पाकिस्तान के जन्मदाता को भारत में हीरो बनाने वाले प्रणव मुखर्जी - हम शर्मिंदा हैं कि आप हमारे राष्ट्रपति रहे |


'धर्मनिरपेक्षता' भारत में चरम पर है | यह उफान कितना घिनौना है कि इसे शब्दों में बयान करना भी कठिन है | वह सर सैयद अहमद खान, जिसने भारत उप महाद्वीप में सबसे पहले मुस्लिम अलगाववाद की नींव रखी, और अपने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एमआइयू) की स्थापना की, पिछले हफ्ते उसीकी 200 वीं जयंती मनाई गई ।
इससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि किसी ने इस पर गौर नहीं किया, आपत्ति तो दूर की बात है |

इसके विपरीत कई समाचार पत्रों ने सर सैयद और उनकी अभूतपूर्व सेवाओं का गुणगान किया |पिछले मंगलवार को देश के पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने एएमयू के एथलेटिक्स ग्राउंड में एक सभा को संबोधित करते हुए सर सैयद को भारत का "दूरदर्शी नेता" बताया | वे इतने पर ही नहीं रुके, उन्होंने उनके द्वारा अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना की प्रशंसा करते हुए, "इसे भारतीय राष्ट्रवाद और लोकाचार का आदर्श उदाहरण" कहा।

सवाल उठता है कि अगर भारत सर सैयद को नायक मान सकता है, तो मोहम्मद इकबाल और मोहम्मद अली जिन्ना को ऐसा सम्मान क्यों नहीं मिलना ​​चाहिए? 

आखिर सर सैयद, जिन्ना और इकबाल – तीनों ही पाकिस्तान के संस्थापक के रूप जाने जाते हैं। इन तीनों को पाकिस्तानी स्कूल की किताबों में मुस्लिम नेताओं के रूप में वर्णित किया गया है, जिन्होंने हिंदू-मुस्लिम अलगाववाद पर बल दिया, और अंततः पाकिस्तान का निर्माण कराने में सफल हुए | भारत की दृष्टि से कहें तो इन तीनों ने ही विभाजनकारी मानसिकता को बढ़ावा दिया।

एक्सप्रेस ट्रिब्यून में परवेज हूडभॉय का एक लेख प्रकाशित हुआ है, जिसमें इकबाल और सर सैयद की कई समानताओं का उल्लेख हैं। दोनों को ब्रिटिश साम्राज्य की उत्कृष्ट सेवाओं के लिए नाइट की उपाधि प्रदान की गई थी, दोनों पर्दा प्रथा के समर्थक थे, और दोनों ही कट्टर धार्मिक पृष्ठभूमि के थे । द एक्सप्रेस ट्रिब्यून पाकिस्तान का एक प्रतिष्ठित बहु-संस्करण अंग्रेज़ी दैनिक है और श्री हुदभाय एक विख्यात पाकिस्तान परमाणु भौतिक विज्ञानी है।

पाकिस्तान, अपनी अलग पहचान के प्रति बेहद सजग है | उसने गांधीजी, नेताजी या भगत सिंह जैसे विभाजन पूर्व के किसी व्यक्तित्व के नाम पर अपनी किसी भी सार्वजनिक इमारत या संस्था का नाम नहीं रखा है। जबकि पाकिस्तान की विचारधारा में उनके योगदान को पहचानते हुए, सर सैयद के नाम पर वहां दर्जनों प्रतिष्ठित संस्थान हैं । सर सैयद की स्मृति में कई योजनायें चल रही हैं, इतना ही नहीं तो पाकिस्तान के डाक विभाग ने भी पिछले हफ्ते उनकी 200 वीं जयंती पर उनकी स्मृति में एक स्मारक डाक टिकट जारी किया है।

इकबाल और जिन्ना तो प्रारम्भिक दौर में राष्ट्रवादी थे, और बाद में भारत विभाजन की ब्रिटिश कूटनीति में सम्मिलित हुए, जबकि सर सैयद तो अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत से ही द्विराष्ट्र सिद्धांत के लिए प्रतिबद्ध थे। उन्होंने मुसलमानों को अंग्रेजी तालीम दिलाने के लिए काम किया, ताकि वे हिंदुओं के खिलाफ अंग्रेजों के साथ गठबंधन कर सकें और वह उसमें सफल रहे।

सर सैयद एक मुस्लिम सामंत परिवार से थे | वे 1838 में ईस्ट इंडिया कंपनी में शामिल हो गये और 1867 में एक छोटे से कोर्ट में न्यायाधीश बन गए तथा 1876 में सेवानिवृत्त हुए। 1857 के स्वतंत्रता के पहले युद्ध के दौरान, वह साम्राज्य के प्रति वफादार रहे और कई यूरोपीय लोगों के जीवन की रक्षा की और इस प्रकार ब्रिटिशों के विश्वासपात्र बन गए ।

1 अप्रैल 1869 को, वह अपने बेटे सैयद महमूद के साथ इंग्लैंड गए, जहां उन्हें 6 अगस्त को ऑर्डर ऑफ द स्टार ऑफ इंडिया से सम्मानित किया गया। अंग्रेजों के साथ उनका सहयोग पूर्ण निकट सम्बन्ध सदा रहा ।

1887 में, उन्हें लॉर्ड डफ़रिन द्वारा सिविल सेवा आयोग के सदस्य के रूप में नामित किया गया । अगले वर्ष, उन्होंने ब्रिटिश सरकार के साथ राजनीतिक सहयोग को बढ़ावा देने और सरकार में मुस्लिम भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए अलीगढ़ में संयुक्त देशभक्त संघ (United Patriotic Association) की स्थापना की।

सर सैयद को खान बहादुर का खिताब दिया गया था और बाद में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें 18 9 8 में नाइट की उपाधि भी प्रदान की । ब्रिटिश ताज के प्रति निष्ठा के लिए उन्हें इंपीरियल लेजिस्लेचर काउंसिल की सदस्यता के माध्यम से नाइट कमांडर ऑफ़ द ऑर्डर ऑफ़ स्टार ऑफ इंडिया (केसीएसआई) बनाया गया था । हमारे समय के कश्मीर के अब्दुल्लाहों की तरह, सर सैयद की जिव्हा भी कांटेदार थी । वह समय के अनुसार रंग बदलने में माहिर थे । लेकिन उनका बुनियादी एजेंडा था - हिंदू और मुस्लिमों के बीच की खाई को चौड़ा करना और अपने सह-धर्मियों और अपने ब्रिटिश स्वामी के बीच संबंधों को मजबूत करना | और इसके लिए-वे सदा सचेष्ट रहे।

इस संदर्भ में, 16 मार्च 1888 को मेरठ में दिए गए सर सैयद के भाषण ध्यान देने योग्य हैं। उसके कुछ अंश इस प्रकार हैं –

"अब, मान लीजिए कि अंग्रेजी समुदाय और उनकी सेना भारत छोड़ जाती है, वे अपने साथ सभी तोपें और शानदार हथियार आदि भी ले जाते हैं, तो भारत का शासक कौन होगा ? ऐसी परिस्थिति में क्या यह संभव होगा कि दो राष्ट्र - मुसलमान और हिंदू - एक ही सिंहासन पर बैठकर सत्ता में समान भागीदार रहे? निश्चित रूप से नहीं | उनमें से एक, दूसरे को जीतेगा ... ओह, मेरे मुसलमान भाईयो, आपने भारत पर सात सौ साल हुकूमत की है । तुम्हें पता है कि शासन कैसे किया जाता है। इसलिए उस राष्ट्र के साथ अन्याय न करें जो आपके ऊपर शासन कर रहा है, और यह भी सोचें कि उसका शासन कितना आसान है। अन्य विदेशी राष्ट्रों की तुलना में अंग्रेजी सरकार जैसी परोपकारिता का कोई दूसरा उदाहरण इतिहास में नहीं है |

"हमें उस राष्ट्र से एकजुट होना चाहिए जिसके साथ हम एकजुट रह सकते हैं। कोई मुसलमान इस बात से इनकार नहीं कर सकता है कि गॉड ने कहा है कि ईसाईयों को छोड़कर अन्य किसी धर्म के लोग मुसलमानों के दोस्त नहीं हो सकते हैं। इसलिए, हमें उनके साथ मेल-जोल करना चाहिए और ऐसे उपाय करना चाहिए, जिससे उनका शासन भारत में स्थायी और दृढ़ बना रह सके, और बंगालियों के हाथों में न चला जाये । "

इस प्रकार सर सैयद ने कांग्रेस और उसके नेताओं के प्रति अपनी नफ़रत का इजहार किया, क्योंकि कांग्रेस नेतृत्व में उन दिनों बड़े पैमाने पर बंगाली थे | अपने जीवन के आखिरी दस सालों में, उन्होंने निर्लज्जता से अंग्रेजों का समर्थन और कांग्रेस का जोरदार विरोध किया | उन्होंने द्वि राष्ट्र सिद्धांत का इतनी गहराई से प्रचार किया कि उनकी मानसिक संतान अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) ने तो पाकिस्तान के निर्माण में निर्णायक भूमिका निभाई। यहाँ तक कि 1941 के प्रारम्भ में मुहम्मद अली जिन्ना ने अपने उद्देश्य पूर्ति में एमयू छात्रों के योगदान को स्वीकारते हुए विश्वविद्यालय को "पाकिस्तान का शस्त्रागार" कहा था। 

31 अगस्त 1 9 41 को मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्रों को संबोधित करते हुए, लीआकत अली खान ने घोषणा की: "हम आप लोगों में से ही मुस्लिम राष्ट्र की स्वतंत्रता की लड़ाई जीतने के लिए हर तरह के गोला-बारूद की तलाश करते हैं।" स्मरणीय है कि लियाकत अली खान ही बाद में पाकिस्तान के पहले प्रधान मंत्री बने |

आगा खान ने 1954 में अलीगढ़ के छात्रों को इन शब्दों में श्रद्धांजलि अर्पित की: "अक्सर, सभ्यताओं के इतिहास में विश्वविद्यालय एक राष्ट्र के बौद्धिक और आध्यात्मिक पुनर्जागरण के लिए महत्वपूर्ण होता है ... अलीगढ़ भी कोई अपवाद नहीं है। लेकिन हम गर्व के साथ दावा कर सकते हैं कि अलीगढ़ हमारी अपनी कोशिशों का उत्पाद है और इसमें किसी बाहरी तत्व की कोई भूमिका नहीं है और निश्चित रूप से यह भी माना जा सकता है कि पाकिस्तान का स्वतंत्र संप्रभु राष्ट्र, अलीगढ़ के मुस्लिम विश्वविद्यालय में ही पैदा हुआ था। "

अगर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी न होती तो आज शायद पाकिस्तान भी नहीं होता। और सर सैयद की द्विराष्ट्रवाद की विनाशक '' दृष्टि '' न होती तो विनाशकारी क्षमता के साथ कोई एएमयू भी नहीं होता।

क्या आप शर्मिंदा नहीं हैं, कि ऐसे व्यक्ति को हीरो मानने वाला व्यक्ति हमारा राष्ट्रपति रहा ? मैं तो शर्मिन्दा हूँ, आपकी आप जानें |

साभार आधार – श्री बलबीर पुंज का डेली पायोनियर में प्रकाशित इंग्लिश आलेख 


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