजन्तवः तथा गृहस्थमाश्रित्य वर्तन्ते सर्व आश्रमाः।
यस्मात्‌ त्रायोऽप्याश्रमिणो ज्ञानेनान्नेन चान्वहम्‌ गृहस्थेनैव धार्यन्ते तस्मा ज्येष्ठाश्रमो गृही।

विवाह अनुलोम रीति से ही करना चाहिए-प्रातिलोम्य विवाह सुखद नहीं होता अपितु परिणाम में कष्टकारी होता है। 

त्रायाण्यमानुलोम्यं स्यात्‌ प्रातिलोम्यं न विद्यते प्रातिलौम्येन यो याति न तस्मात्‌ पापकृत्तरः।
अपत्नीको नरो भूप कर्मयोग्यो न जायते। ब्राह्मणः क्षत्रिायो वापि वैश्यः शूद्रोऽपि वा नरः।

विवाह के प्रकार :- स्मृतियों ने इस प्रकार के विवाहों को आठ भागों में विभक्त कियाᅠहै।

(1). ब्राह्म, (2). दैव, (3). आर्ष, (4). प्राजापत्य, (5). आसुर, (6). गान्धर्व, (7). राक्षस, व (8). पैचाश।

इनमें प्रथम चार प्रशस्त और चार अप्रशस्त की श्रेणी में रखे गये हैं। प्रथम चार में भी ब्राह्म विवाह सर्वोत्तम और समाज में प्रशंसनीय था शेष तारतम्य भाव से ग्राह्य थे। किन्तु दो सर्वथा अग्राह्य थे।

(1). पैशाच-सोती रोती कन्या का बलात्‌ अपहरण।
(2). राक्षस-अभिभावकों को मारपीट कर बलात्‌ छीनकर रोती बिलखती कन्या का अपहरण इस कोटि का निन्दनीय विवाह था।
(3). गान्धर्व-जब कन्या और वर कामवश होकर स्वेच्छापूर्वक परस्पर संयोग करते हैं तो ऐसा विवाह गान्धर्व विवाह होता है।
(4). जिस विवाह में कन्या के पक्ष को यथेष्ट धन-सम्पत्ति देकर स्वच्छन्दतापूर्वक कन्या से विवाह किया जाता है ऐसा विवाह आसुर संज्ञक है।
(5). वर स्वयं प्र्रस्ताव करके कन्या के पिता से विवाह का निवेदन करता और सन्तानोत्पादन के लिए विवाह स्वीकार किया जाता। ऐसा विवाह प्राजापत्य कोटि का था।
(6). आर्ष विवाह में कन्या का पिता वर से यज्ञादि कर्म के लिए दो गो मिथुन प्राप्त करके धर्म कार्य सम्पन्न कर लेता था और उसके बदले में कन्यादान करता था।
(7). दैव
(8). ब्राह्म विवाह सबसे श्रेष्ठ प्रशंसनीय विधि मानी जाती है जिसमें कन्या का पिता योग्य वर को सब प्रकार सुसज्जित यथाशक्ति अलंकृत कन्या को गार्हस्थ्य जीवन की समस्त उपयोगी वस्तुओं के साथ समर्पित करता था।
आच्छाद्य चार्चयित्वा च श्रुतिशीलवते स्वयम्‌ आहूय दानं कन्याया ब्राह्मो धर्मः प्रकीर्तितः।
सक्षेप में विवाह संस्था के उद्देश्य और उसके प्रकार का विवरण दिया गया है। विवाह के विविध-विधान के लिए देश-काल-प्रान्तभेद से पद्धतियां उपलब्ध हैं तदनुसार वैवाहिक संस्कार सम्पन्न किया जाना चाहिए।

(16). अन्त्येष्टि 

अन्त्येष्टि को अग्नि परिग्रह संस्कार भी कहा जाता है। आत्मा में अग्नि का आधान करना ही अग्नि परिग्रह है। धर्म शास्त्रों की मान्यता है कि मृत शरीर की विधिवत् क्रिया करने से जीव की अतृप्त वासनायें शान्त हो जाती हैं। शास्त्रों में बहुत ही सहज ढंग से इहलोक और परलोक की परिकल्पना की गयी है। जब तक जीव शरीर धारण कर इहलोक में निवास करता है तो वह विभिन्न कर्मो से बंधा रहता है। प्राण छूटने पर वह इस लोक को छोड़ देता है। उसके बाद की परिकल्पना में विभिन्न लोकों के अलावा मोक्ष या निर्वाण है।अन्त्येष्टि ऐहिक जीवन का अन्तिम अध्याय है। आत्मा की अमरता एवं लोक परलोक का विश्वासी जीवन इस लोक की अपेक्षा पारलौकिक कल्याण की सतत कामना करता है। मरणोत्तर संस्कार से ही पारलौकिक विजय प्राप्त होती है -

जात संस्कारेणेमं लोकमभिजयति मृतसंस्कारेणामुं लोकम्‌॥ 

विधि-विधान, आतुरकालिक दान, वैतरणीदान, मृत्युकाल में भू शयन व्यवस्था मृत्युकालिक स्नान, मरणोत्तर स्नान, पिण्डदान, (मलिन षोडशी) के 6 पिण्ड दशगात्रायावत्‌ तिलाञ्जलि, घटस्थापन दीपदान, दशाह के दिन मलिन षोडशी के शेष पिण्डदान एकादशाह के षोडश श्राद्ध, विष्णुपूजन शैय़्यादान आदि। सपिण्डीकरण, शय्यादान एवं लोक व्यवस्था के अनुसार उत्तर कर्म आयोजित कराने चाहिए। इन सभी कर्मों के लिए प्रान्त देशकाल के अनुसार पद्धतियां उपलब्ध हैं तदनुसार उन कर्मों का आयोजन किया जाना चाहिए।

(लेखक भारत संस्कृति न्यास के संस्थापक है) 
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