अमरीका के इशारे पर नाचते पत्रकार - राकेश कृष्णन सिन्हा


यह घटना 2001 के उत्तरार्ध की है, और नई दिल्ली से प्रकाशित होने वाले एक प्रमुख समाचार पत्र की कार्यविधि को प्रदर्शित करती है । यह एक धीमी रात थी और कोई भी प्रकाशन योग्य समाचार राज्य ब्यूरो से नहीं आया था। मैं मुख्य कॉपी संपादक और अन्य वरिष्ठ संपादक के साथ अगले दिन प्रकाशित होने वाली प्रमुख कहानियों के कथानक देख रहा था। समाचार जगत की व्यावसायिक वास्तविकता यह है कि अधिकांशतः जब रात तक राष्ट्रव्यापी कोई खास रोचक बात नहीं मिलती है, तो मीडिया कुछ घुमावदार व मसाला कहानियाँ पहुंचाने का टोटका आजमाता है । लेकिन उस विशेष रात को हमें स्पिन करने की ज़रूरत नहीं पडी, क्योंकि तभी संघर्ष विराम टूटने का समाचार आ गया | जम्मू और कश्मीर नियंत्रण रेखा पर दोनों ओर से गोलियां चलने लगीं | 

लेकिन हमारा ध्यान बंदूकें चलने के इस आम समाचार पर नहीं था, हमारा ध्यान खींचा जानी मानी भारत विरोधी सीएनएन एंकर क्रिस्टियन अमानपाउर की इकतरफा रिपोर्टिंग ने | वे पाकिस्तान-अधिकृत कश्मीर से सीधा प्रसारण कर रही थीं । जिस बात ने मुझे और उस समय काम पर उपस्थित अन्य पत्रकारों को सबसे ज्यादा चोंकाया वह यह थी कि अमानपाउर ने आरोप लगाया था कि भारतीय तोपें पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के शांतिपूर्ण गांवों में विध्वंस कर रही थीं । साथ ही वे इस समाचार को बड़े पैमाने पर मानवाधिकार उल्लंघन के रूप में पेश कर रही थीं, सीएनएन से यह समाचार इस साक्ष्य के साथ प्रसारित हो रहा था कि कई मकानों की छतें उड़ गई थीं, कहीं गड्ढे हो गए थे, तो कहीं मृत भैंस पड़ी हुई थी । अमानपाउर की तटस्थता - और उनके पत्रकारिता के मानक तो इस बात से ही स्पष्ट हो रहे थे कि वे पाकिस्तानी सेना के अधिकारियों के साथ पाकिस्तान सेना के हेलीकॉप्टर में उड़ रही थीं । और अब हम लोग भी कुटिलता पर आमादा हो गए । इन फूटेज को देखने के बाद कार्यकारी निर्णय लेने वाले रेजीडेंट संपादक ने कहा कि इसे मुखपृष्ठ पर छपवाएं। चलो सीएनएन का पर्दाफाश करते हैं। 

"मेरे जैसे पत्रकार के लिए यह एक बड़ा समाचार था, बैसे मेरा कार्य ही विभिन्न लॉबीयों को ध्यान में रखकर समाचारों को संपादित करना था | यह एक बहुत अच्छी खबर थी, जिसे हमने मुख पृष्ठ के शीर्ष पर छह-कोलम में प्रकाशित करने का निर्णय लिया । मैंने कभी किसी अग्रणी समाचार पत्र में पश्चिमी मीडिया का ऐसा पर्दाफाश नहीं देखा था, इसलिए यह एक उदाहरण बनने वाला था | मैंने उस समाचार का शीर्षक सोचा "भारत की एलओसी पर बैलिस्टिक चलाता हुआ सीएनएन "। 

प्रेस में छपाई शुरू हो पाती इसके पूर्व ही रेजीडेंट सम्पादक दौड़ते हुए समाचार डेस्क में आये और हडबडाते हुए बोले - "कहानी बदलो, कुछ और ढूंढो" । जब मैंने यह सुना तो आप मेरी निराशा की कल्पना नहीं कर सकते । 

मैंने पूछा भी - "हम कहानी क्यों नहीं चला सकते?" । 

रेजीडेंट संपादक ने कहा: "हमें ब्लैकविल से एक कॉल मिला है | उसने हमें कहानी प्रकाशित नहीं करने के लिए अनुरोध किया है। " उनका इशारा अमेरिकी राजदूत रॉबर्ट ब्लैकविल की ओर था | हालांकि मुझे नहीं मालूम कि दूत ने यह कॉल खुद रेजीडेंट संपादक को किया या फिर सीधे समाचार पत्र के मालिकों को किया | अब ध्यान देने की बात यह है कि अमेरिकी लोगों को कैसे पता चला कि हमारा अख़बार सीएनएन की कहानी छापने जा रहा था? 

मैंने अनुमान लगाया कि वे शायद इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों द्वारा भारतीय मीडिया की निगरानी कर रहे हैं। रूस से जुड़े हुए अमरीकी विस्फोटक पत्रकार एडवर्ड स्नोडेन ने 2013 में खुलासा किया था कि अमेरिकी खुफिया एजेंसियों द्वारा जहाँ सबसे ज्यादा घुसपैठ की जाती है, उनमें भारत का स्थान पांचवां है। अतः संभव है एनएसए और सीआईए के कारिंदों ने इस समाचार आपदा के बारे में ब्लैकविल को इशारा किया हो कि भारत में अमेरिका के हित प्रभावित होने वाले हैं । 

हालांकि बाद में मुझे समझ में आया कि इसके पीछे हमारे बीच का ही एक व्यक्ति था । एक पत्रकार जिसने बिल को सचेत किया, और आज वह उसी समाचार पत्र का वरिष्ठ संपादक है । उसकी शिक्षा अमेरिका में हुई थी और उसने अमेरिकी मीडिया आउटलेट्स पर भी काम किया था। वह अपने समाचार पत्र के मालिकों के परिजनों को अमेरिकी पर्यटन बीजा तथा व्यवसाय वीजा दिलवाना सुनिश्चित करता रहा, या यूं कहें कि एक फिक्सर बन गया । 

मैंने स्वयं उसे कई बार फोन पर बात करते हुए और पूछते हुए सुना था, कि इस उस रिश्तेदार के वीज़ा के कार्य में तेजी लायें। मुझे संदेह इसलिए भी हुआ कि वह देर रात तक ऑफिस में ही रहता था, जबकि उसका पृष्ठ प्रेस में जा चुका होता था और उसकी उपस्थिति की आवश्यकता नहीं होती थी। वह कार्यालय परिसर में लंबे समय तक धीरे-धीरे घूमता रहता और मोबाइल फोन उसके कान से चिपका रहता था। इस संपादक ने यह भी सुनिश्चित किया था कि अमेरिका के खिलाफ कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं लिखा जाए । 

एक उदाहरण - 2011 में एक अमेरिकी राजनयिक के बयान के कारण उसके प्रति पूरे देश में घृणा की लहर दौड़ गई थी | उस राजनयिक ने चेन्नई में छात्रों के एक समूह से कहा था कि लंबी ट्रेन यात्रा के बाद उसकी त्वचा भी "तमिलों की तरह काली और गंदी हो गई" | तब इस संपादक ने अपने ब्लॉग में अमेरिकी राजनयिक का बचाव करते हुए लिखा था कि वास्तव में इसका मतलब वह नहीं था, जो समझा गया | 

तो देखिये यहां एक पत्रकार है जो एक विदेशी शक्ति के लिए काम कर रहा है, और इस प्रकार स्पष्ट रूप से भारत के हितों के खिलाफ काम कर रहा है । 

तो यह है लुटियन साम्राज्य की बानगी | 

ऐसे लोगों को प्रेस्टीटयूट न कहा जाये तो क्या कहा जाए, जैसा कि पूर्व सेना प्रमुख और वर्तमान विदेश राज्य मंत्री वी के सिंह ने कहा ? 

( लेखक परिचय - राकेश कृष्णन सिन्हा न्यूज़ीलैंड के एक अग्रणी मीडिया हाउस में पत्रकार हैं। राकेश के आलेखों की विश्वभर में मान्यता है, तथा जाने माने विचारकों और संगठनों द्वारा उन्हें उद्धृत किया जाता है जिनमें नौसेना स्नातकोत्तर स्कूल – कैलिफ़ोर्निया, यूएस आर्मी वार कॉलेज - पेंसिल्वेनिया; न्यू जर्सी स्टेट यूनिवर्सिटी; अंतर्राष्ट्रीय और सामरिक संबंध संस्थान - पेरिस; बीबीसी वियतनाम; साइबेरियाई संघीय विश्वविद्यालय – क्रास्नोयार्स्क सेंटर फॉर एयर पावर स्टडीज - नई दिल्ली; रक्षा विश्लेषण संस्थान - वर्जीनिया; स्टिमसन सेंटर - वाशिंगटन डीसी; विदेश नीति अनुसंधान संस्थान - फिलाडेल्फिया; और रणनीतिक, राजनीतिक, सुरक्षा और आर्थिक परामर्श संस्थान – बर्लिन, शामिल है । 

उनके कुछ लेख सेंटर फॉर लैंड वारफेयर स्टडीज - नई दिल्ली; फाउंडेशन इंस्टीट्यूट फॉर ईस्टर्न स्टडीज़ - वॉरसॉ और यूरोपीय एंड अमेरिकी स्टडीज - ग्रीस द्वारा भी प्रकाशित किए गए हैं । 

प्रस्तुत आलेख इंडिया फेक्ट्स डॉट ओआरजी द्वारा प्रकाशित उनके एक बड़े आलेख “Nexus in Lutyens: Meet the Forces that Conspire Against India” के एक अंश का हिंदी अनुवाद है | आलेख के शेष अंश भी क्रांतिदूत पर उपलब्ध हैं, जिनकी लिंक इस आलेख के अंत में दी गई है | मीडिया घरानों की कार्यपद्धति और भारत तोड़ो गेंग से उनकी निकटता का मूल कारण, इन आलेखों में स्पष्ट किया गया है | )

एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें