दुला भट्टी जिसकी स्मृति में मनायी जाती है लोहड़ी

इतिहास में ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जब किसी कारण से या किसी परिस्थितिवश कोई व्यक्ति यदि मुसलमान बन भी गया तो भी उसने हिंदू संस्कारों का और हिंदू संस्कृति का हृदय से बहिष्कार नही किया। इसके विपरीत वह अपने पूर्व संस्कारों के अनुसार अपने धर्मबंधुओं के प्रति सहयोगी और सदभावी बना रहा। ऐसे व्यक्ति का इस प्रकार का आचरण कहीं-कहीं दोनों समुदायों में एकता उत्पन्न करने का कारण भी बना, यद्यपि ऐसी एकता कुछ परिवार विशेषों तक ही सीमित रही, परंतु इसके उपरांत भी दोनों पक्षों (हिंदू और धर्मांतरित मुस्लिमों) ने एक दूसरे को समझने का प्रयास किया। बहुत से नवमुस्लिमों ने तो सदियों तक अपने रीति-रिवाजों का परित्याग नही किया। जैसे विवाहादि के समय वैसी ही परंपराओं का निर्वाह ये लोग सदियों तक करते रहे, जिन्हें हिंदू युग युगों से करता आ रहा था।

हमारी सांस्कृतिक परंपराएं ही रही हैं, जिन्होंने हमें एकता के सूत्र में पिरोये रखने का प्रशंसनीय कार्य किया है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने एक बार कहा था कि-''उपासना-मत और ईश्वर संबंधी विश्वास की स्वतंत्रता भारतीय संस्कृति की परंपरा रही है। इस संस्कृति ने अपने इसी गुण के कारण विभिन्न पूजा पद्घतियों को अपनाने वालों को भी पूजा के योग्य स्थान दिया। इसने व्यक्ति के मतीय या पंथीय स्वरूप को पूजनीय न मानकर उसके चरित्र की पूजा की।''

भारत की संस्कृति का उत्साह अटूट रहा, और इसका कारण यह था कि इसने कभी अपने आपको मानवीय गुणों में आस्था रखने वाले लोगों या समुदायों से पृथक सिद्घ करने का प्रयास नही किया। पंडित मदनमोहन मालवीय जी का कहना है कि-''भारत की एकता का मुख्य आधार है-एक संस्कृति जिसका उत्साह कभी नही टूटा। यही इसकी विशेषता है। भारतीय एकता अक्षुण्ण है क्योंकि भारतीय संस्कृति की धारा निरंतर बहती रही है और बहेगी।''

अब हम आते हैं इतिहास के उस अभिनंदनीय व्यक्तित्व के जीवन वृत्त पर जिसने अपने सत्कार्यों के अपने काल में यश प्राप्त किया और लोगों ने उसके सत्कृत्यों का वंदन करते हुए उसे अपना पूजनीय चरित्र बना लिया। इसे लोग दुला भट्टी के नाम से जानते हैं। जिसके नाम से हम आज तक भी लोहड़ी पर्व मनाते हैं।

गुर्जरों का एक गोत्र भाटी है जो कि अत्यंत प्राचीन है, और इसकी शाखा के लोग आज तक भी राजस्थान, भारत व पाकिस्तान में बिखरी हुई लगभग दो सौ शाखाओं में मिलते हैं। इनमें भाटी राजपूत, भाटी व भट्टी मुसलमान, मुगल, जाट, सिख इत्यादि सम्मिलित हैं।

ऐसी ही किसी एक शाखा का व्यक्ति था दुला भट्टी जो कि किन्हीं कारणों से मुसलमान बन गया था? वह व्यक्ति बहुत ही दयालु स्वभाव का था, लोगों के कष्टों को देखकर उसका हृदय द्रवित हो उठा करता था। हो सकता है कि वह प्रारंभ में विद्रोही हिंदू रहा हो पर कालांतर में किसी प्रकार के दबाव में आकर मुस्लिम बन गया था। मुस्लिम बनकर भी उसका अपने धर्म बंधुओं के प्रति व्यवहार अत्यंत भद्र रहा। हिंदुओं ने भी उसकी विवशता और बाध्यता को समझा तथा उसके प्रति सभी ने सहयोगी दृष्टिकोण अपनाया।

