संघ स्वयंसेवक भाजपा के अलावा अन्य राजनैतिक दलों में क्यों नहीं दिखते ? - हरिहर शर्मा



संघ अधिकारी अनेक बार स्वयं सेवकों को स्मरण कराते हैं कि देश में केवल दो ही प्रकार के लोग हैं, एक तो वे जो आज स्वयंसेवक हैं, और दूसरे वे जो कल स्वयंसेवक बनेंगे | अतः किसी से भी द्वेष मत रखो, अपने व्यवहार से प्रभावित कर उन्हें भी स्वयंसेवक बनाओ | 

अपनी तरुण अवस्था में मैंने एक बार एक वरिष्ठ संघ अधिकारी से प्रश्न किया कि अगर संघ का वास्तव में यही मानना है, तो फिर राजनैतिक क्षेत्र में हम जनसंघ को ही समर्थन क्यों देते हैं ? 

जो उत्तर मिला,वह उस समय तो गले नहीं उतरा, किन्तु बाद के अनुभवों ने ज्यादा अच्छी तरह समझा दिया | मुझे जबाब मिला था – हम तो चाहते हैं कि सभी राजनीतिक दलों में संघ के स्वयंसेवक हों, और सभी राजनैतिक विचारधारा के लोग संघ के स्वयंसेवक ही क्यों, पदाधिकारी भी बनें, किन्तु हमें झेलता कौन है ? वे तो हमें अस्पृश्य मानते हैं | जब तक यह स्थिति बदलती नहीं है, तब तक जनसंघ ही हमारी मजबूरी है | 

बाद में जब आपातकाल के दौरान संगठन कांग्रेस, समाजवादी, मार्क्सवादी जैसे दलों के कार्यकर्ता संघ स्वयंसेवकों के साथ जेलों में रहे, तब आशा बंधी थी कि यह नजदीकी आगे भी जारी रहेगी | किन्तु यह संभव हुआ नहीं | सभी दलों के सम्मिलन से हुआ जनता दल का प्रयोग असफल हुआ | और सबसे विचित्र बात तो यह कि इसका ठीकरा भी संघ पर फोड़ा गया | जनसंघ के कार्यकर्ताओं से कहा गया कि वे संघ के साथ अपने सम्बन्ध विच्छेद की घोषणा करें | दोहरी सदस्यता का मुद्दा उठाते हुए कहा गया कि संघ के स्वयंसेवक जनता पार्टी के सामान्य सदस्य भी नहीं रह सकते | और जैसा कि सभी जानते हैं कि इसी मुद्दे पर जनता पार्टी टूट गई | पूर्ववर्ती जनसंघ के कार्यकर्ताओं ने नई भारतीय जनता पार्टी बनाई | और तत्कालीन जनता पार्टी समय के प्रवाह में कहाँ डूब गई, पता नहीं | आज तो उसका नामो निशान भी नहीं है | 

आखिर अन्य राजनैतिक दलों के संघद्वेष का आधार क्या है ? 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्णकालिक प्रचारक भारतीय जनता पार्टी के संगठन मंत्री बनते हैं, क्या इससे अन्य राजनैतिक दल संघ को भी अपना विरोधी मान लेते हैं ? अगर कोई यह धारणा बनाता है तो वह गलत है | अन्य राजनीतिक दल तो संघ की परछाईं से भी दूर भागते हैं, तो यह मुख्य कारण हो ही नहीं सकता | 

मुख्य कारण है, संघ की हिंदुत्व अवधारणा, जो अन्य दलों की मुस्लिम वोट परस्ती नीति को नहीं पुसाती | उन्हें लगता है कि अगर संघ से नजदीकी रखी, तो उन्हें मुस्लिम वोट नहीं मिलेंगे | यही कारण है कि वे गाहे बगाहे संघ को कोसने में कोई कंजूसी नहीं करते, ताकि मुस्लिम वोट उनकी झोली में आते रहें | 

अब सवाल उठता है कि क्या संघ का नजरिया मुस्लिम द्रोही है ? 

सचाई यह है कि संघ मुस्लिम द्रोही नहीं है | संघ स्वयंसेवकों द्वारा संचालित राष्ट्रीय मुस्लिम मंच इसका सबसे बड़ा प्रमाण है | हाँ इतना अवश्य है कि संघ साफगोई से काम करता है | वह मुस्लिम तुष्टीकरण में नहीं, मुस्लिम समाज के राष्ट्रीयकरण में विश्वास करता है | हैरत की बात तो यह है कि व्यक्तिगत चर्चा में सभी संघ विरोधी नेता संघ के द्रष्टिकोण को सही मानते हैं, किन्तु सार्वजनिक रूप से स्वीकार नहीं करते | 

संघ का स्पष्ट मानना है कि जब तक मुस्लिम समाज के मन से दारुल हरब और दारुल इस्लाम जैसी अठारहवीं सदी वाली मानसिकता नहीं निकलेगी, हिन्दू मुस्लिम संघर्ष समाप्त होने वाला नहीं है | सारे हिन्दू मुसलमान बन जाएँ, अन्यथा उन्हें ख़त्म कर दिया जाए, यह जिहादी मानसिकता दकियानूसी और जहालत की पराकाष्ठा नहीं तो क्या है ? यही मानसिकता सारे फसाद की जड़ है | किन्तु साफ़ तौर पर इसे कहने और मुसलमानों को समझाने की हिम्मत कोई नहीं करता | 

अब ताजा तरीन उदाहरण देखिये कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के एक सदस्य मौलाना सैयद सलमान हुसैन नदवी ने इतना भर कहा कि इस्लाम में मस्जिद को स्थानांतरित करने की व्यवस्था है, अतः रामजन्मभूमि विवाद को सुलझाया जा सकता है | नतीजा क्या हुआ ? उन महाशय को बोर्ड से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया | किसी राजनैतिक दल ने इस कार्यवाही के विरोध में एक शब्द नहीं कहा | अगर एक स्वर से सभी दल नदवी साहब का समर्थन करते तो क्या आम मुस्लिम अपने दकियानूसी दायरे से बाहर आने के विषय में गंभीरता से नहीं सोचता ? लेकिन दुर्भाग्य से वोट के लालच में हिन्दू मुस्लिम संघर्ष को बढ़ावा देने के ही प्रयास होते हैं, दोनों के बीच की खाई को पाटने के कोई प्रयत्न नहीं होते | 

संघ का रुख यथार्थपरक है, जबकि तथाकथित सेक्यूलर, इतिहास से कुछ सीखना ही नहीं चाहते, और अपने कल्पनालोक में रहकर देश को समस्याओं के मकडजाल में जकडे रहने देना चाहते हैं | हद तो यह है कि वे इस हद तक सोचते हैं कि चुनावों के समय संघ को कोसने से मुस्लिम खुश होंगे और एक मुश्त उन्हें वोट करेंगे | इसी मानसिकता का प्रतीक है, हाल ही में संघ प्रमुख के राष्ट्रप्रेम की अभिव्यक्ति को सेना विरोधी प्रमाणित करने की सेक्यूलर कोशिश | कर्नाटक विधानसभा चुनाव में मुस्लिम वोटों का गणित भर है इसके पीछे और कुछ नहीं | 

सीमा पर बढ़ते तनाव से सेक्यूलर नेताओं को कुछ लेना देना नहीं है | जरा सोचिये कि कांग्रेस के निलंबित नेता मणिशंकर अय्यर हर चुनाव के पूर्व पाकिस्तान क्यों जाते हैं ? न केवल जाते हैं, पाकिस्तान परस्ती दिखाते हैं और हिंदुस्तान के पाकिस्तान परस्त मुस्लिम समाज को साफ़ सन्देश देते हैं कि हम ही हैं तुम्हारे सबसे भरोसेमंद रहनुमा | हमें वोट दोगे तो ही भारत में चैन से रहोगे | 

मेरे आलेख का तात्पर्य यह कतई नहीं है कि भारत के सारे मुसलमान पाकिस्तान परस्त हैं, किन्तु सेक्यूलर नेता ऐसा ही मानते हैं और यही मानकर उनकी रणनीति बनती है | सचाई तो यह है कि आम मुस्लिम सुकून से जीवन यापन करना चाहता है, किन्तु वह मुखर नहीं है, जबकि अतिवादी मुखर होते हैं और उन्हें सेक्यूलर जमात मुखर रखना भी चाहती है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर | 

आवश्यकता इस बात की है कि मुस्लिमों को राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने का प्रयत्न युद्धस्तर पर किया जाए, यही संघ दिल से चाहता है | जिस प्रकार हिन्दू समाज में से अनेक लोग मुस्लिमों के प्रति सद्भाव दिखाते दिख जाते हैं, उसी प्रकार और उसी अनुपात में मुस्लिमों में से भी हिन्दू भावनाओं की कदर करने के स्वर जब सुनाई देने लग जायेंगे, तब ही हिन्दू मुस्लिम समरसता होगी और तभी भारत उन्नति के सोपान चढ़ेगा | लेकिन यह होगा तभी, जब वोटपरस्ती पर राष्ट्रप्रेम हावी होगा | सब मिलकर इस दिशा में प्रयत्न करेंगे | हिन्दू मुस्लिम एक्य की इच्छा रखने वाले मुस्लिम नेतृत्व को बढ़ावा मिले और मतभेद बढ़ाने वाले जिहादी तत्वों के होंसले पस्त हों | 

जिस दिन हिन्दू मुस्लिम सम्बन्ध सौहार्द्र पूर्ण हो जायेंगे, उस दिन संघ स्वयंसेवक भी हर राजनैतिक दल में दिखने लगेंगे | क्योंकि तभी उनके लिए हर दल के दरवाजे खुलेंगे | तब तक तो भाजपा ही संघ स्वयंसेवक की नियति है | पुरानी कहावत है - तोहे और न मोहे ठौर |

एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें