प्रजातंत्र में आवश्यक विपक्ष, किन्तु ऐसा लचर और गैरजिम्मेदार ? -डाँ नीलम महेंद्र


तर्कों पर आधारित देशहित के लिए किया जाने वाला विरोध न सिर्फ सरकार को अपना काम और अधिक संजीदगी से करने के लिए प्रेरित करता है बल्कि देश की जनता को एक ठोस विकल्प भी प्रदान करता है | किन्तु क्या आज विपक्ष अपनी इस भूमिका का ठीक निर्वाह कर रहा है ? आईये देश के घटनाक्रम पर नजर दौड़ाकर इस प्रश्न का उत्तर ढूंढें –

देश के आम आदमी के मन में इस समय जितने सवाल उठ रहे हैं इतने शायद इससे पहले कभी नहीं उठे। वो समझ ही नहीं पा रहा है कि किस पर यकीन करे, विपक्ष के बयानों पर या फिर विदेशी रिपोर्टों पर।

परिणामस्वरूप अखबारों की रोज बदलती सुर्खियों के साथ ही देश के राजनैतिक पटल पर भी हालात तेजी से बदल रहे हैं और देशवासी हैरान परेशान!

वैसे भी इस समय दो राज्यों में चुनावों के चलते देश की राजनीति दिलचस्प दौर से गुजर रही है ख़ासकर तब जब उनमें से एक राज्य प्रधानमंत्री का गृहराज्य हो।

हिमाचल में जनता अपना फैसला ले चुकी है गुजरात में परीक्षा अभी बाकी है। कहा जा रहा है कि इन राज्यों के चुनावी नतीजे, खास कर गुजरात के, आगामी लोकसभा चुनावों के दिशा निर्देश तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे।

ऐसा कुछ समय पहले इसी साल फरवरी में होने वाले यूपी चुनावों के समय भी कहा गया था। तब नोटबंदी से उपजे हालातों के मद्देनजर विशेषज्ञों की नजर में भाजपा की राह कठिन थी लेकिन उसने 404 सीटों की संख्या वाली विधानसभा में 300 का आंकड़ा पार करके अपने विरोधियों ही नहीं तमाम चुनावी पंडितों को भी चौंका दिया था।

इस जीत के बाद कहा जाने लगा था कि 2019 में मोदी के विजयी रथ को रोक पाना अब किसी के भी लिए आसान नहीं होने वाला है।

लेकिन समय ने करवट ली।

मार्च में यूपी के भगवाकरण के बाद जब लगने लगा था कि यह केसरिया बयार अब पूरे देश पर छा जाने को बेकरार है, उसी दौरान जुलाई में जीएसटी लागू हुआ और राजनैतिक समीकरण एक बार फिर बदलने लगे।

पूरे देश में गिरती अर्थव्यवस्था और घटती जीडीपी की बातें होने लगीं। सरकार लगातार विपक्ष के निशाने पर आती गई और अखबार व्यापार जगत में गिरती मांग से पैदा होने वाले गिरावट के आंकड़ों को पेश करते विपक्ष के बयानों से भरे जाने लगे।

इतना ही नहीं अटल बिहारी जी की सरकार में मंत्री रह चुके यशवंत सिन्हा के 27 सितम्बर को एक अंग्रेजी अखबार में लिखे लेख ने तो मोदी सरकार को उनकी आर्थिक नीतियों पर ऐसा घेरा कि देश में राजनैतिक भूचाल की ही स्थिति उत्पन्न हो गई थी। ऐसे लगने लगा था कि देश और देशवासी शायद आजाद भारत के इतिहास में आपातकाल के बाद के सबसे बुरे दौर से गुजर रहे हैं क्योंकि देश आक्रोश से भरा है और लोगों में असंतोष अपने चरम पर है।

ऐसी परिस्थिति में जब देश कथित तौर पर चारों ओर निराशा से घिरा था, 31 अक्तूबर को विश्व बैंक की ओर से "ईज आफ डूइंग बिजनेस" की रिपोर्ट आई। इसके अनुसार व्यापार में सुगमता के लिहाज से भारत सुधार करते हुए 30 पायदानों की छलांग लगाकर पहली बार 100वें पायदान पर पहुँचा।

विदेशी ठप्पा लगते ही देश की अर्थव्यवस्था को पंख लग गए,
गिरती जीडीपी बढ़ने लगी ,
शेयर मार्केट में उछाल आने लगा,
और लोगों का असंतोष खुशफहमी में बदलने लगा।
लेकिन पिक्चर अभी बाकी थी।

अगले ही महीने 17 नवंबर को अन्तराष्ट्रीय रेटिंग एजेन्सी मूडीस ने भी भारत की रैंकिंग में सुधार कर उसे एक तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था बताया।

मूडीस की इस रिपोर्ट की सबसे ख़ास बात यह रही कि नोटबंदी और जीएसटी जैसे जिन कदमों को भारतीय आर्थिक विशलेषक आत्मघाती बता रहे थे उन्हें यह अन्तराष्ट्रीय संस्था "दूरगामी प्रभावों वाले ठोस सकारात्मक कदम" बता रही थी।

इन अन्तर्राष्ट्रीय रिपोर्टों से देश के राजनैतिक हालात एक बार फिर तेजी से बदलने लगे।

लेकिन विरोधी कहाँ मानने वाले थे?

वे कहने लगे कि विश्व बैंक की रिपोर्ट खरीदी हुई है और गुजरात चुनाव के समय में मूडीज की रिपोर्ट का बीजेपी के लिए स्टार चुनावी प्रचारक बनकर आना महज कोई संयोग नहीं है।

तो फिर इसे क्या कहियेगा जब अभी हाल ही में एक कार्यक्रम में चीन के भारतीय राजदूत ल्यू ज्याओहुई ने (डोकलाम में भारतीय कूटनीति के आगे घुटने टेकने के बावजूद) यह कहा कि वह जो पाक के साथ मिलकर अपना महत्वपूर्ण आर्थिक कारीडोर "सीपेक" बना रहा है उसका रास्ता वो पीओके के बजाय नेपाल नाथूला और भारत के जम्मू कश्मीर से भी बना सकते हैं यहाँ तक कि चीन अपनी इस महत्वाकांक्षी योजना का नाम भी बदलने की सोच सकता है।

वह भी तब जब अमेरिकी विशेषज्ञ इस बात को स्वीकार कर रहे हैं कि मोदी समूचे विश्व में चीन के विरोध में खड़े होने एकमात्र नेता हैं।

अपने एशियाई दौरे पर ट्रम्प पहले ही "एशिया पैसेफिक" के बदले " इंडो पैसेफिक" शब्द का इस्तेमाल करके विश्व पटल पर भारत के बढ़ते महत्व और उसकी इस नई भूमिका को स्वीकार कर चुके हैं।

लेकिन देश का विपक्ष अब भी इन तथ्यों को नज़रअंदाज करके फिजूल की बयानबाजी करने पर ही तुला है।

बेहतर होता कि विपक्ष अपनी भूमिका के प्रति गंभीर होता और समझता कि विपक्ष में होने का मतलब केवल विरोध के लिए विरोध करना नहीं होता और न ही लोगों को गुमराह करके स्वहितों की पूर्ति करना होता है।

विपक्ष आज जिस भूमिका में दिखाई दे रहा है, उसके कारण ही रेस में मोदी अकेले ही दौड़ भी रहे हैं और जीत भी रहे हैं।

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