बहाबिज्म का इतिहास, क्या बदल सकेगा सऊदी अरब - बलबीर पुंज


पिछले कुछ हफ्तों से सऊदी अरब में जो कुछ घट रहा है, उसने शेष विश्व को चकित दिया है | ३२ वर्षीय युवा शहजादे मोहम्मद बिन सलमान ने इस इस्लामिक देश में उथलपुथल मचाते हुए विश्व में सबसे अमीर माने जाने वाले शहजादे अलवालीद बिन तलल सहित 200 से ज्यादा राजकुमारों, मंत्रियों, शीर्ष अधिकारियों और अरबपति धनी मानी लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया । इतना ही नहीं तो इस नए सत्ताधीश ने उम्माह और गैर मुस्लिमों के लिए जो नई हिदायतें जारी की हैं उनका पूरे विश्व पर दीर्घकालीन असर होना निश्चित जान पड़ता है |

बड़े पैमाने पर हुई इन गिरफ्तारियों के दो सप्ताह पहले, शहजादे ने रियाद में एक भव्य वैश्विक आर्थिक शिखर सम्मेलन का आयोजन किया, जिसमें उन्होंने तेल से परे सऊदी अर्थव्यवस्था में विविधता लाने की अपनी योजनाओं की रूपरेखा का वर्णन किया । अब सवाल उठता है कि क्या इस रूढ़िवादी इस्लामी राष्ट्र में एक एक आर्थिक-सामाजिक-धार्मिक क्रांति हो रही है, जो अब तक अपने तेल राजस्व की दम पर दुनिया भर में इस्लाम की सबसे कट्टरपंथी बहाविज्म की विचारधारा के प्रसार के लिए जाना जाता रहा है ?

गौर करें कि रियाद शिखर सम्मेलन में शहजादे ने क्या कहा-

शहजादे ने स्वीकार किया कि पिछले 30 सालों में उनका देश सामान्य नहीं था | शहजादे ने सऊदी अरब में नरम इस्लाम की वापसी की घोषणा की, जिसमें पूरे विश्व और सभी धर्मों के लिए खुलापन होगा । आगे उन्होंने यह भी वादा किया कि "हम अपने अगले 30 साल उग्रवादी विचारों से निपटने के लिए बर्बाद नहीं करेंगे, हम आज ही उन्हें नष्ट कर देंगे"।

यह चौंकाने वाला बयान दर्शाता है कि सउदी अरब अब विकास का नया महाकाव्य लिखने को आतुर है । 17 अक्टूबर को जारी एक शाही आदेश में उत्कृष्ट इस्लामिक विद्वानों की एक वैश्विक संरचना गठित करने की घोषणा की गई है, जो पूरे हदीस की नए सिरे से युगानुकूल व्याख्या करेगी तथा उसमें से वे अतिवादी उर झूठे अंश हटाएगी जो इस्लाम के बुनियादी सिद्धांतों के खिलाफ हैं और जो अपराध, हत्या और आतंकवादी कृत्यों को जायज ठहराते हैं... जिनके लिए शान्ति के धर्म इस्लाम में कोई जगह नहीं है |

एक साक्षात्कार में, शहजादे ने कहा: "पिछले 30 सालों में जो हुआ वह सऊदी अरब नहीं है। पिछले 30 वर्षों में इस क्षेत्र जो कुछ हुआ, वह मध्य पूर्व नहीं है | 1979 में हुई ईरान की क्रांति के बाद, लोग इस मॉडल को अलग-अलग देशों में कॉपी करना चाहते थे, उनमें से सऊदी अरब भी एक था ... किन्तु अब इससे छुटकारा पाने का समय है "।

शहजादे ने 1979 को सऊदी इतिहास के एक महत्वपूर्ण मोड़ के रूप में वर्णित किया, जब उसने खुद को 'उदारवादी' से कट्टरपंथी रूप में परिवर्तित कर दिया ।

लेकिन अब सवाल उठता है कि क्या 1979 से पहले सऊदी अरब सचमुच एक उदार राष्ट्र था?

सऊदी अरब हमेशा एक पक्षीय धार्मिक राज्य रहा है। एक सदी से पहले से सऊदी शाही परिवार और वहाबी उलेमा (इस्लामी धार्मिक नेताओं) के बीच सशक्त रिश्ते रहे हैं। 1979 में चरमपंथियों के एक समूह ने मक्का मस्जिद पर कब्ज़ा कर लिया और राज्य में व्याप्त भ्रष्टाचार व अमेरिका सहित अन्य पश्चिमी देशों के साथ घनिष्ठ संबंध के विरोध में कुछ लोगों को बंधक बना लिया | उनका आरोप था कि देश के इस्लामी चरित्र को कमजोर किया जा रहा है ।

अब इस इस्लामी राष्ट्र के सम्मुख दो ही मार्ग थे – या तो चरमपंथी तत्वों का सामना करे या उनकी मांगे मानकर उनके प्रतिगामी एजेंडे के अनुसार चले । राज्य ने बाद वाले आसान मार्ग को चुना। अमरीका ने अफगानिस्तान से 'काफिर' सोवियत को हटाने हेतु उसके खिलाफ जिहाद के नाम पर आग में घी डाला और देखते ही देखते समूचे सऊदी अरब में कट्टरपंथियों की फसल तैयार हो गई और पूरा क्षेत्र जिहाद की भट्टी में तब्दील हो गया | अमेरिका, सऊदी और पाकिस्तान सभी इस पाप में भागीदार रहे। सऊदी संसाधन और अमेरिकी हथियार तब से लगातार जेहादियों को उपलब्ध होते रहे और आतंकवादी मशीन को ईंधन मिलता रहा ।

क्या वर्तमान शहजादे इससे उद्धार का वायदा कर रहे हैं ? बैसे  एमबीएस के उपनाम स विख्यात यह शहजादे लोगों की नजर में एक 'ज्वलंत सुधारक' है, जो सऊदी अरब को अतीत की पगडंडियों से आधुनिकता की सड़क पर ले जा सकते हैं और तेल समाप्ति के बाद के युग में भी आर्थिक समृद्धि बरक़रार रख सकते हैं ।

लेकिन उनके आलोचक उन्हें एक अति महत्वाकांक्षी व्यक्ति मानते हैं, जो अपनी सत्ता को मजबूत करने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है | वे लोग उनकी इस अभूतपूर्व पहल को अमेरिकी दवाव कहकर खारिज कर रहे हैं । शहजादे दुनिया से जो वायदा कर रहे हैं, वह सुनने में तो बहुत अच्छा है, किन्तु यहाँ यह ध्यान देने योग्य बात है कि सऊदी अरब इकलौता ऐसा देश है, जहाँ उलेमाओं की सरकार में प्रत्यक्ष भूमिका है और उनके पास धार्मिक, सामाजिक और नैतिकता के क्षेत्र में एकाधिकार प्राप्त है।

सऊदी शाही परिवार जिसे अल सऊद के रूप में जाना जाता है, के प्रभावशाली होने की भी अपनी अलग ही कहानी है | 1744 में मध्य अरब के नेजद में राजवंश के संस्थापक मुहम्मद बिन सऊद ने वहाबी आंदोलन के संस्थापक धर्मगुरू मुहम्मद इब्न अब्द अल-वहाब के साथ गठबंधन किया |

तब से अब तक यह समझौता चला आ रहा है, जो अल सऊद पर आधारित है, जिसमें धार्मिक मामलों और वहाबी सिद्धांत का समर्थन और प्रचार करने के अल अश-शेख के अधिकार को बनाए रखा गया है ।

दुनिया के अधिकांश इस्लामिक आतंकवादी इस वहाबी पंथ से ही प्रेरित है | यद्यपि इस पंथ की स्थापना 18 वीं शताब्दी में हुई, लेकिन एक इस्लामिक विद्वान इब्न तैमियाह ने 14 वीं शताब्दी में ही इसका बीजारोपण कर दिया था । उसने ही जिहाद की अवधारणा को फिर से एक: हथियार बनाया था । लेकिन बाद में तैमियाह के धर्मशास्त्र को खारिज कर विधर्म घोषित किया गया । किन्तु दुर्भाग्य कि उसी तैमियाह के अतिवाद को बाद में सऊदी अरब ने वहाबिज्म के नाम से स्वीकार किया ।

अनुमान है कि 1960 के दशक के बाद से, सऊदी अरब ने भारत सहित दुनिया के सभी देशों में मस्जिदों और मदरसों के लिए 100 बिलियन अमरीकी डॉलर से ज्यादा धन दिया है। इन संस्थानों ने काफिरों से नफ़रत की मानसिकता पैदा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । इस हद तक कि नफ़रत कि वे काफिरों को मारने के लिए खुद को मार डालने को भी तत्पर हो जाएँ और उसे अपना "दिव्य" कर्तव्य मानें |

क्या यह सब अब बदल जाएगा?

क्या सऊदी अरब में सुन्नी मस्जिदों के साथ हिंदू मंदिरों, गुरुद्वारों और चर्चों के निर्माण की भी अनुमति मिलेगी ?

क्या यह उम्मीद की जा सकती है कि अब सऊदी अरब की महिलाओं को सामान्य जीवन जीने का अधिकार मिलेगा, जैसा कि अन्य सभ्य देशों में मिलता है ?

क्या शहजादे यह सुनिश्चित करेंगे कि उनका राज्य अब बच्चों में नफरत और जहर भरने वाले मदरसों और मस्जिदों को धन मुहैया नहीं कराएगा ?

दुनिया उनके जवाबों की प्रतीक्षा कर रही है !

बलबीर पुंज

राज्यसभा के पूर्व सदस्य और सामाजिक व राजनीतिक विषयों के ख्यातिप्राप्त विश्लेषक 
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