शिक्षा का मंदिर या जहालत का पर्याय - जेएनयू : डॉ. निवेदिता शर्मा
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विद्या के मंदिर का किस तरह मखौल उड़ाया जा सकता है, यह यदि किसी को देखना है तो एक बार वह देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु के नाम से बने केंद्रीय विश्वविद्यालय जेएनयू अवश्य हो आए। एक के बाद एक ऐसे कारनामें यहां से उजागर हो रहे हैं, जिन्हें टेलीविजन स्क्रीन पर देखकर और सुनकर आज यही लगता है कि क्या हम किसी विश्वविद्यालय के बारे में जान रहे हैं या उस स्थान का परिचय पा रहे हैं जोकि शिक्षा का मंदिर न होकर राजनीति का अड्डा है? देशद्रोह के नारे लगने तथा इसी प्रकार की गतिविधियों में कई बार नाम आने के बाद अब यहां का नया विषय यह है कि इस विश्वविद्यालय में पढ़नेवाले कई छात्र-छात्राओं को कक्षा में 75 प्रतिशत उपस्थिति से नाराजगी है।
इन विद्यार्थियों की नाराजगी प्रशासन से इस हद तक बढ़ जाती है कि वह प्रशासनिक बिल्डिंग का घेराव करते हुए स्टाफ तक को एक तरह से क़ैद कर लेते हैं। इसके बाद यूनिवर्सिटी प्रशासन एक लेटर जारी करता है और कहता है कि कोर्ट के आदेश के मुताबिक़ प्रशासनिक बिल्डिंग के सौ मीटर के दायरे में छात्र प्रदर्शन नहीं कर सकते, किंतु प्रदर्शनकारियों पर इसका कोई असर नहीं होता है।बेशर्मी तो यह है कि आल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन नेता कहते हैं कि अनिवार्य उपस्थिति का सर्कुलर वापस लिया जाए।
पहले तो यह समझ लेना होगा कि आखिर वर्षभर में उच्चशिक्षा कलेण्डर के अनुसार विद्यार्थी कितने दिन कक्षा में उपस्थित रहते हैं। वर्ष 2017-18 देखें या वर्ष 2018-19 का कलेण्डर हो, समुचे वर्षभर में कुल 52 सप्ताह में 52 रविवार के अवकाश हर किसी विद्यार्थी को मिलते हैं। इसके अलावा जो जयंतियां एवं त्यौहार हैं उनकी कुल संख्या 100 से अधिक है, इसमें भी बड़े उत्सव 25 के करीब है। इसके बाद परीक्षाओं की छुट्टियां भी होती है, यह संख्या भी हर विश्वविद्यालय में कम-ज्यादा 20 से 25 दिन की रहती हैं। महिनेभर परीक्षाएं चलती हैं। इस प्रकार कुल 365 दिन में से कक्षाएं सिर्फ 220 दिन ही अधिकतम लगती हैं । उसमें भी उपस्थित होने की अनिवार्यता 75 प्रतिशत अर्थात् सीधे-सीधे 12 माह में से अधितम 165 दिन की कुल उपस्थिति यहां के छात्रों से विश्वविद्यालय प्रशासन चाहता है। अब, बताओं भला, इसमें वह क्या गलत डिमांड कर रहा है?
क्या यह माना जाए कि जेएनयू देश के अन्य विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों के लिए तय विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) एवं अन्य नियमों के अलावा किसी अतिरिक्त विशेष नियम से चलता है ? जब देश के प्राय: सभी उच्चशिक्षा केंद्रों विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में उपस्थिति की अनिवार्यता है तो जेएनयू के छात्र इसमें क्यों छूट चाहते हैं? प्रश्न यह भी है कि जब यह विरोध कर रहे छात्र एवं छात्राएं कक्षा में उपस्थित होना ही नहीं चाहते हैं तो क्यों नियमित स्वाध्यायी विद्यार्थी के नाते अपनी डिग्री लेना चाहते हैं? यूजीसी ने ऐसे सभी विद्यार्थियों के लिए डिस्टेंस एजुकेशन का विकल्प दिया हुआ है।
वास्तव में जेएनयू में बेकार में आन्दोलन कर रहे इस छात्रों को पता होना चाहिए कि भारत में मुख्य क्लासरूम लर्निंग जिसमें स्टूडेंट को कॉलेज या यूनिवर्सिटी जाकर रेगुलर क्लासेज अटेंड करनी होती है के अलावा डिस्टेंस लर्निंग भी है, जिसके अंदर स्टूडेंट कॉरेसपोंडेंस से पढ़ाई करता है। आज भारत में कई डिस्टेंस यूनिवर्सिटीज हैं जो कि कॉरेसपोंडेंस कोर्स करवाते है तो दूसरी ओर कई रेगुलर यूनिवर्सिटीज भी कई तरह के कोर्स डिस्टेंस मोड से करती हैं। इन सब की यूजीसी से मान्यता प्राप्त संख्या 111 है। क्यों न ऐसे स्टूडेंट्स जो किसी वजह से रेगुलर क्लासेज का हिस्सा नहीं बन सकते और हायर एजुकेशन प्राप्त करना चाहते हैं, वे यहां क्यों नहीं एडमीशन ले लेते हैं?
इसी के साथ जूएनयू में जो लोग यह आरोप लगा रहे हैं कि वर्तमान कुलपति विश्वविद्यालय के 'ओपन नॉलेज फ्लो' की संस्कृति को नष्ट करना चाहते हैं और छात्रों को क्लासरूम की दीवारों के भीतर सीमित रखने की साजिश कर रहे हैं। विश्वविद्यालय रैंक के मामले में अव्वल रहा है और देशभर के शिक्षण संस्थानों की गुणवत्ता तय करने वाली सरकारी संस्थान NAAC खुद इसे बेहतर मानती है ।जेएनयू को A++ ग्रेड दिया गया है तो उन्हें यह समझना होगा कि उच्चशिक्षा प्राप्त करने के भी अपने नियम कायदे हैं, ऐसे तो सभी विश्वविद्यालयों में 75 प्रतिशत उपस्थिति पर आन्दोलन होने लगेगा, तब हो गई पढ़ाई ? NAAC ने तो देश के कई अन्य विश्वविद्यालयों को A++ ग्रेड दी है तो क्या वहां भी अब जेएनयू की तरह छात्रों को अपनी उपस्थिति के विषय में विरोध करना चाहिए? जब बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी, जामिया मिलिया जैसे सभी प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में 75 छात्र उपस्थिति अनिवार्य है जोकि वहां के सभी छात्रों को सहज स्वीकार्य भी है तो यह जेएनयू में आज क्यों हंगामा हो रहा है?
इसके अतिरिक्त एक सच यह भी है कि कक्षा में उपस्थिति की अनिवार्यता का नहीं होने का मतलब उच्चशिक्षा में भ्रष्टाचार को बढ़ावा देना भी है, क्योंकि आज 7वें वेतनमान के बाद प्राद्यापकों का वेतन जिस तरह से सम्मानजनक स्थिति में पहुँचा है, उसके अनुसार यह 6000 एजीपी वाले असिस्टेंट प्रोफेसर – 57 हजार 700, 7000 एजीपी वाले असिस्टेंट प्रोफेसर को मासिक 68 हजार 900 रुपए। 8000 एजीपी वाले असिस्टेंट प्रोफेसर का वेतन 79 हजार 800, 9000 एजीपी वाले एसोसिएट प्रोफेसर का मासिक वेतन 1 लाख 31 हजार400, इसी प्रकार 10,000 एजीपी वाले प्रोफेसर की सैलरी 1 लाख 44 हजार 200 रुपए तथा एचएजी स्केल वाले प्रोफेसर का मासिक वेतन आज 1 लाख 82 हजार 200 रुपए है।
समझने की बात यह है कि ये वेतन उन्हें अध्यापन कार्य के लिए दिया जा रहा है। जब जेएनयू में बच्चों को नियमित कक्षा में पढ़ना ही नहीं है तो क्यों फिर उनके लिए इतनी फैकल्टी की सुविधा हो और क्यों बेकार में सरकार उन पर इतना खर्च करे, यह भी विचारणीय है। जेएनयू में हर स्टूडेंट पर सलाना सरकारी खर्च तीन लाख आता है और हर साल जेएनयू को लगभग 300 करोड़ रूपये सरकारी मदद के तौर पर दिए जाते हैं। क्यों न यह माना जाए कि आज यहां आन्दोलित छात्र इस तरह के व्यर्थ आन्दोलन कर देश की आम जनता का टैक्स से प्राप्त सरकारी अनुदान का पैसा बर्बाद कर रहे हैं? क्या ऐसे क्लास में नहीं जाकर देश में शिक्षा के गिरते स्तर में गुणवत्ता का सुधार होगा?
लेखिका पत्रकारिता के साथ अध्यापन कार्य से जुड़ी हैं।
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