भारत-पाकिस्तान युद्ध 1 947-48 : हिन्दू मुसलमानों की साझी अनुपम शौर्य गाथा - कर्नल जैबंस सिंह



03, नवंबर 2017, आया और बाक़ी दिनों की तरह गुजर गया | इस दिन के महत्व पर गौर किये बिना, हम भारतीय अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी जीते रहे ।

यह वही दिन था, जिस दिन भारतीय सेना के रणबाँकुरे, 4 कुमाऊं रेजीमेंट के एक अधिकारी मेजर सोमनाथ शर्मा ने 1 9 47 में बड़गाम की ऐतिहासिक लड़ाई में श्रीनगर में पाकिस्तान के आबादी के हमले को रोक कर इतिहास बनाया था । मेजर सोमनाथ शर्मा ने जिस प्रकार विपरीत परिस्थितियों में अपना रणकौशल दिखाया, उसके लिए उन्हें स्वतंत्र भारत में प्रथम परम वीर चक्र (पीवीसी) से सम्मानित किया गया ।

बड़गाम की लड़ाई नृशंसता की पराकाष्ठा थी । 1 947-48 की इस लम्बी लड़ाई का मूल कारण था, जम्मू एवं कश्मीर राज्य को जबरन जबरन हथियाने के लिए पाकिस्तान द्वारा कबायली और नियमित सेना को भारतीय सीमा में भेजा जाना ।

मेजर सोमनाथ शर्मा के अतिरिक्त इस युद्ध के बाद चार और परमवीर चक्र और कई अन्य वीरता पुरस्कारों से बहादुर भारतीय सैनिकों को सम्मानित किया गया । जिन बहादुर सेनानियों को परमवीर चक्र मिला, वे थे - तिथवाल में तैनात लांस नायक कर्म सिंह, , इंजीनियर्स कोर के लेफ्टिनेंट राम राघोबा राणे (झांगर और नौशेरा की लड़ाई के लिए), और 6 राजपूत रायफल्स के नायक जदुनाथ सिंह व हवलदार मेजर पिरु सिंह को तिथवाल की लड़ाई के लिए ।

जम्मू और कश्मीर राज्य बल के चीफ ऑफ स्टाफ ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह की बहादुरी भी लोकगाथाओं का हिस्सा बन गई, जिन्होंने अपने महाराजा के उस आदेश पत्र का अपनी आत्मा से पालन किया, जिसमें कहा गया था, "उरी पर दुश्मन के हमले को हर कीमत पर विफल करना है ।"ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह स्वतंत्र भारत के प्रथम महा वीर चक्र प्राप्तकर्ता थे।

युद्ध के दौरान प्रदर्शित बहादुरी और साहस की शौर्यगाथा ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान का उल्लेख किए बिना अधूरी होगी। विभाजन के समय, कई अन्य मुस्लिम अफसरों की तरह उन्होंने पाकिस्तान जाने से इंकार कर दिया और भारतीय सेना में अपनी सेवा जारी रखी। और वह भी तब, जबकि ब्रिगेडियर उस्मान को पाकिस्तानी सेना का प्रमुख बनाने का भी प्रलोभन दिया गया, लेकिन देशभक्ति के इस जीवंत प्रतिमान ने वह प्रस्ताव ठुकरा दिया ।

1 947-48 के उस भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान वे 50 पैराशूट ब्रिगेड की कमान संभाल रहे थे, तथा नौशेरा-झांगर सेक्टर में तैनात थे | नौशेरा में उनकी बहादुरी और प्रतिरोध कुशलता के कारण उन्हें "नौशेरा का शेर" नाम दिया गया था। पाकिस्तानी हमले के दौरान झांगर पर पाकिस्तान का कब्जा हो गया था, किन्तु ब्रिगेडियर उस्मान ने अपनी कुशलता से रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण उस केंद्र को तीन महीने के अन्दर पुनः वापस प्राप्त कर लिया और भारतीय तिरंगा फहरा दिया ।

झांगर की रक्षा करते हुए 3 जुलाई, 1 9 48 को आर्टिलरी अग्निकांड के कारण उनका निधन हो गया। उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया और युद्ध के दौरान इस पुरस्कार को प्राप्त करने वाले सर्वोच्च रैंकिंग भारतीय अधिकारी बने। उनके अंतिम संस्कार में प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू और उनके मंत्रिमंडल सहयोगियों ने भी भाग लिया ।

आज इन बलिदानों को स्मरण करना इसलिए भी आवश्यक और अनिवार्य है, क्योंकि उस समय भारतीय सेना ने जम्मू-कश्मीर में मुस्लिमों, डोगरा, सिख, बौद्ध, पहाड़ियों और कई अन्य समुदायों के साथ स्थानीय आबादी का पूरा समर्थन प्राप्त करने में सफलता पाई थी | वह युद्ध हम इसीलिए जीत पाए और जम्मू कश्मीर भारत राष्ट्र राज्य का हिस्सा बना । उस समय अलगाववादी प्रवृत्तियों का कहीं नामोनिशान भी नहीं था ।

भारतीय सेना के श्रीनगर पहुँचने के पूर्व कबायली हमलावरों ने हर उस शख्स को मौत के घाट उतार दिया था, जिसने थोडा भी प्रतिरोध करने का प्रयत्न किया | उस बर्बर आतताई समूह ने बारामूला में तो अमानवीयता की हद ही पार कर दी थी | बारामूला में चार दिन तक कत्ले आम चला । पुरुषों और बच्चों को यातनायें देकर उनकी हत्या कर दी गई जबकि महिलाओं को बलात्कार कर यौन गुलाम (सेक्स स्लेव) बनाकर पाकिस्तान ले जाया गया। यहां तक ​​कि कॉन्वेंट नन को भी बख्शा नहीं गया | वे भी बलात्कार की शिकार हुईं और क्रूरता पूर्वक मारी गईं ।

कश्मीर का पंडित समुदाय उस समय भी सबसे अधिक प्रताड़ित हुआ | यातना और क्रूरता का सर्वाधिक प्रकोप उन्होंने ही झेला । अनेक परिवारों ने अपनी अस्मत बचाने के लिए छतों से कूदकर या झेलम नदी में डूबकर आत्महत्या का मार्ग चुना | आतंक का यह क्रूर और बेरहम चेहरा कश्मीर ने झेला था, लेकिन महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि उसमें स्थानीय लोगों की रत्ती भर भी सहभागिता नहीं थी | स्थानीय मुसलमान भी आक्रान्ताओं के खिलाफ थे और दिल से चाहते थे कि ये बर्बर आतताई जल्द से जल्द घाटी से बाहर हों |

इसका सबसे बड़ा प्रमाण तथा उन भयानक परिस्थितियों में मानवीयता का अद्भुत उदाहरण था एक 1 9 वर्षीय नौजवान, मकबूल शेरवानी | उसने तेजी से साईकिल चलाते हुए यह अफवाह फैलाई कि भारतीय सेना बारामूला तक पहुँच चुकी है । इसके चलते हमलावरों ने श्रीनगर की ओर कूच को स्थगित कर दिया और कहा जाए तो श्रीनगर बारामूला जैसी बर्बादी से बच गया । जब पाकिस्तानी आक्रमणकारियों को यह मालूम पड़ा कि नौजवान मकबूल ने उन्हें गुमराह किया है, तो उन्होंने उसे गोली मारकर सूली पर चढ़ा दिया । युवा मकबूल ने अपने साहस और बलिदान से अपने आप को इतिहास में अमर कर लिया ।

जम्मू और कश्मीर के लोगों में उस समय भारतीय सैनिकों के प्रति अपनत्व की भावना थी | सेना को वे अपना रक्षक मान रहे थे । सौभाग्य से उस समय उन्हें बरगलाने वाले आज के राजनीतिज्ञ नहीं थे । उस समय कश्मीरी हिन्दू और मुसलमान सभी की प्राथमिकता यह थी कि, कैसे ये बर्बर लोग जल्द से जल्द बाहर निकाल दिये जाएँ । इसमें वे काफी हद तक सफल भी हुए, लेकिन बड़ी कीमत चुकाकर | अनेक जिंदगियां बलिवेदी पर चढ़ीं, अनेक सैनिकों ने अपना अपना जीवन समर्पित किया |

अगर भारतीय सेना ने प्रतिकार न किया होता, तो आज श्रीनगर एक विशाल, उजाड़ कब्रिस्तान होता और कश्मीर घाटी का इतिहास कुछ और होता । उस समय के लोगों के मन में भारतीय सेना के लिए प्रशंसा के भाव थे, आज भी हैं, केवल कुछ राष्ट्र-विरोधी तत्वों को छोड़कर।

जम्मू और कश्मीर राज्य को बचाने के लिए जिस साहस और बहादुरी का परिचय सेना ने दिया, उसे निहित स्वार्थी तत्वों ने अपेक्षित प्रचारित नहीं होने दिया | उलटे बहादुर सैनिकों के बलिदानों को विस्मृत करने का और उसे खलनायक की तरह चित्रित करने का कुत्सित प्रयास हुआ | मनगढ़ंत किस्सों द्वारा उन्हें रक्षक के स्थान पर हमलावर घोषित किया जाना सचमुच बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है।

कट्टरपंथी समुदायों के एक छोटे से समूह द्वारा प्रचारित अलगाववाद राज्य के माथे पर एक कलंक है । वर्तमान पीढ़ी के लिए आवश्यक है कि वह अपने पूर्वजों के आदर्शों को अपनाए और यह सुनिश्चित करें कि उस पीढी के बलिदान व्यर्थ न हो जाएँ ।

साभार आधार : समाचार भारती

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