सुषमा स्वराज का साधुवाद कि उन्होंने विदेश मंत्रालय को तथाकथित इलाईट की प्रेतछाया से बाहर निकाला - सुनंदा वशिष्ठ



विगत दिनों टाईम्स ऑफ़ इंडिया में श्री सदानंद धूमे का एक आलेख प्रकाशित हुआ “The trouble with Sushma: To be a world power that’s taken seriously India needs a superior foreign minister” | इसका हिन्दी भावार्थ कुछ यूं किया जा सकता है - सुषमा एक बोझ: एक ऐसी शक्ति बनने के लिए, जिसे विश्व गंभीरता से ले, भारत को एक बेहतर विदेश मंत्री की जरूरत है | 

स्वाभाविक ही इस आलेख को लेकर प्रतिक्रिया हुई | जबाब में MyIndMakers में सुनंदा वशिष्ठ का एक उल्लेखनीय लेख आया, जिसका शीर्षक था “Sushma Swaraj has taken ‘elite’ out of Foreign Ministry and that is Commendable” (सुषमा स्वराज ने विदेश मंत्रालय को 'अभिजात वर्ग' की छवि से बाहर निकाला, जो सराहनीय है) प्रस्तुत है, उक्त आलेख का हिन्दी रूपांतर –

नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल में संभवतः सुषमा स्वराज सबसे लोकप्रिय मंत्री हैं, इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि बड़ी संख्या में लोगों ने उनके पक्ष में जबाब दिया । कश्मीर से लेकर केरल तक और सैन फ्रांसिस्को से न्यू यॉर्क तक, उन लोगों ने सुषमा जी के पक्ष में आवाज उठाई, जिनके जीवन को स्वराज के हस्तक्षेप का स्पर्श प्राप्त हुआ था । सिर्फ बीजेपी के सदस्य ही नहीं बल्कि जन सामान्य ने भी श्री धूमे को यह बताया कि विदेश मंत्री के रूप में स्वराज की प्रभावशीलता के बारे में उनका मूल्यांकन कितना गलत था। इन संदेशों में ही धूमे द्वारा उठाये गए सवालों के जवाब अन्तर्निहित थे।

सदानंद धूमे की मुख्य समस्या सुषमा स्वराज की पहुंच को लेकर है। स्वराज ने भारत के विदेश मंत्री की भूमिका को पुनर्परिभाषित किया है। माना जाता था कि विदेशी मंत्री अर्थात आम लोगों से कटा हुआ, एक अलग गृह का प्राणी, जो केवल नीति की बात करता है, दुनिया भर में अपने समकक्षों से मुलाकात करता है और केवल स्व-घोषित विशेषज्ञों और विचारकों से सलाह मशवरा करता है । एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप तक, एक सम्मेलन से दूसरे सम्मेलन तक, विदेश मंत्रियों को केवल कुछ विशिष्ट जनों से ही मिलना चाहिए, विशिष्ट लोगों से ही बात करना चाहिए, और सामान्यजन की तो छाया से भी दूर रहना चाहिए, मिलना जुलना तो दूर की बात है । तो कोई आश्चर्य नहीं, कि पूर्व में गृह मंत्री या वित्त मंत्री के समान, विदेश मंत्री कभी भी ज्यादा चर्चित नहीं रहे | सामान्यतः विदेश मंत्री एक ऐसी दुनिया में काम करना चाहते थे जहां लोगों ने उन्हें कभी नहीं देखा हो । अब यह प्रक्रिया परिवर्तित हुई है । इससे बौद्धिक जगत में घबराहट है | तथाकथित विचारक थिंक टैंक, विदेश मंत्री में एक बौद्धिक दंभ देखना चाहते थे, जो उनके खुद के बौद्धिक दंभ का पोषण करता हो ।

सुषमा स्वराज ने विदेश मंत्रालय से कुलीन वर्ग को बाहर निकालकर, मानवीयता का स्पर्श दिया । उन्होंने दुनिया भर में बसे भारतीयों तक पहुंचने के लिए सोशल मीडिया का भरपूर उपयोग कर प्रवासियों के साथ मजबूत संबंध विकसित किये । धूमे सहित कुछ लोग आरोप लगा सकते हैं कि जब पीएमओ से ही विदेश नीति तय की जा रही है, तो विदेश मंत्री के पास करने को कुछ खास है ही नहीं, तो उपलब्धि काहे की । यह बात सुषमा जी ने पूरी तरह गलत साबित कर दी | प्रवासियों के साथ मजबूत संपर्क विकसित करना, प्रधान मंत्री के नए भारत के दर्शन का आधार है, जिसे सुषमा स्वराज पूरी सिद्दत के साथ कार्यान्वित कर रही है। आपको अब तक केवल आभार व्यक्त करने वाले संदेशों को पढ़ने वाले विदेश मंत्री ही प्राप्त होते रहे है |

अब सबसे बड़ा सवाल जो धूमे अपने आलेख में पूछते हैं, कि विदेश मंत्री के रूप में सुषमा स्वराज की भूमिका क्या है? क्या वह केवल अनिवासी भारतीयों के लिए एक शिकायत सेल चला रही है या वे सही अर्थों में विदेश नीति चला रही है?

अगर किसी ने ध्यान से नरेंद्र मोदी के काम करने की शैली का अध्ययन किया है, तो उसके लिए इसका जवाब पाना बहुत मुश्किल नहीं होगा। प्रशासन का मोदी मॉडल है – मजबूत पीएमओ और प्रभावशाली मंत्रियों की टीम । नीति निर्धारण पूरी टीम करती है, इसमें विदेश नीति भी अलग नहीं है। धूमे संभवतः जानबूझकर यूपीए शासन काल के उन 10 वर्षों का उल्लेख नहीं करते, जिन्हें विदेश नीति का अंधियारा काल कहा जा सकता है | एक दशक तक धीमी गति से चलने वाली विदेश नीति मोदी के चार वर्षीय कार्यकाल में द्रुत गति से दौड़ रही है। अस्तित्व के संकट से जूझता भारत निर्देशित करने की क्षमता लिए दिखने लगा है | कई लक्ष्य प्राप्त किये गए हैं, कुछ तीर निशाने चुके भी हैं, किन्तु उसके लिए विदेश नीति की कोई उदासीनता या कार्रवाई की कमी नहीं बताई जा सकती । पीएमओ, विदेश मंत्री, एनएसए और विदेश सचिव की अभेद्य व्यूह रचना में कहीं कोई कमी नहीं है | तथ्य यह है कि विदेश नीति को एक जंगी जहाज की तरह चलाया जा रहा है क्योंकि पीएमओ और विदेश मंत्रालय एक दूसरे के पूरक की तरह काम कर रहे हैं। यह इस कटाक्ष का जबाब है कि सुषमा स्वराज पर उनके बॉस का भरोसा नहीं है, या उनकी अनसुनी की जाती है, या वैश्विक शक्ति के गलियारों में उन्हें हल्के में लिया जाता है ।

अगर धूमे ने थोडा अपने आसपास पूछताछ की होती या थोड़ा शोध किया ता, तो उन्हें ज्ञात होता कि सुषमा जी के सबसे मुखर आलोचकों ने भी बांग्लादेश के साथ हुए भूमि सीमा समझौते का श्रेय उन्हें दिया था, जो कोई टी पार्टी नहीं थी । बहुचर्चित कुलभूषण जाधव के मामले में अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में प्राप्त निर्णायक विजय आखिर स्वराज के नेतृत्व में ही प्राप्त हुई, जहां उन्होंने हरीश साल्वे के साथ मिलकर काम किया । इसलिए, यह कहना कि स्वराज केवल दुनिया भर के परेशान भारतीयों तक ही पहुंच रही है, भ्रामक है। तथ्य यह है कि वे इसके साथ साथ विदेश नीति के तहत वह सब कर रही हैं जो निर्णायक और सराहनीय है । उनकी हर नीति पर मोदी जी की छाप है, पर उसी प्रकार हर क्रियान्वयन और वार्ताओं पर स्वराज की छाप भी स्पष्ट देखी जा सकती है।

अंत में हम धूमे के तर्क के मूल पर विचार करते हैं । स्वराज को एक बेहतर विदेश मंत्री नहीं कहा जा सकता क्योंकि उनमें चमक दमक और शिक्षा का अभाव है। इस बेहूदे तर्क को 'बौद्धिक घबड़ाहट' नहीं तो क्या कहा जाए । क्या स्वराज इसलिए अनपढ़ हैं, क्योंकि वे जनसामान्य से उनकी अपनी भाषा में बातचीत कर सकती हैं? क्या स्वराज में इसलिए बौद्धिक क्षमता का अभाव है, क्योंकि वह उस माँ के साथ सहानुभूति व्यक्त करती है जिसने अपने बेटे को विदेशी तटों पर खो दिया है और उसके मृत शरीर को वापस अपने घर लाने के लिए उसे मदद की ज़रूरत है? क्या स्वराज की शिक्षा इसलिए कम है क्योंकि वह एक ऐसे युवा छात्र से बात कर सकती है जिसे दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में से एक में प्रवेश तो मिल गया है, किन्तु उसका पासपोर्ट नौकरशाही की कीचड़ में फंस गया है |

क्या स्वराज की शिक्षा इसलिए कम है, क्योंकि ऑपरेशन राहत के रूप में उन्होंने थोड़े समय में ही एक विशाल बचाव अभियान सम्पन्न कराया? या स्वराज में बौद्धिकता इसलिए कम है, क्योंकि वे तथाकथित थिंक टैंकों और स्वघोषित बुद्धिजीवियों को नावश्यक महत्व नहीं दे रही है? मुझे समझ में आ रहा है कि श्रीमान धूमे क्यों परेशान है। उन्होंने आजतक कोई ऐसा विदेश मंत्री देखा ही नहीं, जो हाथी दांत के सुरक्षित टॉवर में खुद को बंद करने के बजाय लोगों को बचाने को महत्व देता है । यह भारत के लिए भी एक नया अनुभव है, लेकिन आम भारतीयों ने विदेश मंत्री की इस नई भूमिका को सराहा है।

धूमे ने भी स्वराज पर यह आरोप भी लगाया है कि वह वैश्विक मामलों में गहरी दिलचस्पी नहीं रखती और वैश्विक स्तर पर भारत की स्थिति जानने में भी उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है । मुझे समझ नहीं आता कि वह इस निष्कर्ष पर कैसे पहुंचे | वैश्विक स्तर पर जहां भी स्वराज ने भारत का प्रतिनिधित्व किया है, उन्होंने अपने बक्तव्यों और संबोधनों से विश्व मामलों में भारत की भूमिका को बहुत अच्छी तरह से प्रस्तुत किया है । संयुक्त राष्ट्र में दिए गए उनके बेहतरीन भाषण संभवतः सदानंद धूमे के सर के ऊपर से निकल गए, क्योंकि वे हिन्दी में थे और धूमे सर कोई अच्छा अनुवादक नहीं ढूंढ पाए ।

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