ग्रामीण परिधान और झब्बेदार मूंछों में छुपी अपार बौद्धिक प्रतिभा - स्व. माणिकचन्द्र वाजपेयी




झब्बेदार मूछें, ठेठ ग्रामीण पहनावा, देखकर कोई उनकी प्रतिभा का अंदाज ही नहीं लगा सकता | सहज, सरल, विनम्र, किन्तु विचारों पर अडिग, ऐसे थे मध्यप्रदेश के ख्यातनाम पत्रकार माणिकचन्द्र जी वाजपेई उपाख्य “मामा जी” | आज वे हमारे बीच नहीं है, किन्तु उनके उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का पुण्यस्मरण नई पीढी को नई दिशा और प्रेरणा दे सकता है | 

सरलता, सादगी तथा अपनत्व के प्रतीक स्व॰ माणिकचन्द्र वाजपेयी का जन्म 7 अक्टूबर 1919 को वटेश्वर जिला आगरा (उ.प्र.) में हुआ था। बाल्यकाल से ही राष्ट्रवादी भावना से प्रभावित रहे मामाजी 1944 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक बने। 1944 से 1953 तक उन्होंने भिण्ड में प्रचारक के रूप में बड़ी संख्या में बालकों, युवाओं को संघ से जोड़ा। पारिवारिक कारणों से वे प्रचारक व्यवस्था से वापस लौटे और सन् 1954 से 1964 तक लहरौली, जिला भिण्ड में शिक्षक रहे। फिर 1964 से 1966 तक विद्यालोक उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में प्रधानाचार्य रहे। आपातकाल के दौरान वे 20 महीने जेल में बंद रहे। इसी अवधि में उनकी धर्मपत्नी का देहावसान हो गया, इसके बावजूद मामाजी विचलित नहीं हुए। 1985 के पश्चात् वे पुन: संघ के प्रचारक बने और प्रान्तीय प्रचार प्रमुख सहित अनेक दायित्वों का निर्वाह किया। वे स्वदेशी जागरण मंच के मध्य भारत प्रान्त के संयोजक भी रहे। जनसंघ की स्थापना के बाद सन् 1951 से 1954 तक उन्होंने संगठन मंत्री के रूप में भी कार्य किया। प्रतिकूल परिस्थितियों में संगठन के आदेश पर 1952 में वे भिण्ड से राजमाता विजयाराजे सिंधिया के खिलाफ चुनाव भी लड़े।

उन्होंने लहरौली जिला भिण्ड से प्रकाशित 'देशमित्र' के सम्पादक के रूप में पत्रकारिता की शुरूआत की थी। वे दैनिक स्वदेश, इंदौर से पत्र के स्थापना वर्ष 1966 से ही जुड़े हुए थे और 1968 से 1985 तक इसके सम्पादक रहे। उन्होंने 'स्वदेश' भोपाल, जबलपुर, सागर व रायपुर, बिलासपुर के सलाहकार सम्पादक तथा स्वदेश ग्वालियर, गुना तथा झांसी के प्रधान सम्पादक के रूप में 1987 से 2005 तक पत्रकारिता की नई पौध का अंतिम समय तक पथ प्रदर्शन किया। 

उन्होंने महत्वपूर्ण राष्ट्रीय विषयों पर आधा दर्जन से अधिक पुस्तकों की रचना भी की थी तथा उनकी कई लेखमालाएं बहुचर्चित रहीं। मामाजी तात्कालिक विषयों पर गहन अध्ययन करने के साथ ही देश से जुड़े अनेक विषयों पर भी चिंतन-मनन करते थे। उनके आलेख बहुत धारदार होते थे। दैनिक स्वदेश, इंदौर की स्थापना के बाद से ही मामाजी इससे जुड़ गए थे तथा 1968 से 1985 तक स्वदेश इंदौर के सम्पादक रहे। "केरल में माक्र्स नहीं महेश", "राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने संविधान के आइने में", "समय की शिला पर" आदि उनकी लेखमालाएं बहुचर्चित रहीं। उन्होंने "आपातकालीन संघर्षगाथा", "प्रथम अग्नि परीक्षा", "भारतीय नारी : विवेकानंद की दृष्टि में," "कश्मीर का कड़वा सच", "पोप का कसता शिंकजा", "ज्योति जला निज प्राण की" जैसी अनुपम कृतियों की रचना की।

किन्तु यह सब तो बहुत बाद की बात है | हम मामाजी की चर्चा आजादी के पूर्व से प्रारम्भ करते हैं | उस समय भिंड की आवादी मात्र १४००० के आस पास थी तथा बह एक कस्बा मात्र था | ग्वालियर राज्य के अन्य क्षेत्रों के समान यहाँ की जनता भी राजशाही की भक्त थी | राजनैतिक चेतना ना के बराबर थी | समाज रूढ़ियों से बंधा हुआ था | पूरे देश में कांग्रेस एक जन आन्दोलन बनी थी किन्तु यहाँ श्री यशवंत सिंह कुशवाह तथा श्री हरिकिशन दास भूता उज्जैन से पंजीकृत सार्वजनिक हितकारी सभा के नाम से कांग्रेस की गतिविधियों का संचालन करने को विवश थे और उन गतिविधियों में भी सामान्य जन की भागीदारी नगण्य थी | क्योंकि तत्कालीन सिंधिया राजवंश ने कांग्रेस को प्रतिबंधित संगठन घोषित किया हुआ था |

इसी विकट परिस्थिति में जुलाई १९४४ में मुरार के तृतीय वर्ष शिक्षित स्वयंसेवक माणिक चंद वाजपेई को यहाँ का जिला प्रचारक नियुक्त किया गया | ग्वालियर के तत्कालीन विभाग प्रचारक भैयाजी सहस्त्र बुद्धे स्वयं उन्हें लेकर भिंड आये तथा उनका स्थानीय स्वयंसेवकों से परिचय कराया | श्री माणिक चंद जी वाजपेयी को सभी मामाजी का आत्मीय संबोधन देते थे | 

राजनैतिक विद्वेष का माहौल न होने के कारण स्थानीय हाई स्कूल के प्रांगण में शाखा लगती थी | यहाँ तक कि विद्यालय भवन में ही बैठक इत्यादि होने पर कोई आपत्ति नहीं करता था | कुछ समय के लिए यह विद्यालय ही संघ की गतिविधियों का प्रमुख केंद्र रहा | अनेक मेधावी छात्र इस दौरान संघ के स्वयंसेवक बने | हाई स्कूल संघमय हो गया | स्थिति यह थी कि संघ का कोई कार्यक्रम होने पर अधिकांश विद्यार्थी उसमें सहभागिता करते तथा विद्यालय का अघोषित अवकाश सा हो जाता | मामाजी के प्रयत्नों से संघ की शाखाओं में सभी आयु, वर्ग वा जातियों के लोग आने लगे संघ स्वयंसेवकों में "हम सब हिन्दू" भाव इतना प्रबल हुआ कि रूढ़ियों को ठोकर मारकर सब कंधे से कंधा मिलाकर संघ के कार्यक्रमों में भाग लेने लगे | हरिजन तथा पिछड़े वर्ग के समाज वन्धु भी शाखा पर आने लगे | एकत्रीकरण की संख्या ३०० से अधिक रहने लगी | 

भुतहा हवेली बनी कार्य विस्तार का आधार –

संघ कार्य के लिए कार्यालय की आवश्यकता थी किन्तु अर्थाभाव के कारण कठिनाई थी | एसे में भुतहा माना जाने बाला एक बड़ा भवन मात्र १५ रुपये मासिक किराए पर उपलव्ध हो गया | क्योंकि उस मकान में कोई रहने को तैयार नही होता था | उस भवन का उपयोग कार्यालय के साथ साथ छात्रावास के रूप में किया जाने लगा | मामाजी को भी गणित, अंग्रेजी आदि विषय पढ़ाने का खासा अभ्यास था | इस कारण इस कार्यालय नुमा होस्टल में रहने बाले ग्रामीण विद्यार्थियों को मामा जी पढ़ाया भी करते थे | धीरे धीरे ये विद्यार्थी संघ की शाखाओं में भी आने लगे | इतना ही नही तो उनके माध्यम से भिंड के आसपास के ग्रामीण अंचल में भी संघ शाखाए प्रारम्भ हो गई | अनेकों ग्रामीण परिवार संघ से जुड़ गए | जब ग्वालियर सहित अन्य जिलों में संघ कार्य केवल नगरों तक सीमित था तब भिंड के ४० गाँवों में शाखाएं प्रारम्भ हो चुकी थीं | सम्पर्कित गाँवों की संख्या तो १०० से भी अधिक थी |

सन १९४८ में संघ पर प्रतिबन्ध लग जाने पर मामा जी के राज्य से निष्कासन हेतु आदेश प्रसारित हुए | यद्यपि संघ कार्य उस समय जिले में अत्यंत प्रभावी एवं व्यापक हो चुका था किन्तु प्रचार वा प्रसिद्धि से दूर रहने के कारण कोई भी पुलिस अधिकारी या शासकीय कर्मचारी मामा जी को नही पहचानता था | इसके चलते एक मजेदार घटना घटी | भिंड में कांग्रेस के प्रसिद्ध नेता भूता जी के साले को भी जन सामान्य में मामाजी कहकर पुकारा जाता था | गड़बड़ करने बाले संघ के मामाजी यही होंगे यह मानकर पुलिस के लोग भूता जी के पास पहुंचे और बड़े ही संकोच से सरकारी आदेश की जानकारी उन्हें दी | विनोदी स्वभाव के भूताजी ने कहा कि साले ने कोई गड़बड़ कर दी होगी, पकड़ लो | बस फिर क्या था ? नाम के आधार पर पुलिस ने उन्हें धर दबोचा और हवालात में बंद कर दिया | तब कही चिल्लपों मची और भूताजी ने पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों को फोनकर बताया कि आदेश संघ प्रचारक मामाजी के लिए है और पुलिस ने उनके साले को बंद कर दिया है | तब कहीं जाकर वे महाशय मुक्त हुए | और मजा यह कि जब यह सब नाटक चल रहा था, तब मामा माणिक चंद जी वाजपेई कोतवाली के सामने ही सूर्य नारायण भटनागर के मकान के दालान में खुले आम आराम फरमा रहे थे | 

इस दौरान ही एक और वाकया हुआ | संघ पर प्रतिवंध तथा जिलाबदर के आदेश हो जाने के बाद भी मामाजी भिंड में ही रह रहे थे | तब उनका निवास झांसी मोहल्ले के मंसाराम शर्मा के घर पर था | कार्यकर्ता भी उनसे मिलने के लिए बहां आते जाते रहते थे | एक कांग्रेसी नेता ने बहां हलचल होती देखकर पुलिस को सूचना दे दी कि यहाँ से संघ की गतिविधियाँ संचालित हो रही हैं | इस खबर के बाद पुलिस ने उस मकान की निगरानी शुरू कर दी | मंसाराम का मकान एक पतली गली के छोर पर था | इस गली के अलावा मकान से बाहर जाने का कोई रास्ता भी नही था | आसपास ३-४ मुस्लिम परिवार रहते थे | पुलिस की गतिविधियाँ देखकर मामाजी पडौस के मुंसी खान के घर चले गए | मकान मालिक ने उन्हें दरबाजे के सामने ही चारपाई पर लिटाकर ऊपर से चादर ओढा दी | कुछ देर बाद जब पुलिस ने मंसाराम के मकान पर छापा मारा तो बहां मामाजी तो नही हाँ कुछ गणवेश की नेकर और टोपी जरूर बरामद हुई, जिन्हें जब्त कर पुलिस ने पंचनामा बनाया | एक गवाह तो मुंसी खान को ही बनाया गया | दूसरे गवाह के रूप में जब चादर ओढ़कर सामने लेटे हुए मामाजी को बुलाने को कहा तो मुंसी खान ने उन्हें अपना बीमार रिश्तेदार बताकर मना किया | किसी मुसलमान के यहाँ संघ प्रचारक हो सकता है, यह पुलिस सोच भी नहीं सकती थी | इसलिए उन लोगों ने इस बात पर सहज यकीन भी कर लिया | इस प्रकार मामाजी पुलिस की गिरफ्त में आने से बच गए |

नरसिंहराव दीक्षित कांग्रेस के जाने माने नेता थे | उनकी कोठी के पीछे ही उनके चचेरे भाई का आवास था | नरसिंहराव जी का भतीजा हरनारायण संघ का बाल स्वयंसेवक था | प्रतिवंध के दौरान कई बार मामाजी उस घर में भी रहे | पडौस में ही एक पुलिस हवलदार भी रहते थे, जिनका छोटा भाई भी संघ का स्वयंसेवक था | यद्यपि हवलदार ने अपने भाई से कहा हुआ था कि जब भी मामाजी दिखें बह उसे बतादे, जिससे मामाजी को पकड़कर उसे उच्चाधिकारियों की निगाह में चढने का अवसर मिले | किन्तु उस बाल स्वयंसेवक ने अपने भाई को मामाजी की जानकारी देना तो दूर, उलटे मामाजी के सन्देश अन्य कार्यकर्ताओं तक पहुंचाने की जिम्मेदारी बखूबी निभाई | बह खिड़की के रास्ते हरनारायण के घर आता और मामा जी के सन्देश अन्य कार्यकर्ताओं तक पहुंचाता | हवलदार के भाई और हरनारायण ने मामाजी के घर में होने की जानकारी ना तो पुलिस को होने दी और ना ही नरसिंहराव दीक्षित को | 

उस दौरान अनेकों किवदंतियां भी मामाजी के नाम पर प्रचारित हुई | पुलिस का मानना था कि मामाजी के साथ कई तलवार धारी अंग रक्षक भी रहते है | पुलिस उन्हें ढूँढने की भरसक कोशिस कर रही थी, किन्तु मामाजी थे कि पकड़ में ही नहीं आ रहे थे | उनका जिलाबदर का आदेश भी पुलिस फाइलों में धूल खा रहा था | एसे में पुलिस को सूचना मिली कि गौरी तालाब के पार शाला में मामाजी का अड्डा है | पुलिस ने अपने गुप्तचर सक्रिय किये तो मालूम हुआ कि कुछ नौजवान बहां आये हुए हैं | पुलिस अधीक्षक के नेतृत्व में बहां छापा मारा गया तो दीवाल फांदकर कुछ लोग खेतों में भागने लगे | भागते हुए एक ने तलवार भी निकाल ली और पुलिस को डराते हुए चम्पत हो गया | पुलिस के हाथ केवल एक जोड़ी जूता आया | लेकिन पुलिस को विश्वास हो गया कि हो ना हो यहाँ मामाजी जरूर थे और उनके साथ तलवार धारी अंग रक्षक भी | जब प्रतिवंध हटा तब पुलिस अधीक्षक की मामाजी से भेंट हुई और उसने कहा कि उस रात तो आप तलवार दिखाकर भाग निकले, लेकिन आपके जूते हमारे कब्जे में हैं | मामाजी आश्चर्य से उसका मुंह ताकने लगे, क्योंकि एसी कोई घटना उनके साथ हुई ही नहीं थी |

कुछ समय बाद संघ अधिकारियों ने वाजपेई जी को ग्वालियर बुला लिया और क्लब आदि के माध्यम से संघ कार्य करने को कहा | उस रूप में मुरार में प्रभावी रूप से कार्य चलने लगा | क्लब के रूप में लगने बाली शाखा में दैनिक उपस्थिति १०० तक रहने लगी | होली के अवसर पर कम्पनी बाग़ में आयोजित एक कार्यक्रम से लौटते समय इनको पहचानने बाले एक पुलिस बाले ने इन्हें पकड़ लिया और थाने ले गया | बहां से इन्हें भिंड भेजा गया तब कहीं जाकर राज्य निष्कासन संबंधी शासकीय आदेश की तामील हो सकी | इन्हें २४ घंटे के अन्दर राज्य छोड़ने के आदेश हुए | मामाजी को राज्य में रहना अनुपयुक्त मानकर इन्हें बुंदेलखंड के जालौन भेज दिया गया | प्रतिवंध के पूर्व झांसी के संभागीय प्राथमिक वर्ग (आई टी सी) में शिक्षक रहने के कारण मामाजी का जालौन के स्वयंसेवकों से पूर्व परिचय हो चुका था |

सत्याग्रह प्रारम्भ होने पर उन्हें भिड में भूमिगत रहकर संचालन करने बापस बुला लिया गया | प्रगट रूप से नारायण सिंह गुरू को संचालक बनाया गया | मामाजी ग्रामीण क्षेत्रों में प्रवास कर स्वयंसेवकों को सत्याग्रह के लिए तैयार कर भिंड भेजा करते थे | सत्याग्रह की योजना जिला केंद्र पर ही थी | जिले से लगभग १५० स्वयंसेवकों ने सत्याग्रह में भाग लिया |सन १९५१ में भारतीय जनसंघ की स्थापना होने के बाद मामाजी माणिकचंद्र जी वाजपेई को उत्तरी मध्य भारत के संगठन मंत्री का दायित्व दिया गया |

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