ब्रह्माण्ड के रहस्यों की तह तक जाने में जुटा भारत - च्ंद्रमा के दक्षिणी धुव्र पर जाने की तैयारी - प्रमोद भार्गव



भारत इसी साल अप्रैल में चंद्रयान-2 को प्रक्षेपित करने के अभियान में जुटा है। भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी इसरों पहली बार अपने यान को चंद्रमा के दक्षिणी धुव्र पर उतारने की कोशिश में है। याद रहे भारत द्वारा 2008 में भेजे गए चंद्रयान-1 ने ही दुनिया में पहली बार चंद्रमा पर पानी होने की खोज की है। चंद्रयान-2 इसी अभियान का विस्तार है। यह अभियान मानव को चांद पर उतारने जैसा ही चमत्कारिक होगा। इस अभियान की लागत करीब 800 करोड़ रूपए आएगी। चांद पर उतरने वाला यान अब तक चंद्रमा के अछूते हिस्से दक्षिणी धुव्र के रहस्यों को खंगालेगा। चंद्रयान-2 इसरों का पहला ऐसा यान है, जो किसी दूसरे ग्रह की जमीन पर अपना यान उतारेगा। दक्षिणी धुव्र पर यान को भेजने का उद्देश्य इसलिए अहम् है, क्योंकि यह स्थल दुनिया के अंतरिक्ष वैज्ञानिकों के लिए अब तक रहस्यमयी बना हुआ है। यहां की चट्टानें 10 लाख साल से भी ज्यादा पुरानी बताई गई हैं। इतनी प्राचीन चट्टानों के अध्ययन से ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति को समझने में मदद मिल सकती है। दक्षिणी धुव्र पर अब तक कोई भी यान नहीं उतारा गया है। अब तक के अभियानों में ज्यादातर यान चंद्रमा की भूमध्य रेखा के आसपास ही उतरते रहे हैं। 

हमारे पुराण साहित्य में चंद्रमा का उल्लेख समुद्र-मंथन के प्रसंग में मिलता है। इसे, इस मंथन में मिले 14 रत्नों में से एक बताया गया है। यहां आश्चर्य होता है कि चंद्रमा कोई गाय हाथी, घोड़ा, शंख, महालक्ष्मी या धनवंतरि जैसा तो नहीं जो इतनी सहजता से मिल गया ? चंद्रमा, पृथ्वी की तरह ब्रह्माण्ड का एक गृह है, जो लाखों साल से यथा-स्थान पर टिका हुआ है। आईये इस पौराणिक आख्यान को समझने का प्रयास करें । 

चंद्रमा पृथ्वी का सबसे करीबी गृह है। इसलिए इसे जानने की उत्सुकता खगोल-विज्ञानियों को हमेशा रही है। उनके शोध के अनुसार जब पृथ्वी अस्तित्व में आई, उसी के समानांतर चंद्रमा का प्रदुर्भाव हुआ। माना जाता है कि पृथ्वी के जिस हिस्से में आज प्रषांत महासागर है, चंद्रमा उसी स्थल से पृथ्वी से विलग हुआ था। समुद्र मंथन के पराक्रमियों ने तो वस्तुतः इस स्थल पर पहुंचकर चंद्रमा के पृथ्वी से अलग होने के रहस्य को जाना समझा | आरंभिक अवस्था में इन ग्रहों पर अंतरिक्ष में भटकने वाले उल्का-पिंडों,क्षुद्र-ग्रहों और अन्य घातक वस्तुओं का प्रहार लगातार होता रहा । साथ ही इनका निरंतर विस्तार भी होता रहा। फिर कालांतर में पृथ्वी और चंद्रमा पूर्ण ग्रहों के रूप में अस्तित्व में आए। 

भारत और जापान मिलकर ‘मून-मिशन‘ की तैयारी में जुटे हैं। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के अध्यक्ष एएस किरण कुमार और जापान एरोस्पेस एक्सप्लोरेशन एजेंसी के अध्यक्ष नाओकी ओकुमारा ने एक संयुक्त बयान में इस ‘चंद्रमा-अभियान‘ की जानकारी देते हुए कहा था, ‘इस अभियान की क्रियान्वयन से जुड़ी सभी तैयारियां लगभग पूरी कर ली गई हैं। मार्च 2018 के अंत तक सभी प्रक्रियाएं पूरी कर ली जाएंगी। तत्पश्चात इसे इसी साल अप्रैल या फिर नबंवर में प्रेक्षेपित कर दिया जाएगा।‘ दोनों देशों का यह साझा कार्यक्रम नवंबर-2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और जापानी प्रधानमंत्री षिंजो अबे के बीच अतंरिक्ष अभियानों में सहयोग बढ़ाने पर हुई सहमति का परिणाम है। इस अभियान की विलक्षणता यह है कि इसमें चंद्रमा पर एक बार फिर मनुष्य को ले जाने और वहां की भूमि से नमूने एकत्रित करना भी शामिल है। भारत मानवविहीन चंद्रयान-1, 22 अक्टूबर 2008 को भेजने में सफल हो चुका है। ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान, मसलन पीएसएलवी-सी-11 से छोड़े गए इस यान का उस वक्त खर्च करीब 400 करोड़ रुपए आया था। पृथ्वी से चंद्रमा की दूरी करीब 4 लाख किमी है। यह यान पृथ्वी के गुरूत्वाकर्शण क्षेत्र से बाहर रहते हुए अभी भी सक्रिय है। यह सफलता हमें पहली बार में ही मिल गई थी। 

दरसअल अंतरिक्ष में मौजूद ग्रहों पर यानों को भेजने की प्रक्रिया बेहद जटिल और षंकाओं से भरी होती है। यदि अवरोह का कोण जरा भी डिग जाए या फिर गति का संतुलन थोड़ा भी बिगड़ कर लड़खड़ा जाए तो कोई भी चंद्र-अभियान या तो चंद्रमा पर जाकर ध्वस्त हो जाता है, या फिर अंतरिक्ष में कहीं भटक जाता है। इसे न तो खोजा जा सकता है और न ही नियंत्रित करके इसे दोबारा लक्ष्य पर लगाया जा सकता है। 1960 के दशक में जब अमेरिका ने उपग्रह भेजे थे, तब उसके शुरू के छह प्रक्षेपण के प्रयास असफल हो गए थे। अविभाजित सोवियत संघ ने 1959 से 1976 के बीच 29 अभियानों को अंजाम दिया। इनमें से नौ असफल रहे थे। 1959 में रूस ने पहला उपग्रह भेजकर इस प्रतिस्पर्धा को गति दे दी थी। तब से लेकर अब तक 67 चंद्र-अभियान हो चुके हैं, लेकिन चंद्रमा के बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं जुटाई जा सकी थी। इस होड़ का ही नतीजा रहा कि अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी ने चंद्रमा पर मानव भेजने का संकल्प ले लिया। 20 जुलाई 1969 को अमेरिका ने यह ऐतिहासिक उपलब्धि वैज्ञानिक नील आर्मस्ट्रांग और बज एल्ड्रिन को चंद्रमा पर उतारकर प्राप्त भी कर ली। इसी से कदमताल मिलाते हुए रूस ने 3 अप्रैल 1984 को वैज्ञानिक स्नेकालोव, मालिषेव बाईकानूर और राकेश शर्मा को अंतरिक्ष यान सोयूज टी-11 में बिठाकर चंद्रमा पर भेजने की सफलता हासिल की। चंद्रमा पर कदम रखने का इस अभियान के जरिए भारतीय राकेश शर्मा को भी अवसर मिल गया। इस कड़ी में चीन 2003 में मानवयुक्त यान चंद्रमा पर उतारने में सफल हो चुका है। 

रूस और अमेरिका कालांतर में चंद्र-अभियानों से इसलिए पीछे हट गए, क्योंकि एक तो ये अत्याधिक खर्चीले थे, दूसरे मानवयुक्त यान भेजने के बावजूद चंद्रमा के खगोलीय रहस्यों के नए खुलासे नहीं हो पाए। वहां मानव बस्तियां बसाए जाने की संभावनाएं भी नहीं तलाशी जा सकीं। गोया, दोनों ही देशों की होड़ बिना किसी परिणाम पर पहुंचे ठंडी पड़ती चली गई। किंतु 90 के दशक में चंद्रमा को लेकर फिर से दुनिया के सक्षम देशों की दिलचस्पी बढ़ने लगी। ऐसा तब हुआ जब चंद्रमा पर बर्फीले पानी और भविष्य के ईंधन के रूप में हिलियम-3 की बड़ी मात्रा में उपलब्ध होने की जानकारियां मिलने लगीं। वैज्ञानिक दावा कर रहे हैं कि ऊर्जा उत्पादन की फ्यूजन तकनीक के व्यावहारिक होते ही ईंधन के स्त्रोत के रूप में चांद की उपयोगिता बढ़ जाएगी। यह स्थिति आने वाले दो दशकों के भीतर बन सकती है। ऐसे में जापान और भारत का साथ आना इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि चंद्रमा के परिप्रेक्ष्य में दोनों की प्रौद्योगिकी दक्षता परस्पर पूरक सिद्ध हो रही है। मंगल हो या फिर चंद्रमा कम लागत के अतंरिक्ष यान भेजने में भारत ने विशेष दक्षता प्राप्त कर ली है। दूसरी तरफ जापान ने हाल ही चंद्रमा पर 50 किमी लंबी एक ऐसी प्राकृतिक सुरंग खोज निकाली है, जिससे भयंकर लावा फूट रहा है। चंद्रमा की सतह पर रेडिएशन से युक्त यह लावा ही अग्नि रूपी वह तत्व है, जो चंद्रमा पर मनुष्य के टिके रहने की बुनियादी शर्तों में से एक है। इन लावा सुरंगों के ईद-गिर्द ही ऐसा परिवेश बनाया जाना संभव है, जहां मनुष्य जीवन-रक्षा के कृत्रिम उपकरणों से मुक्त रहते हुए, प्राकृतिक रूप से जीवन-यापन कर सके। 

इधर भारत के चंद्रयान-1 और अमेरिकी नासा के लुनर रीकॉनाइसेंस ऑर्बिटर ने हाल ही में ऐसी जानकारियां भेजी हैं, जिसने चंद्रमा पर चौतरफा पानी उपलब्ध होने के संकेत मिलते हैं। गोया, चंद्रमा की सतह पर पानी किसी एक भू-भाग में नहीं, बल्कि हर तरफ फैला हुआ है। इससे पहले की जानकारियों से सिर्फ यह ज्ञात हो रहा था कि चंद्रमा के ध्रुवीय अक्षांश पर अधिक मात्रा में पानी है। इसके अतिरिक्त चंद्रमा के दिनों के अनुसार भी पानी की मात्रा बढ़ती व घटती रहती है। पृथ्वी के साढ़े उनतीस दिन के बराबर चंद्रमा का एक दिन होता है। ‘नेचर जिओ साइंस जर्नल‘ में छपे लेख के मुताबिक चंद्रमा पर पानी की उत्पत्ति का ज्ञान होने के साथ ही, इसके प्रयोग के नए तरीके ढूढ़े जाएंगे। इस पानी को पीने लायक बनाने के लिए नए शोध होंगे। इसे हाइड्रोजन और ऑक्सीजन में विघटित कर सांस लेने लायक वातावरण निर्मित करने की भी कोशिशें होंगी। इसी पानी को विघटित कर इसे रॉकेट के ईंधन के रूप में भी इस्तेमाल किया जाएगा। 

चंद्रयान-1 ने पानी के जो डाटा भेजे हैं, उनके विष्लेशण से पानी में ओएच (हाइड्रोक्सिल) पाए जाने की उम्मीद बढ़ी है। ओएच, एच-2 ओ से अधिक सक्रिय है। नतीजतन तुरंत किसी अन्य यौगिक से जुड़ जाता है। किसी भी ग्रह पर रहने के लिए यह भी जरूरी है कि वहां का तापमान न तो बेहद गर्म हो और न ही ठंडा। ऐसे ही ग्रह का आकार पृथ्वी के द्रव्यमान के अनुसार ही होना चाहिए, वरना गुरूत्वाकर्शण एक समस्या के रूप में आड़े आ सकता है। बहरहाल फिलहाल केवल आशा और उम्मीदों पर काम हो रहा है। भविष्य की अंतरिक्ष यात्राओं का सफर बहुत लंबा होने के साथ संभावनाओं और आषंकाओं से भी जुड़ा है। गोया, जो अनंत ब्रह्माण्ड को खंगाल रहे हैं, वे ही ऐसे स्थलों पर पहुंच सकते हैं, जहां शंकालु और निराशावादी पहुंचने का विचार भी नहीं कर सकते हैं। इस नाते चंद्रयान-2 अभियान का स्वागत करने की जरूरत है। 

प्रमोद भार्गव 

लेखक/पत्रकार 

शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी 

शिवपुरी म.प्र. 

मो. 09425488224, 09981061100 

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लेखक, साहित्यकार एवं वरिष्ठ पत्रकार है। 



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