बंगाल में कम्यूनिस्टों का शासन उखाड़ने वाली ममता, त्रिपुरा में कम्यूनिस्टों की हार से परेशान क्यूं ? - असीम कुमार मित्र



त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक सरकार को भारत का "सबसे गरीब" मुख्यमंत्री प्रचारित कर कम्यूनिस्ट लॉबी जन सहानुभूति पाने का प्रयास करती थी, किन्तु 3 मार्च को उनके इस शिगूफे का अंत हो गया और त्रिपुरा का लाल किला ढह गया । किन्तु इसके साथ ही "हवाई चप्पल" पहिनकर सदैव स्वयं को सादगी की मूरत बताने वाली बंगाल की मुख्य मंत्री ममता बैनर्जी के चेहरे पर भी हवाईयां उड़ती दिखने लगी हैं । त्रिपुरा के चुनाव परिणामों की समीक्षा करते हुए “टाइम्स ऑफ इंडिया” के संवाददाता सौगत रॉय ने टिप्पणी की: "त्रिपुरा के लाल गढ़ में आई भगवा सुनामी ने उन ममता बनर्जी को चुनौती दी है , जिन्होंने 2011 में पश्चिम बंगाल में वामपंथियों का भक्षण किया था ।" 

इस सदमे ने उन्हें इतना अकबका दिया है कि अब वे भाजपा में हरेक को आंय बांय सांय बोलने लगी हैं | पार्टी के हर छोटे बड़े नेता के साथ, वे स्वयं नरेंद्र मोदी को भी अपमानित करने लगी हैं । उनके उन असंसदीय बयानों पर तो चर्चा ही बेमानी है, लेकिन, यह स्पष्ट है कि त्रिपुरा के नतीजे से वे बहुत परेशान हैं । उन्होंने राज्य विधानसभा के एक विधायक से कहा भी कि अगर वहां सीपीएम चुनाव जीत जाती तो उन्हें खुशी होती । लोग इस स्थिति में पूछ सकते हैं कि उनका दिमागी संतुलन ठीक तो है न ? 

हालांकि वे इस सचाई को पहले से भांप चुकी थीं कि त्रिपुरा में वामपंथी शासन का अंत निकट है, इसलिए उन्होंने कांग्रेस को सीपीएम के साथ समझौते का सुझाव भी दिया था । किन्तु राहुल गांधी इसके लिए सहमत नहीं हुए । इसलिए ममता अब कहती भी हैं कि राहुल गांधी की पार्टी का शून्य हो जाना स्वाभाविक है । 

लेकिन बनर्जी द्वारा भाजपा-आरएसएस पर आक्षेप लगाना, कोई नई बात नहीं है । उन्होंने 2014 की मोदी लहर के दौरान भी अकेले अपने दम पर बीजेपी को चुनौती दी थी और 2016 के विधानसभा चुनावों में भी भाजपा और कांग्रेस-सीपीएम गठबंधन को पराजित कर, जीत हासिल की थी । किन्तु अब निकट भविष्य में होने वाले पंचायत चुनाव उनके लिए एक चुनौती बनकर सामने हैं । 

2011 के बाद से ही बंगाल में हुए सभी चुनावों में वाम मोर्चा सिमटता गया और उसका स्थान भाजपा लेती गई | 2011 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को रिकोर्ड 40.22 प्रतिशत वोट मिले, हालांकि उसकी यह बढ़त स्थाई नहीं रही । 2014 के लोकसभा चुनाव में उसे 29 प्रतिशत और 2016 के विधानसभा चुनाव में महज 25.8 प्रतिशत वोट ही भाजपा को मिले । संभवतः तृणमूल विरोधी वोटों का बंटवारा इसका प्रमुख कारण रहा । 

बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष का मानना ​​है कि पार्टी आगामी पंचायत चुनावों से बेहतर प्रदर्शन करेगी । त्रिपुरा के ही समान आगामी छह महीनों में बदलाव दिखने लगेगा । दीदी इसीलिए चिंतित हैं और चाहती थीं कि काश त्रिपुरा में सीपीएम चुनाव जीत जाए । घोष का कहना है कि भाजपा को रोकने के लिए अब वे बंगाल में सीपीएम और कांग्रेस को नवजीवन देना चाहती है । 

त्रिपुरा में वाम दलों के सफाए के बाद तृणमूल नेता भी अपनी कमजोरियों से आशंकित हैं । 

1) उनमें से सबसे महत्वपूर्ण हैं, उत्तरी बंगाल की तलहटी में बसे जनजातीय क्षेत्र – कल्चिनी, फलकता, मदईहट, धूपगुड़ी, माल, नागराकाट आदि | साथ ही जंगल महल, पश्चिम मिदनापुर, पुरूलिया, बांकुरा, बीरभूम के कुछ हिस्से, मालदा और दीनाजपुर । देश भर में जनजातियों, अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजातियों के लिए भाजपा और आरएसएस ने जो सेवा प्रकल्प चलाये हैं, उनके कारण इन क्षेत्रों में भारतीय जनता पार्टी का प्रभाव बढ़ा है । स्मरणीय है कि त्रिपुरा में भी इसका ही बड़ा लाभ भाजपा को मिला है। 

2) तृणमूल के लिए दूसरा सबसे कमजोर क्षेत्र हिंदू शरणार्थी बहुल इलाके हैं, जहां पहले लोग वामपंथियों के साथ चले गए थे, किन्तु अब उनका रुझान भाजपा की ओर है । शरणार्थी बेल्टों में वामपंथियों के कमजोर होने का सबसे बड़ा लाभ भाजपा को मिल रहा है । 

3) और सबसे बड़ी बात, जिसने ममता दीदी को परेशान कर रखा है, वह है – बंगाल के शिक्षित मध्यम वर्ग में अकस्मात बढ़ता हिंदुत्व की अवधारणा के प्रति रुझान | यह वहां के धर्मनिरपेक्ष वातावरण के लिए एक नितांत अनहोनी सी घटना है । 

4) ममता बनर्जी को इस सबकी जानकारी है | इसीलिए वह बारबार जंगलमहल और उत्तर बंगाल के दौरे कर यह देख रही हैं कि सरकारी योजनाओं का लाभ धरातल पर पहुँच रहा है या नहीं । वह बंगाल में निवेश लाने और रोजागर की तलाश में शिक्षित युवाओं के राज्य से बाहर जाने को भी रोकने को बेताब हैं। 

अब ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस, मकडी के जाल में फंसी मक्खी के समान फडफडा रही हैं, जबकि भाजपा, कहीं अधिक परिष्कृत और संगठित तरीके से तैयारी में जुटी हुई है । 

अनुवाद – हरिहर शर्मा 

साभार – ओर्गेनाइजर
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