आखिर क्यूं नहीं बचा पा रहे हम अपने ही बच्चों को ? - डॉ. नीलम महेन्द्रा


1 दिसंबर 2017,कोलकाता के जीडी बिरला सेन्टर फाँर एजुकेशन में एक चार साल की बच्ची के साथ उसी के स्कूल के पी टी टीचर द्वारा दुष्कर्म।
31 अक्तूबर को मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में कोचिंग से लौट रही एक युवती के साथ सामूहिक बलात्कार।
इसी साल सितंबर में रेहान स्कूल में एक बालक की बेरहमी से हत्या।
उससे पहले अगस्त में एक दस साल की बच्ची अपने मामा की हवस के कारण माँ बनने की शारीरिक और मानसिक पीड़ा झेलने के लिए विवश हुई।
कुछ समय पहले ही एक 12 साल की बच्ची ने  पीजीआई में एक बालक को जन्म दिया।
बैंगलुरु के एक स्कूल में एल के जी की एक मासूम बच्ची के साथ स्कूल के सेक्यूरिटि गार्ड द्वारा छेड़छाड़।
ये तो केवल वो खबरें हैं जो मीडिया के द्वारा देश के सामने आईं हैं वो भी पूरे देश को झकझोर देने वाले  देश की राजधानी दिल्ली में हुए निर्भया कांड के बाद, जब हमारी सरकार और हमारे नेताओं ने महिलाओं की सुरक्षा के बड़े बड़े वादे करते हुए अनेक योजनाओं और कानूनों की झड़ी लगा दी थी।
लेकिन सच्चाई तो हम सभी जानते हैं कि हमारे देश में असलियत में रोजाना इस प्रकार के कितने ही मामले घटित होते हैं लेकिन हालातों से मजबूरी के कारण या तो दब जाते हैं या दबा दिए जाते हैं।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो ने अपनी ताजा रिपोर्ट में बच्चों के साथ होने वाले अपराधों में लगातार हो रही वृद्धि को स्वीकार करते हुए बताया है कि केवल 2016 में ही ऐसे 106958 मामलों को दर्ज किया गया है।
2007 में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने एक  रिपोर्ट पेश की थी जिसके अनुसार भारत में 53.22% बच्चों ने अपने जीवन में यौन शोषण का सामना किया था जिसमें से 52.94%.लड़के थे और 47.06% लड़कियाँ थीं। इसके बावजूद 2017 में भी हालात जस के तस हैं।देश में लगभग हर दूसरा बच्चा यौन शोषण का शिकार है।
यहाँ गौर करने लायक बात यह भी है कि एक तो लड़के और लड़कियाँ दोनों ही इन अपराधों का बराबर से शिकार हैं और दूसरा शोषण करने वाले अधिकतर बच्चों और उनके माता पिता के भरोसेमंद ही होते हैं, शिक्षक, सेक्यूरिटि गार्ड, रिश्तेदार, दोस्त या फिर पड़ोसी के रूप में।
इस प्रकार के आँकड़े यह बताने के लिए काफी हैं कि यह हमारे देश में एक गंभीर समस्या बनती जा रही है।
अब समय आ गया है कि सरकार  इसे एक राष्ट्रीय समस्या के रूप में स्वीकार करते हुए इस दिशा में जमीनी स्तर पर ठोस कार्यवाही करे।
हाल ही में मध्यप्रदेश सरकार ने इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए 12 वर्ष से कम उम्र की बालिकाओं के साथ बलात्कार करने पर फाँसी की सजा देने की सिफारिश वाले प्रस्ताव को स्वीकार किया है।
लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या हमारे देश में बाल अपराध और यौन शोषण से संबंधित कानूनों की  कमी है जो हम आज नए कानून बना रहे हैं?
2012 में ही सरकार पोक्सो एक्ट नाम का एक कानून लेकर आई थी जिसमें 18 या 18 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के यौन शोषण को एक गंभीर अपराध मानते हुए पुलिस को निर्देशित किया गया था कि वह पीड़ित के साथ उसके गार्जियन अर्थात अभिभावक जैसा व्यवहार करे, यह सुनिश्चित करे कि कानूनी प्रक्रिया के दौरान पीड़ित को किसी भी प्रकार की मानसिक प्रताड़ना न झेलनी पड़े और केस दर्ज होने के एक वर्ष के भीतर कोर्ट का फैसला आ जाए।
इस परिपेक्ष्य में यह जानकारी भी आवश्यक है कि नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की ही एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्ष पोक्सो के तहत देश में 15000 मामले दर्ज हुए थे जिसमें से 4% केसों में अपराधी को सजा हुई, 6% केसों में मुल्जिम को बरी कर दिया गया और 90% केस लम्बित हैं। यानी अगर मान लिया जाए कि आज के बाद कोई नया मामला दर्ज नहीं होता है तो इन लम्बित प्रकरणों को निपटाने में 40 साल लग जाएंगे  !
इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि इन कानूनों के होते हुए भी अपराधियों के हौसले इतने बुलंद क्यों और कैसे हैं?
क्यों हम इस प्रकार के अपराधों से आज तक  अपने बच्चों को नहीं बचा पा रहे ?
एक के बाद एक हमारे बच्चे इन असामाजिक तत्वों का शिकार बनते जा रहे हैं और हम क्यों कुछ नहीं कर पाते?
हमारी न्याय प्रणाली, कानून व्यवस्था, पुलिस,समाज, क्यों  इन्हें किसी का भी डर क्यों नहीं?
यही सच्चाई है और बहुत ही कड़वी भी है।
सबसे दुखद पहलू यह है कि यह सब जानते समझते हुए भी जिम्मेदार पदों पर बैठे लोग इस स्थिति को बदलने के प्रति गंभीर नहीं हैं।
केवल कानून बनाने से तब तक बात नहीं बनेगी जब तक उस पर कठोरता के साथ अमल न किया जाए।
शायद इसीलिए आज सच्चाई  यह  है कि भले ही  अपराधी पुलिस के नाम से न डरे लेकिन आम आदमी  पुलिस थाने के नाम मात्र से डरता है।
सच्चाई यह भी है कि हमारे देश में रेप की रिपोर्ट लिखवाने का मतलब है पूरे परिवार के लिए एक अन्तहीन संघर्ष और मानसिक वेदनाओं की शुरुआत।
पीड़ित के शारीरिक रेप के बाद परिवार का मानसिक और सामाजिक रेप।
यह हमारे समाज और कानून व्यवस्था की विफलता ही है कि वो असहनीय पीड़ा जो कि अपराधी को झेलनी चाहिए वो पीड़ित को झेलनी पड़ती है।
न्याय मिलने में सालों लग जाते हैं और अपराधी रसूखदार हो तो फिर कहना ही क्या।
हमारे विकास के दावे खुशहाली के वादे, तरक्की के इरादे और न्यू इंडिया के नारे तब तक खोखले हैं जब तक कि कानून की किताबों में जो धाराएँ लिखी गई हैं वे केवल पुलिस की फाइलों में दर्ज होकर रह जाएं।
देश में बढ़ते अपराधों पर तब तक काबू नहीं किया जा सकता जब तक न्याय के हकदार को अपने न्याय के अधिकार के लिए संघर्ष करना पड़ेगा और सजा का हकदार बेखौफ होकर घूमता रहेगा।
आखिर कब तक जिस डर के साए में अपराधियों को जीना चाहिए उस डर के साए में हमारे बच्चे जीने के लिए मजबूर रहेंगे?
इस दिशा में ठोस बदलाव लाना है तो कानूनों का कठोरता से पालन हो, न्याय तंत्र ऐसे मामलों में त्वरित फैसले प्रस्तुत करे और पुलिस अपने आचरण में मूलभूत बदलाव करते हुए जनता को यह संदेश दे कि वह संवेदनहीन नहीं संवेदनशील है।

एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें