एक भारतीय महाराजा जिसके प्रति कृतज्ञ है पोलेंड, लेकिन जिसे हम नहीं जानते - रेखा दीक्षित


पोलैंड की राजधानी वॉरसॉ की रहने वाली ज़ोफिया प्रीगोवस्का उन दिनों एक किशोरी थी जब उन्हें पता चला कि दूरदराज भारत के एक राजा ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान 600 से अधिक पोलिश बच्चों के लिए अपने घर के दरवाजे खोल दिए | इतना ही नहीं तो पूरे पांच साल तक उनकी मेजबानी की | यह वह समय था, जब कोई देश उन्हें स्वीकार करने को तैयार नहीं था | बाद में जिस हाई स्कूल में वह पढ़ती थी, उसका नाम "उस महान महाराजा" के नाम पर रखा गया, क्योंकि पोलैंड का बच्चा बच्चा उसे जानता था । 

दुर्भाग्य कि हम भारतीय उस महाराजा को नहीं जानते, जिसने शरणागत वत्सलता की भारतीय परम्परा का निर्वाह किया | वे महाराजा थे नवानगर के "महाराज जाम साहब दिग्विजसिंहजी रणजीतसिंहजी” | पोलेंडवासियों के लिए तो उस नाम का पूरा उच्चारण भी कठिन था, किन्तु उन्होंने इसे याद रखा ।

किस्सा कुछ यूं था कि जब हिटलर ने पोलैंड पर आक्रमण करके द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत की थी तो उस समय पोलैंड के सैनिको ने अपने 500 महिलाओ और करीब 200 बच्चों को एक शीप में बैठाकर समुद्र में छोड़ दिया और कैप्टन से कहा की इन्हें किसी भी देश में ले जाओ,जहाँ इन्हें शरण मिल सके अगर जिन्दगी रही हम बचे रहे या ये बचे रहे तो दुबारा मिलेंगे।

पांच सौ शरणार्थी पोलिस महिलाओ और दो सौ बच्चो से भरा वो जहाज ईरान के सिराफ़ बंदरगाह पहुंचा, वहां किसी को शरण क्या उतरने की अनुमति तक नही मिली,फिर सेशेल्स में भी नही मिली, फिर अदन में भी अनुमति नही मिली। अंत में समुद्र में भटकता-भटकता वो जहाज गुजरात के जामनगर के तट पर आया।

जामनगर के तत्कालीन महाराजा "जाम साहब दिग्विजय सिंह" ने न सिर्फ पांच सौ महिलाओ बच्चो के लिए अपना एक राजमहल जिसे हवामहल कहते है वो रहने के लिए दिया बल्कि अपनी रियासत में बालाचढ़ी में सैनिक स्कूल में उन बच्चों की पढाई लिखाई की व्यस्था की।ये शरणार्थी जामनगर में कुल नौ साल रहे।

उन्ही शरणार्थी बच्चो में से एक बच्चा बाद में पोलैंड का प्रधानमंत्री भी बना आज भी हर साल उन शरणार्थीयो के वंशज जामनगर आते है और अपने पूर्वजों को याद करते है।

पोलैंड की राजधानी वारसा में कई सडकों का नाम महराजा जाम साहब के नाम पर है,उनके नाम पर पोलैंड में कई योजनायें चलती है।हर साल पोलैंड के अखबारों में महाराजा जाम साहब दिग्विजय सिंह के बारे में आर्टिकल छपता है।

आज प्रीगोवस्का भारतीय इतिहास के उस विस्मृत पन्ने को एक वृत्त चित्र के माध्यम से अमर बनाने का प्रयत्न कर रही है । इस कार्य में प्रीगोवस्का के सहयोगी हैं मोनिका कोवालेकोस्को-सुजुमोस्का और टॉमस स्टैंकिविज़ | इन लोगों ने बड़े प्रयत्न से 87 वर्षीय इंजीनियर विस्ला स्टिपुला को खोज निकाला, जो उन बच्चों में से एक थे, जिन्हें महाराजा के यहाँ शरण मिली थी | 87 वर्षीय उस वृद्ध की ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं है, क्योंकि उसे आयु के इस अंतिम पड़ाव पर उसे वहां आने का अवसर मिला, जिसे वह आज भी अपना घर ही मानता है | फिल्म निर्माताओं ने 1948 के बाद सात बार भारत का दौरा किया और सारे सूत्र ढूंढें । और आज जब वे भारत में शूटिंग कर रहे हैं, तो आत्म संतोष उनके चेहरे से झलक रहा है ।

क्या यह हैरत की बात नहीं है कि पोलैंड की नई पीढ़ी भी अपने मददगारों को याद रखना चाहती है । वे न अपने सहायकों को भूले हैं, न ही अपने शत्रुओं को | फिल्म निर्माताओं के अनुसार उस समय इन अनाथ बच्चों को युद्ध की विभीषिका से बचाने के लिए भारत तथा रूस भेजा गया था | भारत आये बच्चों की परवरिश अधिक बेहतर ढंग से हुई, उनकी पढाई का भी बहुत ध्यान रखा गया | स्टाइपला के उदाहरण से यह स्पष्ट दिखाई भी देता है | वह अच्छी प्रकार से शिक्षित हुए, जबकि उनके बड़े भाई जो रूस भेजे गए थे, अकादमिक दृष्टि से पिछड़ गए ।

कोवलेकझेको-झुमोस्का कहते हैं कि कम्युनिस्ट वर्षों के दौरान इन कहानियों को दबा दिया गया था, लेकिन अब, उन्हें खुले तौर पर बताया जा सकता है। उसे इस बात पर भी हैरत है कि यह कहानी भारत में कोई नहीं जानता | बैसे दोनों विश्वयुद्धों में भारत की भूमिका को कई कारणों से दशकों तक दबाया गया या भुला दिया गया |

जबकि सचाई यह है कि 1 मिलियन से अधिक भारतीय सैनिकों ने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान विदेशों में मोर्चा लिया, जिनमें से लगभग 74,000 लोग युद्ध में या ठंड के कारण मारे गए। इनके अतिरिक्त 48,000 भारतीय मजदूर भी थे, जिनकी शहादत का तो कोई रिकार्ड ही नहीं है |

1942 में भारतीय सेना के तत्कालीन कमांडर-इन-चीफ फील्ड मार्शल सर क्लाउड औचिनलेक ने कहा था कि अगर ब्रिटिश सेना में भारतीय नहीं होते, तो दोनों विश्वयुद्धों में ब्रिटिश की कोई गिनती ही नहीं होती ।

लेकिन दुर्भाग्य तो देखिये कि अंग्रेजों ने भारतीय योगदान का बदला कैसे चुकाया ? बदले में भारत को मिला जलियांवाला बाग नरसंहार |

इतना ही नहीं तो अंग्रेजों ने भारतीय शौर्य को विस्मृत करने का पुरजोर प्रयास किया | वे हमेशा अपनी बहादुरी की डींगें हांकने में मशगूल रहे ।

द्वितीय विश्व युद्ध की 75 वीं वर्षगांठ के बाद लोगों ने अतीत में नए सिरे से रुचि लेना शुरू किया और इन विषयों पर गहराई से शोध प्रारम्भ हुआ | इतिहास का अध्ययन केवल अतीत में झांकने के लिए नहीं होता, बल्कि उससे भविष्य को भी दिशा मिलती है । क्या हमें अपने उन देशवासियों के प्रति द्रवित नहीं होना चाहिए, जिन्होंने फ्लेंडर्स में पहली बार प्रयुक्त हुए रासायनिक हथियारों के कारण दर्दनाक मौत पाई ?


साभार आधार : द वीक
एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें