भारतीय संस्कृति के विरुद्ध षड़यंत्र - दिवाकर शर्मा

भारत के गौरवशाली अतीत को यदि शब्दों में एवं वाणी में कालांतर तक भी बांधने का प्रयास किया जाए तो संभव नहीं है ! कभी ऋषि भूमि, राम भूमि, कृष्ण भूमि, तथागत की भूमि कही जाने वाली धरा वर्तमान में पश्चिम का अंधानुकरण करने के कारण सांस्कृतिक पतन की ओर अग्रसर है ! एक हजार वर्षों से अधिक समय तक अधिकांशतः हिन्दू धर्मी निजी सुरक्षा, निजी उन्नति और निजी कल्याण में ही जुटा रहा, चाहें वह सांसारिक क्षेत्र हो या आध्यात्मिक ! इस प्रक्रिया में हिन्दू समाज या हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा क्षीण होती गयी जिसके कारण अन्य संगठित समुदायों, भले ही उनकी संख्या मुट्ठी भर ही थी, के हाथों हिन्दुओं को सुदीर्घ भयावह गुलामी भोगनी पड़ी ! अनेकानेक हिन्दू धर्मियों ने अपना तन, मन, जीवन भी इस हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति, हिन्दू जीवन मूल्यों के निमित्त स्वाहा भी किया ! उन्ही देवी-देवता तुल्य हिन्दू नर-नारियों की ही त्याग-तपस्या के फलस्वरूप हमारा अस्तित्व आज तक बचा हुआ है ! परन्तु वर्तमान पीढ़ी का अपनी उस वैभवशाली प्राचीनतम संस्कृति से विमुख होते जाना एक बड़ा सवाल पैदा करता है कि आगे हिन्दू धर्म बच पायेगा अथवा नहीं ?

भारत पर आक्रमण का यह क्रम 7 वीं - 8 वीं शताब्दी से प्रारम्भ हुआ ! मोहम्मद बिन कासिम, महमूद गजनवी, तैमूर लंग, अहमद शाह अब्दाली, बाबर एवं उसके कई वंशज इन आक्रान्ताओं का भी शासनकाल अथवा प्रभावयुक्त कालखंड भारत की सांस्कृतिक एवं सभ्यता की दृष्टी से कोई बहुत अच्छा नहीं रहा ! भिन्न भिन्न आक्रान्ताओं के शासनकाल में भारत में सांस्कृतिक एवं सभ्यता की दृष्टी से कुछ परिवर्तन हुए ! कुछ परिवर्तन तात्कालिक थे जो समय के साथ सुधार लिए गए, परन्तु कुछ स्थाई हो गए ! जब तक भारत पर आक्रान्ताओं का शासन था तब तक तो हम परतंत्र थे ! वर्ष १९४७ की तथाकथित सत्ता के हस्तांतरण के उपरान्त शारीरिक परतंत्रता तो एक प्रकार से समाप्त हो गयी परन्तु मानसिक परतंत्रता से हम आज भी जूझ रहे है !

इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता कि हमारी संस्कृति एवं सभ्यता की रक्षा हेतु जुझारूपन हमारे रक्त में मौजूद है जिसे कभी नष्ट नहीं किया जा सकता है, परन्तु ठीक से अपनी इस शक्ति को न पहचान पाने के कारण न तो हम भारतीय हो पाए और न ही विदेशी हो पाए, हम बीच के होकर रह गए, जिससे हमारी वर्तमान संस्कृति में अधकचरापन आ गया है ! सच तो यह है कि कि हमारी परतंत्रता का काल अभी समाप्त नहीं हुआ है और हमें अभी भी अपनी पूर्ण स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करना शेष है एवं संघर्ष बलिदान माँगता है ! प्रोफेसर बलराज मधोक ने अपनी पुस्तक “रैश्नेल ऑफ़ ए हिन्दू स्टेट”, पृ. 155, में ठीक ही लिखा है –

अत्यंत सराहनीय उद्धेश्य के लिए भी मानव तथा अन्य संसाधनों को संगठित करने और बलिदान की आवश्यकता होती है ! यह हिन्दू राज्य की अवधारणा पर भी लागू होता है ! ‘राज्य’ एक राजनैतिक अवधारणा है ! हिन्दुस्तान को सैद्धांतिक और वास्तविक रूप में हिन्दू राज्य बनाने के लिए शिक्षा की आवश्यकता है और साथ ही राजनैतिक मंच पर जनमत जाग्रत करने की !

हमें इस बात का बोध होना आवश्यक है कि एक मानव समूह, जो समान पूर्वज, समान इतिहास, समान भाषा, समान संस्कृति और समान आकांक्षा से एक सामाजिक सूत्र में बंधे होते है, एक राष्ट्र बनाते है ! जब एक मानव समूह के पास एक सुनिश्चित भूखंड होता है, जहाँ उसे अपनी परंपरा, अपने आदर्शों के अनुसार राज्य करने का समस्त अधिकार प्राप्त हो, तब यह राष्ट्र राज्य कहलाता है ! यदि उसके पास यह अधिकार नहीं है, और वह अधिकार वस्तुतः पूर्ण रूपेण अथवा अधिकांशतः किसी अन्य व्यक्ति या व्यक्ति समूह के पास होता है तो वह राष्ट्र राज्य नहीं बल्कि एक गुलाम देश, गुलाम राज्य या वस्तुतः सत्ताधारियों का उपनिवेश ही कहलाता है ! इस परिभाषा की कसौटी पर हिन्दू बुद्धिजीवी स्वयं विचार करें कि क्या वे एक स्वतंत्र राष्ट्र है और यदि है तो क्या वे एक स्वतंत्र राज्य कहलाने योग्य है ?

वर्तमान में हिन्दू धर्मियों की स्थिति ठीक वैसी ही है जैसी महाभारत युद्ध से पूर्व पांडवों की थी ! 13 वर्षों के वनवास के बाद पांडवों ने अपने चचेरे भाई दुर्योधन से अपने पैत्रक राज्य का हिस्सा माँगा ! दुर्योधन ने इसे तिरस्कार पूर्ण ढंग से अस्वीकृत कर दिया ! इस पर पांडवों ने अपने गुजर बसर के लिए केवल पांच गावों की मांग रखी ! इस पर भी दुर्योधन राजी नहीं हुआ और कहा कि “में बिना युद्ध के सुई की नोक के बराबर भी भूमि नहीं दूंगा !” तब पांडवों ने युद्ध की तैयारी प्रारम्भ की ! इस दौरान धृतराष्ट्र को चिंता हुई और उन्होंने पांडवों की तैयारियों को देखने हेतु संजय को पांडवों के पास पहुचाया ! संजय ने युधिष्ठिर से मुलाक़ात कर युद्ध न करने का आग्रह किया ! जिस पर युधिष्ठिर ने संजय को जवाब दिया -

“हम कुंती पुत्र शान्ति और सुख की कामना करते है, किन्तु वह सब हम धर्म की राह पर ही चलकर प्राप्त करना चाहते है ! दूसरी ओर महाराज ध्रुतराष्ट्र कार्य तो शत्रुतापूर्ण करते आ रहे है, पर चाहते है कि हम पांडव प्रेम और बलिदान की राह पर ही डटे रहे ! यह न्याययुक्त नहीं है ! उनका पुत्र दुर्योधन तब तक जीवित है जब तक युद्ध भूमि में उसका सामना पांडवों से नहीं होता ! मैं हर प्रकार से शांति का इच्छुक हूँ, किन्तु दुर्योधन से कहिये कि हमारे पैत्रक राज्य का हमारा भाग हमें दे दे !”

इसके जबाव में संजय ने जब अपने ही बंधू बांधवों का वध करने पर पांडवों को पाप लगने की बात कही तब युधिष्ठिर बोले -

“आपने ठीक ही कहा कि धर्म का स्थान ही सबसे ऊंचा है ! यहाँ श्री कृष्ण भी विराजमान है ! ये धर्म की गहराइयों को जानने वाले है और कौरवों एवं पांडवों दोनों के ही हित चिन्तक है ! आप उन्ही से पूछ लीजिये यदि में धर्म का उल्लंघन कर रहा हूँ !”

इस पर श्री कृष्ण ने संजय से कहा कि “धर्म एकअंगी नहीं होता है ! उसमे कर्म का समावेश होता है ! सभी देवता कर्म द्वारा स्थित है ! हे संजय, तुम तो एक आदर्श ब्राह्मण (पुरोहित), एक आदर्श क्षत्रिय, एक आदर्श वैश्य तथा अन्यों के कर्त्तव्य से भलीं भांति परिचित हो ! सो, अपने बाग्जाल को ऐसा क्योँ फैला रहे हो जिससे धृतराष्ट्र के मात्र कौरवदल का ही हित साधन दिखता है ? यदि पांडव अपने क्षात्रधर्म के परिपालन में युद्ध करते हुए वीर गति को भी प्राप्त होते है तो उनकी मृत्यु अत्यंत सम्मानजनक होगी ! यदि तुम सचमुच शांति के पक्ष में हो तो बताओ कि एक राजा के लिए धर्म के निमित्त युद्ध करना उचित है या उससे प्राण बचाकर भागना ? सच तो यह है कि राजा की सार्थकता और पवित्रता लुटेरों को जान से मारने में है ! यह लुटेरी प्रवृति कौरव पक्ष में स्पष्ट दिखाई दे रही है ! धर्म की राह पर चलने वाले पांडव आज भी शांति के लिए तैयार है, और आवश्यकता हुई तो युद्ध करने में भी सक्षम है ! अब आप जाइए और ध्रुतराष्ट्र को वास्तविकता से परिचित कराते हुए सही राय दीजिये !”

इसके बाद संजय वापस चले गए ! कौरवों को वास्तविकता से परिचित कराया, उन्होंने पांडवों को उनका हिस्सा देने की राय दी जिसे कौरवों ने नहीं माना ! महाभारत का प्रलयंकारी युद्ध हुआ ! पांडव विजयी हुए ! कौरव वंश का नाश हुआ !

लगभग १९१० से हिन्दू उसी महाभारत काल पूर्व की भयानक स्थिति में जी रहे है, जब उन्होंने अपना 13 वर्षों का कार्यकाल काट लिया था और सोचते थे कि अब उनके दुखों का अंत निकट है ! किन्तु उनके साथ श्री कृष्ण नहीं बल्कि नए अवतार तथा बाजारू स्वामी और आचार्य उन्हें उसी महाभारतकालीन ध्रुतराष्ट्र प्रेरित संजय के कपटपूर्ण उपदेशों की ही खुराकें “अहिंसा परमो धर्मः” के नाम पर पिलाए जा रहे है ! इन्होने सुदर्शन चक्रधारी, गीता ज्ञान के प्रवक्ता भगवान् श्री कृष्ण को नाचने-गाने वाला फ़िल्मी सितारा बना कर रख दिया है ! और इसी प्रक्रिया में वर्षों पूर्व भारत के एक तिहाई भाग को मुहम्मदी आताताइयों के हवाले कर दिया ! यही नहीं, उनके क्रियाकलापों से स्पष्ट संकेत मिलत रहे है कि शेष भारत को भी उन्ही आतताइयों के हाथों सौपने की तैयारियां चल रहीं है ! जो हिन्दू धर्मी अपने अत्यंत महत्वपूर्ण पूजा स्थलों की ही वापिसी की मांग करते है उनकी खिल्ली उड़ाई जाती है, उन्हें मूर्ख करार दिया जाता है !

समय है कि हिन्दू अपने वास्तविक धर्म को पहचाने ! एक बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल आज यह है कि कौन हिन्दू समाज को समझाए कि हिन्दू धर्म वह नहीं है जो ध्रुतराष्ट्र के कहने पर संजय ने युधिष्ठिर को कहा था बल्कि वह है जो स्वयं धर्मराज युधिष्ठिर ने प्रतिपादित किया और जिसकी पुष्टि और भी जोरदार ढंग से भगवान् कृष्ण ने की ! यही उपदेश और अधिक विस्तार से महाभारत की युद्ध भूमि में अर्जुन ने श्री कृष्ण को दिया था ! धर्मनिरपेक्षता का वागाडम्बर बैसा ही है, जैसा कौरवों के दूत रूप में संजय ने रचा था | धार्मिक आधार पर हुए भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान मुस्लिम राष्ट्र बना, किन्तु भारत हिन्दू राष्ट्र घोषित नहीं हुआ, इतना ही नहीं तो कम्यूनिस्ट विचारकों ने तो हिन्दू धर्म को विलुप्ति की कगार पर पहुंचा दिया है |

जागो भारत जागो ! यह सनातन धर्म नष्ट होने के लिए नहीं, बल्कि "कृण्वन्तो विश्वमार्यम" अर्थात विश्व को श्रेष्ठ बनाने के लिए है | आत्मरक्षा के लिए नहीं, बल्कि हिंसा, अनैतिकता व भोगविलास में डूबे विश्व को आत्मोन्नति के कल्याण पथ पर ले जाने के लिए हिंदुत्व की मूल अवधारणा की रक्षा हम सबका सामूहिक उत्तरदायित्व है |

दिवाकर शर्मा 
संपादक – क्रांतिदूत डॉट इन
प्रदेश अध्यक्ष – 
भारतीय संस्कृति न्यास, मध्यप्रदेश

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