अनूप मिश्रा जी की उलटबांसी - भितरघात के संकेत या खुला विद्रोह ?


मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव जैसे जैसे नजदीक आते जा रहे हैं, बैसे बैसे राजनैतिक गतिविधियाँ भी बढ़ने लगी हैं | अब तक किनारे बैठ कर लहरें गिनते रहे सूरमा भी अब जहाजी बनने की तुक तान भिडाने लगे हैं | ग्वालियर चम्बल इलाका तो इसमें अब्बल रहने को ही ठहरा | क्योंकि यहाँ का तो घोष वाक्य ही है – जाको बैरी सुख से सोवे, ताके जीवन को धिक्कार | अगर हम किनारे बैठे हैं तो जिनके कारण बैठे हैं, वे हमारे दुश्मन नंबर एक | 

अटल जी के प्रभामंडल से राजनीति में अब तक चमकते रहे अनूप जी अब भाजपा में ऐसे सूरमाओं का नेतृत्व संभालने को आगे बढ़ रहे प्रतीत होते हैं | अभी तक तो वे मुरैना संसदीय क्षेत्र से सांसद हैं, किन्तु अटलजी के पार्श्व में जाने के बाद उनकी अगली भूमिका क्या होगी, उन्हें कोई महत्व मिलेगा या नहीं, वे असमंजस में हैं |

पार्टी नेतृत्व का ध्यान आकृष्ट करने को पहले तो उन्होंने दाढी बढाई, पर बात किसी की समझ में ना आई, पत्रकारों ने तो कुरेदा, पर पार्टी के वरिष्ठ जनों ने कोई ध्यान नहीं दिया | कब तक बाबा बने घुमते, सो दाढी कटाई और ग्वालियर के असंतुष्टों की एक बैठक कर डाली | पर गजब है भाजपा, फिर भी किसी ने ध्यान नहीं दिया |

अब कदम आगे बढ़ा ही दिए, तो पीछे क्या हटाना ? सिंधिया जी के साथ पापरीकर जी को स्मरण करते करते मंच पर हंसी ठिठौली करते फोटो सेशन कर डाला | पहले तो सिंधिया जी और अनूप जी के बीच में महापौर शेजवलकर जी बैठे थे, उन्हें बीच में से हटाया, फिर कानाफूसी का दौर चलाया | मंच से उतरते ही सिंधिया जी के संसदीय क्षेत्र शिवपुरी जा धमके और यहाँ पत्रकार वार्ता में कह डाला कि मुंगावली का वह प्राचार्य, जिसने कोलेज परिसर में कांग्रेस के झंडे बैनर लगवाये और ज्योतिरादित्य जी का कार्यक्रम करवाया, वह तो एक भला आदमी है | उसे सरकार ने निलंबित कर गलती की है |

क्या अब भी दो जमा दो चार नहीं करेगा भाजपा नेतृत्व | यातो पूछपरख करो, नहीं तो हमारा रास्ता अलग, आपका अलग | बैसे भी बहिन जी छत्तीसगढ़ में भाजपा को तिलांजली देकर कांग्रेस का झंडा थाम ही चुकी हैं | यहाँ भी अगर अनूप जी ने शिवराज जी को ब्राह्मण विरोधी करार देकर कमर कस ली, तो सिंधिया जी की तो बाछें खिल ही जाना है |

तय है कि भाजपा को भितरघाती इस बार बड़ा संकट बनने वाले हैं, किन्तु इसमें भी भविष्य के लिए अच्छे संकेत छुपे हैं | वे छुपे नहीं रह पायेंगे, उन्हें सामने आना ही होगा, इस पाले में या उस पाले में | राजनीति बहुत बेढव चीज है | मुझे स्मरण आता है १९८९ का शिवपुरी विधानसभा का उप चुनाव, जिसमें एक कांग्रेसी पूर्व विधायक गणेश गौतम को भाजपा ने टिकिट थमा दिया था | वे सिंधिया जी के ही नजदीकी माने जाते थे | उस प्रत्यासी चयन में सबसे बड़ी भूमिका अनूप जी की ही रही थी | शायद सिंधिया जी ने सोचा था कि गणेश जीते, चाहे उनका कांग्रेस प्रत्यासी, उनके तो दोनों हाथ में लड्डू रहेंगे | यातो उनका एक पट्ठा भाजपा में नेता के रूप में स्थापित हो जाएगा, और अगर कांग्रेस केंडीडेट जीता तो वह तो उनका है ही | अगर हमारा बछड़ा पडौसी की गाय के थन से दूध पी आये तो क्या हर्ज है ? और यह बात तब सत्य साबित हुई, जब गणेश गौतम कुछ ही समय बाद अपने मूल स्थान अर्थात कांग्रेस में ही जाकर महाराज को जुहार करते दिखाई दिए |

लब्बो लुआब यह कि भाजपा में रहकर, स्वयं को सिंधिया विरोधी प्रदर्शित करने वाले कई नामचीन नेता, दर हकीकत सिंधिया जी के ही मोहरे होते हैं | दोनों तरफ से राजवंश के ही प्यादे होते हैं | जनता के लिए तो खाओ तो कद्दू, न खाओ तो भी कद्दू ही है |

शायद इस बार भाजपा शुद्धीकरण हो जाए | आशा करने में क्या जाता है ? 

अब निगाहें भाजपा के क्षेत्रीय क्षत्रप नरेंद्र सिंह तोमर, जयभान सिंह पवैया, प्रभात झा और संकट मोचक नरोत्तम मिश्रा की ओर हैं कि वे इस नई चुनौती का सामना कैसे करते हैं ? रणनीति बनाने की दिशा में अभी तक तो ज्योतिरादित्य बाजी मारते दिखाई दे रहे हैं |

एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें