किराये पर कोख - संजय तिवारी

सभ्यता के विकास के किस पायदान पर आ गए हम ? यह कौन सी संवेदना है ? कैसी मानवता का निर्माण ? कैसे परिवार और संतति ? किस तरह के रिश्ते ? माँ , माँ नहीं। पिता , पिता नहीं। संतान पाना है तो खरीद लाइए। संतान बेचने वाले स्टोइनुमा अस्पताल खोल कर आखिर सभ्यता की किस उन्नति सीढ़ी पर आदमी चढ़ाना चाह रहा है। जैसे सब्जी, अनाज , पज्जा , बर्गर , मिठाई , मांस , अंडे बिक रहे हैं वैसे ही बच्चे भी ? मुर्गीफॉर्म में अंडे पैदा किया जा रहे हैं और मालनुमा अस्पतालों में बच्चे। किराए की कोख से ? और ताजुब यह कि स्त्री की इतनी गिरी दशा पर कोई नारीवादी संगठन कुछ भी नहीं बोल रहा ? जिसके पास पैसा है वह स्त्री को किराये पर लेकर उससे बच्चे पैदा करवाता है और फिर छोड़ देता है कीमत देकर ? माँ की भी कोई कीमत होती है क्या ? विश्व के हर साहित्य और सभ्यता में माँ को परमात्मा से भी बड़ा ओहदा दिया गया है। यहाँ तो माँ तीन चार लाख रुपये में बिकती है। जो चाहे खरीद ले। 

किराए की कोख। यह वाक्य सुनने में ही बहुत अटपटा सा लगता है। सामान्य आदमी तो इस बात को पूरी तरह समझने में असमर्थ होता है। किराए की कोख का क्या मतलब है या इसकी जरूरत क्या है, ये सारे प्रश्न एकाएक दिमाग में आने लगते हैं। व्यक्ति यह सोचने पर मजबूर हो जाता है कि क्या ऐसा भी होता है? हां, आधुनिक समय में इसका चलन बढ़ता जा रहा है और यह वरदान की जगह अभिशाप बनता जा रहा है। किराए की कोख के लिए अंग्रेजी में शब्द प्रचलित है- सरोगेसी। 

सबसे पहले इस बात पर चर्चा करते हैं कि आखिर सरोगेसी है क्या? सरोगेसी शब्द लैटिन भाषा के ‘सबरोगेट’ शब्द से आया है, जिसका अर्थ होता है कि किसी और को अपने काम के लिए नियुक्त करना। यानी सरोगेसी का मतलब है- मां का विकल्प। सरोगेट मां, एक ऐसी मां, जिसके गर्भ में किसी और पति-पत्नी का बच्चा पल रहा हो। इस प्रक्रिया में किसी और पति-पत्नी के स्पर्म और एग को एक लैब में फर्टिलाइज करके उससे बने भ्रूण को सरोगेट मां के गर्भ में प्रत्यारोपित कर दिया जाता है। नौ महीने तक यह बच्चा सरोगेट मां के गर्भ में रहता है और नौ महीने के बाद जन्म लेने पर वह बच्चा उस पति-पत्नी का हो जाता है, जिनके स्पर्म और एग से भ्रूण बना था। जब टेस्ट ट्यूब जैसी तकनीक से भी बच्चा प्राप्त करने में सफलता नहीं मिलती तो आखिरी रास्ता बचता है सरोगेसी का, जिससे इच्छुक दंपति को बच्चा प्राप्त होता है। समाज में प्रचलित हर तकनीक के दो पहलू होते हैं- एक लाभदायक और दूसरा हानिकारक। सरोगेसी के मामले में भी कुछ ऐसा ही है। समाज में मेडिकल कारणों से जिनके बच्चे नहीं होते, वे न जाने कहां-कहां भटकते रहते हैं। समाज में बच्चा चाहने वाले मां-बाप का जिस स्तर पर भावनात्मक और आर्थिक शोषण होता है, वह सामाजिक व पारिवारिक शोषण की तुलना में कुछ भी नहीं। नि:संतान दंपत्तियों को परिवार और समाज इतना बेबस कर देता है कि वे या तो उपाय बेचने वाले ठगों का शिकार बनते हैं या चिकित्सा विज्ञान की शरण में आकर उनके विकल्पों को आजमाते है। उनमें से ही एक है सरोगेसी या किराए की कोख। निसंतान लोगों के लिए यह एक चिकित्सा विकल्प है। इसके माध्यम से वे संतान प्राप्त करने की खुशी हासिल कर सकते हैं। सरोगेसी की जरूरत तब पड़ती है, जब कोई स्त्री गर्भ धारण करने में सक्षम नहीं होती है।

दो प्रकार की सरोगसी 

सरोगेसी भी दो प्रकार की होती है- ट्रेडिशनल और जेस्टेशनल। ट्रेडिशनल सरोगेसी में पिता के स्पर्म को किसी अन्य महिला के एग के साथ फर्टिलाइज किया जाता है। ऐसी सरोगेसी में बच्चे का जेनेटिक संबंध केवल पिता से होता है, जबकि जेस्टेशनल सरोगेसी में माता-पिता के क्रमश: एग और स्पर्म को परखनली विधि से फर्टिलाइज करके भ्रूण को सरोगेट मां के गर्भाशय में प्रत्यारोपित किया जाता है। इसमें बच्चे का जेनेटिक संबंध माता व पिता दोनों से होता है। यह सही है कि किराए की कोख यानी सरोगेसी व्यावसायिक रूप ले रहा है, जिससे इसका दुरुपयोग हो रहा है। मगर गरीबी जो न कराए! जानकारी के मुताबिक, किराए की कोख के मामले सर्वाधिक भारत में ही हैं। यदि पूरी दुनिया में साल में 500 से अधिक सरोगेसी के मामले होते हैं तो उनमें से करीब 300 भारत में ही होते हैं। 

अब प्रश्न उठता है कि कौन बनती है सरोगेट मां (किराए की मां)। भला दूसरे का बच्चा कौन अपने गर्भ में धारण करना चाहेगा? पर गरीबी ही सब कराती है। खबरों में आमतौर पर 18 से 35 साल तक की महिलाएं सरोगेट मां बनने के लिए तैयार हो जाती हैं, जिससे उन्हें तीन-चार लाख रुपये तक मिल जाते हैं और उनके परिवार का भविष्य में भरण-पोषण होने में मदद मिल जाती है। भारत-नेपाल बॉर्डर पर किराए की कोख का कार्य धड़ल्ले से चल रहा है। इस कारोबार का हेड ऑफिस नेपालगंज, पोखरा व काठमांडू बना हुआ है। यहां दिल्ली व मुंबई से कई लड़कियां अंडाणु दान करने आती हैं। इन अंडाणुओं को नेपालगंज व पोखरा स्थित एक टेस्टट्यूब सेंटर में फ्रीज करके रखा जाता है। इसके बाद आईवीएफ तकनीक से नेपाली महिलाओं को गर्भधारण कराया जाता है। 

इस पेशे में लगे सूत्र बता रहे हैं कि भारतीय मूल की युवतियों के अंडाणुओं को चीन, जापान व अन्य देशों में निर्यात किया जाता है। आंध्र प्रदेश के तटीय इलाकों में भुखमरी का बोलबाला इस कदर है कि यहां की महिलाएं मजबूरी में किराए की कोख का धंधा करती हैं। आंध्र प्रदेश का यह क्षेत्र देश में सरोगेसी माताओं की शरण स्थली बनकर रह गया है। भारत में गुजरात के आणंद नामक मशहूर स्थान किराए की कोख का सबसे बड़ा केंद्र बन चुका है। यहां लगभग 150 से भी ज्यादा फर्टिलिटी सेंटर किराए की कोख की सेवाएं देते हैं। अमेरिका में किराए की कोख से संतान प्राप्त करने का खर्च 50 लाख ज्यादा है, जबकि भारत में यह सुविधा सभी खर्चे मिलाकर मात्र 10 से 15 लाख में ही प्राप्त की जा सकती है। भारत में यह सुविधा सस्ती है इसलिए विदेशी किराए की कोख के लिए यहां आते हैं। किराए की कोख वाली महिलाएं ज्यादातर गरीब और अशिक्षित पाई जाती हैं, जिससे उन्हें अपने शरीर से होने वाले कानूनी और मेडिकल नुकसान की समझ भी नहीं होती है। साथ ही इन महिलाओं को स्वीकार की गई पूरी रकम भी नहीं दी जाती है। आज गरीब परिवारों की बेबसी के चलते संतान विहीन परिवार मुस्करा रहे हैं, मगर धन के लालच में लगातार बच्चे पैदा करने से सरोगेट माताओं की शारीरिक हालत सही नहीं है। इनकी देखरेख करने वाला कोई नहीं है। न तो सरकार इस पर कोई ठोस कदम उठा रही है और न ही वे लोग जो इनसे यह काम करवा रहे हैं। हरियाणा की खाप पंचायतों ने एकजुट होकर सरकार से किराए की कोख पर प्रतिबंध लगाने की मांग की है। वर्तमान केंद्र सरकार ने सरोगेसी (नियमन) बिल 2016 पारित करके सरोगेसी की स्थिति को बेहतर और सीमित करने का प्रयास किया है। केंद्रीय कैबिनेट ने अपने बिल में कामर्शियल सरोगेसी पर रोक लगाई है। इस बिल के आलोचकों की अपनी अलग राय है। इनका कहना है कि अब जो दंपति बच्चा पाना चाहते हैं उनके पास गिने-चुने विकल्प ही रह जाएंगे। इन लोगों ने यह आशंका भी व्यक्त की है कि प्रस्तावित कानून की वजह से चोरी-छिपे ढंग से एक गैरकानूनी उद्योग पनप उठेगा। साथ ही एकल दंपति को इससे वंचित करना अमानवीय और समानता के अधिकार के खिलाफ है। 

वैसे देखा जाए तो किराए की कोख की सोच बहुत विवादित है। कई बार बच्चे को जन्म देने के बाद सरोगेट मां भावनात्मक लगाव के कारण बच्चे को देने से इनकार कर देती हैं। दूसरी ओर, कई बार ऐसा भी होता है कि जन्म लेने वाली संतान विकलांग या अन्य किसी गंभीर बीमारी से ग्रस्त होती है तो इच्छुक दंपति उसे लेने से इनकार कर देते हैं। इसलिए किराए की कोख मसले पर सरकार का चिंतित होना जायज है। इस नए बिल का लक्ष्य यह सुनिश्चित करना है कि गरीब महिलओं का अनुचित लाभ न उठाया जा सके। भारतीय महिलाएं क्या इसी काम के लिए बनी हैं। इस बिल का बचाव इस प्रकार भी किया जा रहा है कि एक सामान्य परिवार को बच्चे की आवश्यकता होती है, लिव इन रिलेशन आदि में नहीं। ऐसे रिश्ते तो कभी भी टूट सकते हैं, जिससे बच्चे का भविष्य असुरक्षित हो सकता है। 

आठ देशो ने लिखा है भारत को पत्र 

सरोगेसी से पैदा बच्चे की नागरिकता पेचीदा मामला है। इसलिए आठ यूरोपीय देशों- जर्मनी, फ्रांस, पोलैंड, चेक गणराज्य, इटली, नीदरलैंड, बेल्जियम और स्पेन ने भारत सरकार को लिखा था कि वह अपने डॉक्टरों को निर्देश दे कि अगर कोई दंपति सरोगेसी के जरिए औलाद पाने का रास्ता अपनाता है, तो उन्हें संबंधित दूतावास की इजाजत के बगैर इस प्रक्रिया से न गुजरने दिया जाए।

क्या कहता है सर्वोच्च न्यायलय 

सुप्रीम कोर्ट ने भारत में सरोगेसी व्यवस्था से पैदा होती समस्याओं से निबटने के लिए कानून बनाने की जरूरत पर जोर दिया है। कड़वी सच्चाई यह है कि वर्तमान में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी भारत किराए की कोख के लिए ‘एक बड़ा बाजार’ बन चुका है। शायद यही वजह रही कि विधि आयोग को भी अपनी रिपोर्ट में सरोगेसी को उद्योग की संज्ञा देनी पड़ी। भारत में किराए की कोख से जन्म लेने वाले बच्चों, उनकी वास्तविक मां और उनके मातृत्व के विषय में कोई सार्थक कानून न होने से अब इस संपूर्ण सरोगेसी व्यवस्था से जुड़े तमाम कानूनी मुद्दों के साथ में सामाजिक व नैतिक मुद्दे भी लोगों को मथने लगे हैं। सर्वोच्च न्यायालय के सवाल पर केंद्र सरकार ऩे कहा है कि वह जल्द ही देश में किराए की कोख को कारोबार बनने से रोकने का उपाय करेगी। अब देखना है कि सरकार इस पर कब तक कानून बना पाती है।

कैबिनेट ने सरोगेसी (विनियमन) विधेयक, 2016 

केंद्रीय मंत्रिमंडल ने ‘सरोगेसी (विनियमन) विधेयक, 2016’ के लिए अपनी मंजूरी दे दी है। इस बिल को केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जय प्रकाश नड्डा ने नवम्बर 2016 में लोकसभा में पेश किया था। यह विधेयक केंद्रीय स्तर पर राष्ट्रीय सरोगेसी बोर्ड एवं राज्य सरोगेसी बोर्डों के गठन और राज्य एवं केंद्रशासित प्रदेशों में उपयुक्त प्राधिकारियों के जरिये भारत में सरोगेसी का नियमन करेगा। यह कानून सरोगेसी का प्रभावी विनियमन, वाणिज्यिक सरोगेसी की रोकथाम और जरूरतमंद बांझ दंपतियों के लिए नैतिक सरोगेसी की अनुमति सुनिश्चित करेगा। नैतिक लाभ उठाने की चाहत रखने वाली सभी भारतीय विवाहित बांझ दंपतियों को इससे फायदा मिलेगा। इसके अलावा सरोगेट माता और सरोगेसी से उत्पन्न बच्चों के अधिकार भी सुरक्षित होंगे। यह विधेयक जम्मू-कश्मीर राज्य को छोड़कर पूरे भारत पर लागू होगा। यह कानून देश में सरोगेसी सेवाओं को विनियमित करेगा जो उसका सबसे बड़ा फायदा होगा। हालांकि मानव भ्रूण और युग्मकों की खरीद-बिक्री सहित वाणिज्यिक सरोगेसी पर निषेध होगा, लेकिन कुछ खास उद्देश्यों के लिए निश्चित शर्तों के साथ जरूरतमंद बांझ दंपतियों के लिए नैतिक सरोगेसी की अनुमति दी जाएगी। इस प्रकार यह सरोगेसी में अनैतिक गतिविधियों को नियंत्रित करेगा, सरोगेसी के वाणिज्यिकरण पर रोक लगेगी और सरोगेट माताओं एवं सरोगेसी से पैदा हुए बच्चों के संभावित शोषण पर रोक लगेगा। मसौदा विधेयक में किसी स्थायी ढांचे के सृजन का प्रस्ताव नहीं है। न ही उसमें किसी नए पद के सृजन का प्रस्ताव है। हालांकि प्रस्तावित कानून एक महत्वपूर्ण क्षेत्र को कवर करता है जिसे इस तरीके से तैयार किया गया है ताकि प्रभावी विनियमन सुनिश्चित हो सके। केंद्र और राज्य स्तर पर लागू वर्तमान नियामकीय ढांचे की ओर इसका अधिक झुकाव नहीं है। इसी प्रकार, राष्ट्रीय और राज्य सरोगेसी बोर्डों एवं उपयुक्त अधिकारियों की बैठक के अलावा इसमें कोई वित्तीय जटिलता भी नहीं है। केंद्र और राज्य सरकारों के नियमित बजट के बाद बोर्डों और अधिकारियों की बैठकें होंगी। 

फर्टिलिटी क्लीनिक्स को छूट

यह बिल राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर सरोगेसी बोर्ड बनाने का प्रस्ताव रखता है जो कि इस तरह के मामलों को नियमित करेगें, लेकिन यह (एआरटी फर्टिलिटी और असिस्टिड रिप्रोडक्टिव टैक्नोलजी) क्लीनिक्स के बढ़ते कारोबार को नियमित करने वाली संस्था की ज़रूरत पर अपना रुख बहुत साफ नहीं करता. विधेयक सरोगेसी क्लिनिक्स के रजिस्ट्रेशन और मानकों की निगरानी के लिए ‘अप्रोप्रिएट अथॉरिटी’ की बात तो करता है. लेकिन इस अथॉरिटी के बारे में खुल कर ज्यादा कुछ नहीं कहता.

लेकिन स्टैंडिंग कमेटी की सिफारिशों में इस मुद्दे को शामिल किया गया है. कमेटी ने सिफारिश की है कि इस बिल से पहले असिस्टिड रिप्रोडक्टिव टैक्नोलॉजी बिल (एआरटी बिल) को लाया जाना चाहिए. कमेटी की सिफारिशी रिपोर्ट कहती है ‘यह एक तथ्य है कि असिस्टिड रिप्रोडक्टिव तकनीकों के बिना सरोगेसी प्रक्रिया का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता इसलिए सिर्फ सरोगेसी बिल सरोगेसी सुविधाओं के व्यवसायीकरण को रोकने के लिए काफी नहीं होगा.’ बिल में जिस ‘अप्रोप्रिएट अथॉरिटी’ का ज़िक्र किया गया है वह सिर्फ सरोगेसी क्लिनिक्स के लिए है. लेकिन जेस्टेशनल सरोगेसी में इन विट्रो फर्टिलाइज़ेशन (आईवीएफ) और एम्ब्रियो ट्रांसफर (ईटी) जैसी एआरटी तकनीकों का भी इस्तेमाल होगा, जो कि सरोगेट महिला के अलावा अन्य महिलाएं भी इस्तेमाल करती हैं. ऐसे में आईवीएफ और ईटी की सुविधा देने वाले क्लिनिक सरोगेसी बिल के दायरे से बाहर रह जाएंगे.

स्टेंडिंग कमेटी की बाकी सिफारिशें

अगस्त 2017 में इस बिल पर राज्य सभा की स्टेंडिंग कमेटी ने अपनी सिफारिशें पेश की थीं. कमेटी ने निस्वार्थ सरोगेसी की जगह मुआवज़ा आधारित सरोगेसी मॉडल का सुझाव दिया था. मुआवज़े में सरोगेट महिला के प्रेग्नेंसी के दिनों का वेतन भुगतान, मनोवैज्ञानिक काउंसिलिंग और डिलीवरी के बाद की देखभाल का खर्चा शामिल होने की बात थी. कमेटी का यह भी कहना था कि विधेयक को यह भी साफ करना चाहिए कि सरोगेट महिला अपने एग डोनेट नहीं करेगी.

सिफारिशों में सरोगेसी सुविधा हासिल कर सकने वाले लोगों का दायरा बढ़ाने की सिफारिश भी की गई थी. रिपोर्ट के मुताबिक इनमें भारतीय विवाहित जोड़ों के अलावा विदेश में बसे भारतीय मूल के लोगों, अनिवासी भारतीयों और भारतीय लिवइन जोड़ों, विधवा और तलाकशुदा महिलाओं को भी शामिल किया जाना चाहिए. एलजीबीटीक्यू जोड़े इससे बाहर रखे गए थे. कमेटी ने सरोगेसी के लिए इंतज़ार की सीमा पांच साल से घटाकर एक साल करने की सिफारिश भी की थी. यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि ये सब सिर्फ सिफारिशें हैं और ज़रूरी नहीं कि इन्हें बिल में भी शामिल किया जाए.

बॉलीवुड में बढ़ा चलन 

ये लोग खुद को कलाकार कहते हैं। खुद को बहुत ही संवेदनशील भी मानते हैं। आंसू इनके अपने हथियार हैं और हर बात पर निकल पड़ते हैं लेकिन यहाँ किराए की कोख से बच्चे प्राप्त करने का खूब चलन है। ये वे लोग हैं जिनको नयी पीढ़ी और आधुनिक सभ्यता अपना रोल मॉडल मानती है। आइये देखते है अभी तक किन हस्तियों ने इस जरिये बच्चे हासिल किये है - फिल्म निर्माता करण जौहर और जितेंद्र के बेटे तुषार कपूर तो सिंगल पैरेंट्स हैं। गौरी खान ने दो संतानें, आर्यन और सुहाना, होने के बावजूद तीसरे बच्चे की ख्वाहिश की तो शाहरुख खान ने सरोगेसी का सहारा लिया। वर्ष 2013 में उन्होंने अपने तीसरे बच्चे अबराम खान के बारे में सभी को बता कर चौंका दिया।

पहली पत्नी से आमिर खान को बेटी इरा खान और बेटा जुनैद खान हैं। किरण राव से आमिर ने दूसरी शादी की और इस बार उन्होंने सरोगेसी का विकल्प आजमाया। आमिर और किरण की पहली संतान आजाद राव खान का जन्म इसी तकनीक के जरिये ही हुआ।

करण जौहर सरोगेसी के जरिये एक बेटी रूही और एक बेटे यश के पिता बने हैं। वे पापा बन कर बहुत खुश हैं।जीतेंद्र अपने पोते या पोती को देखना चाहते थे। तुषार कपूर शादी नहीं करना चाहते थे। आखिर सरोगेसी के जरिये उन्होंने अपने पापा की इच्छा पूरी कर दी। कोरियोग्राफर डायरैक्टर फराह खान का नाम सब से पहले आता है जिन्होंने मैडिकल साइंस के जरिए 3 बच्चों को एकसाथ जन्म दिया। 

बहुत कम लोग जानते हैं कि सोहेल खान और सीमा खान के छोटे बेटे योहान खान का जन्म 2011 में सरोगेसी के जरिये ही हुआ। शाहरुख को सरोगेसी के बारे में सोहेल ने ही बताया था। वर्षों पहले फिल्म निर्देशक और अभिनेता सतीश कौशिक ने अपने दो वर्षीय बेटे शानू को खोया था। बाद में उन्होंने सरोगेसी के जरिये अपना परिवार बढ़ाया। अब उनकी वंशिका नाम की बेटी है। कृष्णा अभिषेक और कश्मीरा शाह ने भी सरोगेसी का सहारा लिया और जुड़वां बच्चों के माता-पिता बने। 

क्या कह रहे हैं शोध :

दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय तथा डेनमार्क के ऑरहस विश्वविद्यालय के जरिए किराए की कोख से जुड़े कारोबार को लेकर एक शोध किया गया। साल भर चले इस शोध में 18 फर्टिलिटी क्लीनिक के 20 डॉक्टरों के साथ 14 सरोगेट मां और पांच एजेंट को शामिल किया गया था। इस शोध से जुड़े निष्कर्ष दो अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं- बायोएथिकल इनयरी और एक्टा आब्सटिट्रीसया एट गॉयनेकोलॉजिया स्कैंडिनेविया में प्रकाशित भी हुए हैं। इस शोध के निष्कर्ष साफ करते हैं कि किराए की कोख संबंधी कारोबार से अधिकांश अशिक्षित और गरीब घरों की महिलाएं जुड़ी हैं। आंकड़े इस बात की तरफ भी इशारा करते हैं कि एजेंट प्रतिनिधि देशों के अलग-अलग हिस्सों से कमजोर व गरीब घरों की महिलाओं को पैसे का लालच देकर किराए की कोख के लिए तैयार करते हैं। अधिकांश सरोगेट मां के पति या तो बेरोजगार हैं अथवा किसी कंपनी में कम पगार पर काम करते हैं।

जोखिम की जानकारी नहीं दी जाती 

यह बात भी सामने आ रही है कि समझौता करते समय इन्हें इससे जुड़े जोखिम के बारे में भी नहीं बताया जाता है। यह कारोबार एक बड़े कमीशन पर आधारित है। इससे जुड़े कमीशन एजेंट देश के तमाम हिस्से में फैले हुए हैं। किराए की कोख के देश में बढ़ रहे कारोबार को लेकर पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका भी दायर की गई थी। उस याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार के गृह, विधि और न्याय, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण तथा विदेश मंत्रालय से जवाब-तलब किया था। भारत सरोगेसी में दुनिया की राजधानी बन रहा है। सीएसआर की निदेशक ने भी अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट कहा कि किराए की कोख के कारोबार के जरिए क्लीनिकों में लोगों से 40-50 लाख रुपए वसूले जाते हैं, परंतु गरीब महिलाओं के हिस्से में केवल 3-4 लाख रुपए ही आ रहे हैं। उनकी रिपोर्ट में यह भी खुलासा किया गया है कि आर्थिक लाभ का लालच गरीब महिलाओं को सरोगेट मां बनने को मजबूर कर रहा है। आश्चर्य की बात है कि इससे जुड़े अनुबंध के बारे में इन महिलाओं को कुछ पता नहीं होता। सर्वेक्षण बताते हैं कि देश में अब तक दो हजार से भी अधिक बच्चे सेरोगेट प्रक्रिया के माध्यम से जन्म ले चुके हैं।

महिलाओ की मजबूरी 

सरोगेसी में नि:संतान दंपति और सरोगेट मां आपस में एक कानूनी समझौता करते हैं। इस समझौते में धन के भुगतान का स्पष्ट विवरण अंकित होता है। तत्पश्चात दंपति के अंडाणु को क्लीनिक की प्रयोगशाला में निशेचित करते हुए भ्रूण को सरोगेट मां के गर्भ में रोपित कर दिया जाता है। पारस्परिक समझौते के आधार पर इस पूरी प्रक्रिया में सरोगेट मां को तीन से चार लाख रुपए का भुगतान होता है। सरोगेट मां बनने की प्रक्रिया में अधिकांश निर्धन परिवारों की महिलाएं आगे आ रही हैं। सामाजिक बहिष्कार के भय से ये महिलाएं अपने सरोगेट गर्भधारण को गोपनीय रखने को भी मजबूर हैं। 

किराये के कोख की सबसे बड़ी मंडी भारत 

भारत में सरोगेसी सालाना करीब 445 मिलियन डॉलर का कारोबार बन चुका है। वर्ष 2020 तक इस कारोबार के 2.5 अरब डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद है। भारत में सरोगेसी का सबसे बढ़ा गढ़ गुजरात है। गुजरात में डेढ़ लाख की आबादी वाले आणंद में अब तक सैकड़ों गरीब परिवारों की महिलाएं सरोगेट मां बन चुकी हैं। आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि इन सरोगेट मदर के ग्राहक भारतीयों की तुलना में विदेशी अधिक हैं। इसका स्पष्ट कारण यह है कि जहां भारत में सरोगेट मां बनाने में 12 हजार डॉलर (छह लाख रुपए) का खर्च आता है, वहीं अमेरिका जैसे देश में 70 हजार डॉलर (35 लाख रुपए) का खर्च आता है। मतलब यह कि भारत में सरोगेट गर्भ का खर्च पश्चिमी देशों के मुकाबले सात गुना कम है।

भारत में दो लाख केंद्र 

आजकल यूरोपीय देशों के लोग सरोगेट मां के लिए भारत की ओर रुख कर रहे हैं। आंकड़े बताते हैं कि देश में इस समय किराए की कोख के तकरीबन दो लाख केंद्र काम कर रहे हैं। ढांचे और प्रशिक्षित स्टाफ के आधार पर आईसीएमआर इनमें से 270 को अपनी सहमति भी दे चुका है। मुंबई, दिल्ली व चंडीगढ़ आज किराए की कोख के बहुत बड़े केंद्र बन चुके हैं। तथ्य बताते हैं कि भारत में प्रतिवर्ष 30 से 35 लाख महिलाएं विवाह बंधन में बंधती हैं। इनमें सें लगभग 10 लाख नि:संतान होने का दुख झेलती हैं।

सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार का हलफनामा 

सरकार सरोगेसी (किराए की कोख) के व्यावसायीकरण के पक्ष में नहीं है। 

सिर्फ परोपकार के उद्देश्य से ही किराए की कोख को अनुमति दी जाएगी। वह भी सिर्फ जरूरतमंद भारतीय शादीशुदा नि:संतानों के लिए। इसके लिए कानून द्वारा स्थापित एक संस्था से अनुमति लेनी होगी।

सरकार सरोगेसी की व्यावसायिक सेवा पर रोक लगाएगी और ऐसा करने वालों को सजा देगी।

सिर्फ भारतीय दंपतियों के लिए ही सरोगेसी की अनुमति होगी।

कोई विदेशी भारत में सरोगेसी की सेवाएं नहीं ले सकता।

सरोगेसी से जन्मे शारीरिक रूप से अक्षम बच्चे की देखभाल का जिम्मा नहीं लेने वाले माता-पिता को सजा दी जाएगी।
महिलाओं को अपना शरीर बेचने के स्थान पर लघु उद्योगों को अपनाना चाहिए, क्योंकि सरकार के अनुसार किराए की कोख का वाणिज्यिक स्वरूप दो अरब डॉलर का अवैध धंधा बन गया है। इस अवैध धंधे से कमजोर महिलाओं का शोषण होता है। सरकार इसे व्यवसाय नहीं बनाना चाहती, महिलाओं को बच्चा निर्माण फैक्ट्री नहीं बनने देना चाहती। सरकार चाहती है कि किराए की कोख नि:संतान दंपतियों के लिए वरदान ही बनी रहे, अभिशाप न बनने पाए। केंद्र सरकार जल्द ही किराए की कोख को लेकर एक कानून बनाने जा रही है। इस कानून के तहत भारत में महिलाएं अपने बच्चों सहित तीन संतानों को सफल जन्म देने के बाद अपनी कोख किराए पर नहीं दे सकेंगी। दो बच्चों के जन्म में कम से कम दो साल का अंतर होना अनिवार्य होगा। इस कानून के अनुसार, 21 साल से कम और 35 साल से अधिक उम्र की कोई महिला सरोगेट मां नहीं बन सकेगी। इसलिए सरकार प्रयासरत है कि किराए की कोख जैसे विकल्प को वह सीमित व नियमबद्ध कर दे। अनुप्रिया पटेल केंद्रीय मंत्री
ऐसे बच्चें भविष्य में निश्चित ही अनेक भयावह चुनौतियों का सामना करने को मजबूर होंगे।यह प्रवृत्ति पूरे समाजी ढाँचे को तहस नहस करने वाली है। इससे रिश्ते. परिवार और समाज का समग्र मनोविज्ञान ही बदल जायेगा। समय आ गया है कि देश में गरीबी के आंकड़ों से जुड़ी बहस के साथ सरोगेसी से जुड़ी बहस भी प्रमुख रूप से केंद्र में हो ताकि संपूर्ण सरोगेसी प्रक्रिया में कानून के साथ-साथ गरीबी से जुड़े उन सामाजिक-आर्थिक पहलुओं पर भी निगाह डाली जा सके जिनके कारण किराए की कोख से जुड़ा यह मुद्दा गरीब परिवारों को आकर्षित कर रहा है।प्रो. सुषमा पांडेय अध्यक्ष , मनोविज्ञान विभाग गोरखपुर विश्वविद्यालय
यह आधुनिक समाज के लिए गंभीर चिता का विषय है। इसमें खतरे भी बहुत है और मानवीय दृष्टि से असंवेदनशीलता भी। जो महिला नौ महीने तक अपने गर्भ में शिशु को पाल रही है ,कैसे संभव है कि उसका लगाव उससे न हो। माँ तो आखिर वही है। दूसरा पहलू यह की किराये की माँ को आखिर कितनी वेदना सहनी पड़ती है। अपनी बेबसी उससे भले ही बच्चे को अलग कर देती है पर मानस में वह उस बच्चे की वास्तविक माता आजीवन रहती है। जब मेडिकल साइंस माता और संतान के जैविक रिश्तो पर शोध करेगा तब बहुत कुछ पता चलेगा। डॉ. मृणालिनी अध्यक्ष क्रायोबैंक इंटरनेशनल नयी दिल्ली

संजय तिवारी

संस्थापक – भारत संस्कृति न्यास, नयी दिल्ली

वरिष्ठ पत्रकार 

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