“संसार का सबसे पुराना देश भारत कैसे है?” - मनमोहन कुमार आर्य

संसार में इस समय छोटे व बड़े तथा नये व पुराने 195 देश हैं। इन सभी देशों में सबसे पुराना देश कौन सा है ? इसका उत्तर है कि वर्तमान का भारत देश जिसका प्राचीन नाम आर्यावर्त्त है, वह हमारी प्रथ्वी का सबसे प्राचीन देश है। हमारा यह भारत संसार में सबसे प्राचीन देश किस आधार पर है तो इसका उत्तर है कि संसार में ज्ञान की सबसे पुरानी पुस्तक वेद है। यह वेद संख्या व विषयों के वर्गीकरण के अनुसार चार हैं जिनके नाम ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद हैं। वेद संसार में सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं जिसका आधार यह है कि रामायण व महाभारत काल में भी वेद विद्यमान थे क्योंकि इन ग्रन्थों में वेद का उल्लेख मिलता है। महाभारत की कालावधि लगभग पांच हजार वर्षों से कुछ अधिक है जबकि राम व रामायण का काल त्रेता युग में माना जाता है। हम जानते हैं कि द्वापर 8 लाख 64 हजार वर्षों का होता है। इसमें कलियुग के 5000 वर्ष जोड़ने पर 8 लाख 69 हजार वर्ष होते है। इससे पूर्व त्रेता युग रहा है जिसका काल 12 लाख 96 वर्ष का होता है। अतः रामायण का काल 21 लाख वा 8 लाख 69 हजार वर्षों के बीच निश्चित होता है। 

रामायण व महाभारत दोनों भारत वा आर्यावर्त्त से संबंध रखते हैं। इस बात के भी प्रमाण मिलते हैं कि आदि मानव सृष्टि तिब्बत में हुई थी। उसके कुछ काल बाद आर्य भारत भूमि को श्रेष्ठ जानकर यहां आकर बसे थे। जब आर्य यहां आये थे तो उस समय न केवल भारत अपितु सारे संसार की भूमि मनुष्य से खाली थी। आर्यों ने इस भारत व आर्यावर्त्त को बसाया और फिर यहां से समय समय लोग संसार के अन्य भागों में जाते रहे जिससे सारे भूगोल में मनुष्य फैल गये वा बस गये। इन सब से यह सिद्ध होता है कि भारत संसार का सबसे पुराना देश है व वैदिक धर्म व संस्कृति संसार में सभी मत-पन्थ-धर्मों से पुरानी है। महाभारत ग्रन्थ में 1 लाख से अधिक श्लोक हैं। इन श्लोकों में कहीं यह वर्णन नहीं है कि भारत व विश्व में महाभारत काल व उससे पूर्व कहीं अन्य कोई मत, सम्प्रदाय, पंथ या धर्म था। हम जानते हैं कि पारसी, बौद्ध, जैन, ईसाई, इस्लाम व अन्य सभी मत महाभारत के बाद उत्पन्न हुए हैं। महाभारत काल तक संसार में एक ही मत था जो वैदिक मान्यताओं, सिद्धान्तों अथवा शिक्षाओं पर आधारित था। चार वेद व वैदिक साहित्य की अन्तःसाक्षी के आधार पर भी वेद सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा से चार ऋषियों को प्राप्त हुए थे। आरम्भ के चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा से आरम्भ होकर यह ज्ञान अब तक सुरक्षित चला आया है जिसमें कोई परिवर्तन व परिवर्धन नहीं हुआ हैं। इस मान्यता के पक्ष में अनेक प्रमाण उपलब्ध हैं जिनमें से एक वेदों का आठ प्रकार का विकृति पाठ भी है। प्राचीन ब्राह्मणों द्वारा वेदों को कण्ठ करने की परम्परा रही है। वर्तमान में वेद संवत 1 अरब 96 करोड़ 08 लाख 53 हजार 118 वां चल रहा है। इतने ही पुराने वेद हैं और इतना पुराना ही आर्यावर्त्त व भारत देश है। यह सभी तथ्य ऋषि दयानन्द जी ने अपने सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों में सप्रमाण प्रस्तुत किये हैं जिनमें कोई अत्युक्ति अथवा अतिश्योक्ति नहीं है।

एक प्रश्न उत्पन्न होता है कि इतने वर्षों तक वेदों के भूमण्डल पर प्रचारित होने के बाद महाभारत के पश्चात नाना मत, सम्प्रदाय व पन्थ क्यों व कैसे उत्पन्न हुए। इसका कारण यह है कि महाभारत युद्ध के बाद भारत में वेदों के अध्ययन व अध्यापन की परम्परा बाधित हो गई थी। ऋषि मुनि धीरे धीरे समाप्त हो गये। संसार के अन्य देशों में भी वेदों का प्रचार प्रसार न्यून हो गया जिससे भारत सहित संसार के शेष भाग में अज्ञान का अन्धकार फैल गया। इस अज्ञान के कारण भारत व संसार के देशों में मिथ्या मान्यतायें व अन्धविश्वास प्रचलित हुए। भारत में यज्ञों में हिंसा, मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, समाज में शोषण व अन्याय आदि प्रचलित हो गये। समय के साथ साथ इनमें वृद्धि होती गई। समय समय पर भारत व विश्व के अन्य देशों में कुछ ज्ञानी पुरुष उत्पन्न हुए। उन्होंने अपनी मति व ज्ञान के अनुसार नये नये मत चलाये। वेदज्ञान से दूर होने के कारण वह सत्य व असत्य का विवेक नहीं कर सके जिस कारण सभी मतों में अविद्या की बातें विद्यमान हैं।

सन् 1863 में स्वामी दयानन्द का धार्मिक जगत में पदार्पण होता है। वह मिथ्या मतों की आलोचना व खण्डन करते हैं तथा वेदों का प्रचार करते हैं। लोग उनके प्रवचनों से प्रभावित होते हैं और कुछ विवेकशील मनुष्य उनके वेदमत को स्वीकार भी करते हैं। लोगों के परामर्श व सुझाव पर वह अपनी वैदिक मान्यताओं का ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश लिखते हैं और कालान्तर में अन्य अनेक ग्रन्थ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि की रचना भी करते हैं। वह सभी प्रचलित मतों के आचार्यों से वार्तालाप वा शास्त्रार्थ भी करते हैं और सभी धार्मिक व सामाजिक समस्याओं का वेद के आधार पर युक्तिपूर्ण समाधान प्रस्तुत करते हैं। सत्यार्थप्रकाश में अवैदिक सभी मतों की समालोचना व खण्डन भी किया गया है। स्वामी दयानन्द जी में वेद ज्ञान विषयक अद्भुद प्रतिभा थी। वह वैदिक संस्कृत के अपूर्व विद्वान थे। यह विद्या व ज्ञान उन्हें अपने आचार्य व गुरु प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी से प्राप्त हुआ था। स्वामी जी ने अपने समय में देश भर में उपलब्ध प्रायः सभी ग्रन्थों को सत्य के अन्वेषण के लिए ढूंढ ढूंढ कर पढ़ा था। वैदिक साहित्य के ग्रन्थ वेदांगों का भी उन्होंने गुरु विरजानन्द जी से अध्ययन किया था। दर्शन व उपनिषद सहित सभी वैदिक साहित्य जो उन्हें उपलब्ध हो सकता था, उसका अध्ययन कर वह वेदों के शीर्ष विद्वान बने थे। इस योग्यता का उपयोग कर उन्होंने वेदों का भाष्य आरम्भ किया और यजुर्वेद का संस्कृत व हिन्दी में पूर्ण भाष्य किया। ऋग्वेद का भी उन्होंने भाष्य किया जो असामयिक मृत्यु के कारण पूरा न हो सका। इस पर भी वह वेदों का जो भाष्य कर गये उसके आधार पर उनके शिष्यों ने पूर्ण वेद भाष्य किया। इसके आधार पर वैदिक धर्म का रामायणकालीन, महाभारतकालीन व सृष्टि से महाभारतयुद्ध पर्यन्त का स्वरूप स्पष्ट होता है। विवेकशील लोगों ने इसे अपनाया। उन्होंने मिथ्या जड़ पूजा आदि का त्याग किया व सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों का अध्ययन पर अपने ज्ञान व योग्यता को बढ़ाया। देश की उन्नति व निर्माण की नींव स्वामी दयानन्द जी की वेद विषयक मान्यताओं के आधार पर ही पड़ी दीखती है। स्वामी जी ने अन्धविश्वासों का विरोध किया। आज देश का शिक्षित वर्ग भी अन्धविश्वासों को स्वीकार नहीं करता परन्तु वह यह नहीं जानते कि अन्धविश्वास क्या है और सत्य विद्या से पोषित कौन कौन सी मान्यतायें हैं। इसका कारण उनका वैदिक ज्ञान से दूर होना वा उनमें स्वाध्याय की प्रवृत्ति का न होना है।

आज विवेकशील मनुष्यों का एकमात्र धर्म वेद व वैदिक धर्म ही है। आज संसार में जितने मत व पंथ प्रचलित हैं वह अपनी मान्यताओं के सत्यासत्य की समीक्षा नहीं करते। उनके पास समीक्षा करने की कसौटी भी नहीं है। सत्य की कसौटी व स्वतःप्रमाण वेद से दूर हैं। उनके मत भी उन्हें अपने ग्रन्थों की सत्यता की परीक्षा की अनुमति नहीं देते। यही कारण है कि संसार से अविद्या व अन्धविश्वास दूर नहीं हो रहे हैं। सभी मतों में अन्धविश्वास के साथ सामाजिक न्याय की भी कमी पाई जाती है। वेदों के अध्ययन से जो आध्यात्मिक व सांसारिक ज्ञान की प्राप्ति होती है व स्त्री व पुरुषों का चरित्र निर्माण होता है वह अन्य मतों के इतर ग्रन्थों से नहीं होता। अन्य मतों के ग्रन्थों में विज्ञान के विरुद्ध भी मान्यतायें व सिद्धान्त पाये जाते हैं। इन सभी दोषों से वेद ही मुक्त है। वेद की शरण में आकर ही मनुष्य को अभ्युदय व निःश्रेयस का लाभ हो सकता है। मनुष्य के लिए ईश्वर व जीवात्मा का सत्य स्वरूप जानना अति आवश्यक है। इसको जाने बिना ईश्वर की यथार्थ उपासना नहीं हो सकती। सद्कर्म के लिए भी वेदों का अध्ययन, वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों से परिचय आवश्यक है। वैदिक विद्या व ज्ञान सहित ईश्वरोंपासना एवं सद्कर्म से ही मनुष्य मोक्ष की ओर बढ़ता है जो कि वेदमार्ग का अनुसरण करने से ही सम्भव प्रतीत होता है। हमें लगता है कि सभी मतों के लोगों को वेदों का अध्ययन अवश्यमेव ही करना चाहिये तभी उनका वर्तमान व भविष्य सुरक्षित हो सकता है। परजन्म में सुख व शान्ति वेदों की शरण में आकर, वेदज्ञान के अनुरूप कर्म व व्यवहार करके ही प्राप्त की जा सकती है। हमारे प्राचीन सभी ऋषि, मुनि व विद्वान वेदाध्ययन व वेदाचरण करने की ही प्रेरणा करते हैं। जो लोग इस मार्ग पर चल रहे हैं वह भाग्यशाली हैं। अन्यों को भी वेदमार्ग का अनुसरण करना चाहिये। इसी के साथ लेखनी को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।