दुला भट्टी का मूल स्वभाव विद्रोही का था, इसलिए वह मुस्लिम बनकर भी राजभक्त नही बन पाया। अपने मूल स्वभाव के अनुसार वह विद्रोही ही बना रहा। उसकी सोच थी कि सत्ता और राजनीति निर्धन वर्ग का कल्याण नही कर पाती, और ना ही उसके पास उन लोगों के कल्याण का कोई सपना होता है ना कोई योजना होती है, ना कोई लक्ष्य होता है। भारतीय लोगों की निर्धनता को उस वीर हिन्दू योद्घा ने निकटता से देखा था, इसलिए वह उनके ताप संतापों के बंधनों को शिथिल करने के लिए स्वतंत्रता का एक योद्घा बनकर उठ खड़ा हुआ। परंतु उसका मार्ग तनिक परंपरा से हटकर था। वह सेना बनाकर मुगल बादशाह अकबर से भिडऩे के स्थान पर उसे अन्य प्रकार से अपने विद्रोहों से उत्पीडि़त करता था। उसका लक्ष्य जनहित था और जनहित को सर्वोपरि मानकर वह अपना जीवन अपने लोगों की सेवा में समर्पित कर चुका था।

दुला भट्टी ने अपनी जनसेवा के लक्ष्य की साधना के लिए अनोखा परंतु अत्यंत संकटों से परिपूर्ण मार्ग का चयन किया। उसने मुगल बादशाह अकबर के राज्य में अमीरों, जमींदारों और जागीरदारों के यहां डकैती डालनी आरंभ कीं और उनसे प्राप्त धन को वह अपने निर्धन देशवासियों के कल्याण और उत्थान में लगाने लगा। इससे दुला भट्टी के प्रशंसकों और चाहने वालों की संख्या बढऩे लगी। निर्धन लोग अपनी इच्छा और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उसके पास जाते और अपना दुखड़ा रोते। उनके दुखों को सुनकर दुला भट्टी उठ खड़ा होता और जैसे भी संभव होता उनकी समस्याओं का समाधान करता।

दुला भट्टी मुसलमान होकर भी भारतीय लोगों और हिंदुओं की जिस प्रकार सेवा कर रहा था उसका पता अकबर को ना चले भला यह कैसे संभव था? अकबर को जब दुला भट्टी के विषय में ज्ञान हुआ तो वह अत्यंत क्रोधित हुआ। उसने अपने लोगों को आदेशित किया कि उसे डाकू घोषित कर जितनी शीघ्र हो सके उतनी शीघ्रता से समाप्त कर दिया जाए। इससे अकबर के सैनिक दुला भट्टी की खोज में निकल गये। परंतु दुला भट्टी के प्रशंसक लोग दूर-दूर तक फैले हुए थे उन्होंने भी अपने लोकोपकारी साथी को हृदय से अपना नेता ही मान लिया था। इसलिए अपने नायक के प्रति कृतज्ञता का भाव ज्ञापित करना प्रत्येक व्यक्ति का पुनीत कार्य था। जिसका निर्वाह करने के लिए उन लोगों ने अपने नायक का सुरक्षा चक्र तैयार कर लिया। ये लोग दुलाभट्टी को सुरक्षित करने के लिए गुप्तचर के रूप में कार्य करने लगे, जैसे ही कहीं कोई मुगल सैनिक इन्हें दिखता ये उसकी सूचना अपने माध्यमों से अपने नायक दुला भट्टी के पास पहुंचा देते और इस प्रकार दुला भट्टी बचकर निकल भागता। दुला ने मुगल सेना को बहुत देर तक छकाया।

अकबर भारतीय जनता को अपने नायक दुला भट्टी के विरूद्घ ना तो भडक़ा सका और ना ही उसके धर्म को खरीद सका।

दुला भट्टी का कार्य पूर्ववत बड़ी शांति के साथ जारी रहा। वह मुगलों को लूटता और उस धन से निर्धन लोगों की पुत्रियों का विवाह बड़े धूमधाम से करता। कहीं-कहीं वह यदि व्यक्तिगत रूप से किसी विवाह समारोह में उपस्थित ना हो पाता था तो वहां अपनी ओर से धन भेजकर सारी व्यवस्था अपने लोगों के माध्यम से करा देता।

कितने ही अवसरों पर मुगल सैनिकों के हाथ पड़ते-पड़ते दुला भट्टी रह गया था। जब सैनिक निराश होकर अपने उच्चाधिकारी को बताते कि उसे पकडऩे में वह एक बार पुन: निष्फल रहे हैं, तो उन पर अपने उच्चाधिकारियों की डांट पड़ती उसके पश्चात अकबर बादशाह की डांट संबंधित सूबेदार पर पड़ती थी।

दुला भट्टी के लोग पंजाब, जम्मू कश्मीर आज के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, हरियाणा, राजस्थान और पाकिस्तान के भी बहुत बड़े भूभाग पर सक्रिय हो गये थे। इतने बड़े भूभाग में अकबर ने कई बार 'ऑप्रेशन भट्टी' चलाया, परंतु परिणाम निराशाजनक ही निकला।

एक बार की बात है कि एक निर्धन ब्राह्मण अपनी पुत्री (जिसका नाम सुंदर मुंदरिये था) के विवाह में सहायता प्राप्त करने हेतु दुला भट्टी के पास गया। उसने अपनी व्यथा-कथा दुला भट्टी को सुनाई, तो दुला भट्टी उसकी सहायता के लिए तत्पर हो गया। उसने उस ब्राह्मण को निश्चिंत कर घर भेज दिया और कह दिया कि वह शीघ्र ही उसके घर आएगा।

निश्चित समय पर दुला भट्टी उस ब्राह्मण के घर गया। वह उसकी दरिद्रता को देखकर बहुत दु:खी हुआ। उसे वहां ज्ञात हुआ कि उस लडक़ी सुंदर मुंदरिये को कोई भाई नही था। अत: वह स्वयं उस लडक़ी का धर्मभाई बन गया। अब तो उसने स्वयं ने और भी अधिक मनोयोग से सुंदर मुंदरिये के विवाह का दायित्व संभाल लिया। इस घटना से सुंदर मुंदरिये के गांव परिवार के लोग तो परिचित हो ही गये, साथ ही अकबर के गुप्तचरों को भी ज्ञात हो गया कि सुंदर मुंदरिये को दुला भट्टी ने अपनी बहन मान लिया है, तो इसके विवाह में उसका आना निश्चित है। अत: अकबर के सैनिक दुला भट्टी के विषय में सावधान होकर पूरी तैयारी के साथ उसके आने की प्रतीक्षा करने लगे। अकबर ने भी अपने सैनिकों की सहायता के लिए पर्याप्त छद्म सेना भेज दी। अब इन सबका काम और लक्ष्य एक ही था कि जैसे भी हो दुला भट्टी का काम समाप्त किया जाए। अकबर भी नही चाहता था कि इस बार दुला भट्टी को पकडऩे में उसकी सेना असफल रहे। क्योंकि वह अपनी सेना को सहायता दे सकता था, पर उस सहायता के बदले उसे अपना शिकार भी चाहिए था। इसलिए आलस्य या प्रमाद के लिए वह किसी भी प्रकार से तैयार नही था। वह एक छोटे से व्यक्ति की इतनी बड़ी चुनौती को पूर्णत: कुचल देना चाहता था जो कि उसके पूरे साम्राज्य के लिए एक सिरदर्द बन चुका था।

सुंदर मुंदरिये का विवाह बड़े समारोहपूर्वक संपन्न हो गया। चारों ओर प्रसन्नता का वास था। पिता को असीम प्रसन्नता हो रही थी कि सुंदर मुंदरिये के भाई ने पूरी सत्यनिष्ठा का परिचय देते हुए अपनी बहन का वैवाहिक कार्यक्रम संपन्न करा दिया। यही स्थिति मां की थी। दोनों पति-पत्नी अपने जीवन की एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी से आज मुक्त हो गये थे। इससे भी अधिक प्रसन्नता उन्हें इस बात की थी पुत्री सुंदर मुंदरिये के लिए जीवन भर के लिए एक भाई मिल गया था। जिसे पाकर वह हृदय से गदगद थे।

विवाह कार्यक्रम में दुला भट्टी स्वयं उपस्थित हुआ था। वह अपने साथ दहेज का सारा सामान लेकर आया था। कहते हैं कि इसके साथ-साथ वह सौ मन शक्कर भी लेकर आया था। जब विवाह की सारी औपचारिकताएं पूर्ण हो गयीं तो दुला भट्टी ने अपनी बहन सुंदर मुंदरिये की विदाई के समय उसने भाई होने के कारण बहन के शॉल में शक्कर भरकर बारातियों के सामने रख दी। शक्कर के अधिक भार के कारण शॉल अधिक देर तक उस शक्कर का भार वहन नही कर सका। जिससे शॉल फट गया।

शक्कर (एक शुभ कार्य) के भार से शॉल का फट जाना, मात्र एक संयोग था या यह किसी अशुभ संयोग का संकेत था?

आज तक अपने शुभकार्यों से जो व्यक्ति सर्वत्र यश प्राप्त कर रहा था, पता नही आज उसके लिए क्या होने जा रहा है? जब दुला भट्टी अपनी बहन की डोली को विदा कर रहा था तब भी अकबर के छद्म सैनिक वहां उपस्थित थे, परंतु उन्होंने उस समय तक उससे कुछ नही कहा जब तक डोली विधिवत विदा नही हो जाए। जैसे ही डोली विदा हुई तो अकबर के छद्मी सैनिकों ने अचानक दुला भट्टी पर आक्रमण कर दिया। इस हमला में दुला भट्टी को संभलने तक का अवसर नही दिया गया। इतनी शीघ्रता से और तेजी से हमला किया गया कि दुला भट्टी को बचने तक का भागने तक का अवसर नही मिला। कुछ ही समय के संघर्ष के उपरांत दुला भट्टी को मार दिया गया। इस प्रकार एक धर्मरक्षक सैनिक का बलिदान हो गया।

शहीद की परिभाषा करते हुए विद्वानों का मत रहा है कि-''जो मनुष्य निरंतर चुनौती देने पर भी अपने आदर्श पर दृढ़ता से डटा हुआ अपने प्राणों की आहुति दे दे अथवा बलिदान हो जाए, किंतु अपनी धारणा में परिवर्तन न लाए ऐसे बलिदानी पुरूष को शहीद कहते हैं। दूसरे शब्दों में जिस मनुष्य को अपने प्राण सुरक्षित करने के लिए शत्रुओं द्वारा कम से कम एक अवसर प्रदान किया जाए, पर फिर भी वह अपने आदर्शवादी मार्ग को त्याग देने के लिए तैयार न हो, वह शहीद कहलाता है।''

यदि शहीद की इस परिभाषा के अनुसार दुला भट्टी के जीवन को देखा जाए, तो वह वीर किसी भी प्रकार से शहीद से कम नही था। उसका एक जीवन ध्येय था (और जो निस्संदेह महान ध्येय था) निर्धनों की सेवा, स्वदेशी लोगों की नि:स्वार्थ भाव से सेवा। हम देखते हैं कि उसे तत्कालीन शासन सत्ता ने सुधरने का अवसर भी दिया और उसके स्वयं के पास भी विकल्प था कि वह मुस्लिम होने के कारण अकबर का हितैषी बनकर उसका कृपापात्र बन जाता। पर उसने ऐसे किसी भी अवसर का उपयोग करना उचित नही माना। वह संघर्ष से पीछे नही हटा और निरंतर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता गया।

अंत में जब वह हुतात्मा हो गया तो जनता के लिए यह समाचार किसी वज्रपात से कम नही था, जितनी दूर तक दुल्ला भट्टी की मृत्यु का समाचार गया, उतनी ही दूर तक लोगों ने अपने नायक की मृत्यु पर गहरा शोक मनाया। उसकी मृत्यु पर लोगों ने जिस प्रकार शोक प्रकट किया उसे देखकर अयोध्यासिंह उपाध्याय जी की ये पंक्तियां बड़ी सार्थक प्रतीत होती है :-

'जिसके हों ऊंचे विचार पक्के मनसूबे।
जो होवे गंभीर भीड़ के पड़े न ऊबे।।
हमें चाहिए आत्म त्याग रत ऐसा नेता।
रहे जगति हित में जिसके रोयें तक डूबे।।'

दुला भट्टी के रोम-रोम में अपने देशवासियों के प्रति प्रेम भरा था, वह उनकी व्यथाओं से व्यथित था-इसलिए उनका उद्घार चाहता था। अपने इसी आदर्श के लिए दुला भट्टी ने अपनी समकालीन मुगल सत्ता के सबसे बड़े बादशाह अकबर से टक्कर ली। वह जब तक जीवित रहा तब तक अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए संघर्ष करता रहा। देश की सत्ता ने चाहे उसे राजद्रोही मान लिया हो, पर वह राष्ट्रद्रोही नही था, उसका राष्ट्र और उसके राष्ट्रवासी तो उससे असीम स्नेह रखते थे।

'भटनेर का इतिहास' के लेखक हरिसिंह भाटी इस पुस्तक के पृष्ठ संख्या 183 पर लिखते हैं :-''दुला भट्टी की स्मृति में पंजाब, जम्मू कश्मीर, दिल्ली, हरियाणा राजस्थान और पाकिस्तान में (अकबर का साम्राज्य की लगभग इतने ही क्षेत्र पर था) लोहिड़ी का पर्व हर्षोल्लास के साथ मकर संक्रांति (14 जनवरी) से एक दिन पूर्व अर्थात प्रति वर्ष 13 जनवरी को मनाया जाता है। उसके काल में यदि धनाभाव के कारण कोई हिंदू या मुसलमान अपनी बहन बेटी का विवाह नही कर सकता था तो दुला धन का प्रबंध करके उस बहन बेटी का विवाह धूमधाम से करवाता था। अगर वह स्वयं विवाह के समय उपस्थित नही हो सकता था तो विवाह के लिए धन की व्यवस्था अवश्य करवा देता था।''

इस प्रकार लोगों ने अपने नायक को हुतात्माओं की श्रेणी में रखकर उसे अमर कर दिया। पर हमारा इतिहास उसे आज भी तत्कालीन शासन-सत्ता की दृष्टि से एक राजद्रोही के रूप में ही देख रहा है, इसलिए उसका इतिहास के पन्नों में कहीं कोई उल्लेख नही है। यह न्याय किया है-हमने अपने दुला भट्टी के साथ। दुला भट्टी की स्मृतियों को धुंधलके की ऐसी चादर में लपेटा गया है कि अब तो अधिकांश लोग लोहड़ी के विषय में भी नही जानते कि इस पर्व को अंतत: मनाया क्यों जाता है?

दुला भट्टी को मुगलों ने एक डाकू के रूप में उल्लिखित किया है। परंतु उसे डाकू कहना उसकी वीरता का अपमान करना है। कारण कि डाकू का उद्देश्य दूसरों का धन हड़पकर अपनी निजी आवश्यकताओं की पूर्ति करना होता है। इसके लिए डकैत का कोई सिद्घांत नही होता कि उसे ऐसा धन किसी विशेष व्यक्ति से लेना है छीनना है और किसी विशेष व्यक्ति वर्ग से नही छीनना है वह तो धनी, निर्धन छोटे-बड़े किसी से भी धन छीन सकता है। किसी की कमाई की संपत्ति को हड़पने वाला व्यक्ति निश्चित रूप से डकैत होता है।

पर हम देखते हैं कि दुला भट्टी का जीवन ध्येय ऐसा नही था। उसने देश की धन संपत्ति को लूटने वाले डाकू मुगलों के यहां डकैती डाल-डालकर उसे निर्धनों में बांटना आरंभ किया। जो स्वयं लुटेरे थे उन्हें लूटना कोई अनैतिक कार्य नही था। मुगलों से लूटे हुए धन को निर्धनों पर व्यय करना तो उस धन को पवित्र बना देने जैसा था और उससे दुला भट्टी के कार्य को हर व्यक्ति का और तत्कालीन समाज का नैतिक समर्थन प्राप्त हो गया। अत: दुला भट्टी को हमें तत्कालीन भारतीय समाज की दृष्टि से देखना चाहिए, शासक वर्ग की दृष्टि से। उसकी पावन-स्मृति में मनाये जाने वाले पर्व लोहड़ी को हमें और भी अधिक गरिमा प्रदान करनी चाहिए, जिससे कि उसके मनाये जाने के पावन उद्देश्य को लोग समझ सकें और हम भी एक शहीद को उसका सच्चा स्थान इतिहास में दे सकें।

हरिसिंह भाटी कहते हैं :-''संसार में जहां भी पंजाबी होंगे लोहड़ी अवश्य मनायी जाती है। लोहड़ृी के दिन सामूहिक रूप से लकड़ी फूस को होली की तरह जमा करके ढेरी बनायी जाती है। संध्या समय उस ढेरी को प्रज्ज्वलित करके उसके चारों ओर मौहल्ले के स्त्री, पुरूष बच्चे फेरी लगाते हैं और सब मिलकर एक लाल व लय में....लोकगीत गाते हैं।''

हमारा मानना है कि लोहड़ी को यदि एक राष्ट्रीय पर्व मान लिया जाए तो इसकी सच्चाई से प्रत्येक भारतीय अवगत हो सकता है।

साभार – उगता भारत

एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें