वीर सावरकर की ऐतिहासिक छलांग

अंग्रेजों के विरुद्ध लड़े गये भारत के स्वाधीनता संग्राम में वीर विनायक दामोदर सावरकर का अद्वितीय योगदान है । उन्होंने अपनी जान जोखिम में डालकर देश ही नहीं, तो विदेश में भी क्रान्तिकारियों को तैयार किया । इससे अंग्रेजों की नाक में दम हो गया । अतः ब्रिटिश शासन ने उन्हें लंदन में गिरफ्तार कर मोरिया नामक पानी के जहाज से मुंबई भेजा, जिससे उन पर भारत में मुकदमा चलाकर दंड दिया जा सके ।

लेकिन सावरकर बहुत जीवट व्यक्ति थे । उन्होंने ब्रिटेन में ही अंतरराष्ट्रीय कानूनों का अध्ययन किया था ।

8 जुलाई 1910 को जब वह जहाज फ्रांस के मार्सेलिस बंदरगाह के पास लंगर डाले खड़ा था, तो उन्होंने एक साहसिक निर्णय लेकर जहाज के सुरक्षाकर्मी से शौच जाने की अनुमति मांगी ।

अनुमति पाकर वे शौचालय में घुस गये तथा अपने कपड़ों से दरवाजे के शीशे को ढककर दरवाजा अंदर से अच्छी तरह बंद कर लिया । शौचालय से एक रोशनदान खुले समुद्र की ओर खुलता था । सावरकर ने रोशनदान और अपने शरीर के आकार का सटीक अनुमान किया और समुद्र में छलांग लगा दी ।

बहुत देर होने पर सुरक्षाकर्मी ने दरवाजा पीटा और कुछ उत्तर न आने पर दरवाजा तोड़ दिया; पर तब तक तो पंछी उड़ चुका था । सुरक्षाकर्मी ने समुद्र की ओर देखा, तो पाया कि सावरकर तैरते हुए फ्रांस के तट की ओर बढ़ रहे हैं । उसने शोर मचाकर अपने साथियों को बुलाया और गोलियां चलानी शुरू कर दी ।

कुछ सैनिक एक छोटी नौका लेकर उनका पीछा करने लगे; पर सावरकर उनकी चिन्ता न करते हुए तेजी से तैरते हुए उस बंदरगाह पर पहुंच गये । उन्होंने स्वयं को फ्रांसीसी पुलिस के हवाले कर वहां राजनीतिक शरण मांगी । अंतरराष्ट्रीय कानून का जानकार होने के कारण उन्हें मालूम था कि उन्होंने फ्रांस में कोई अपराध नहीं किया है, इसलिए फ्रांस की पुलिस उन्हें गिरफ्तार तो कर सकती है; पर किसी अन्य देश की पुलिस को नहीं सौंप सकती । इसलिए उन्होंने यह साहसी पग उठाया था । उन्होंने फ्रांस के तट पर पहुंच कर स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया । तब तक ब्रिटिश पुलिसकर्मी भी वहां पहुंच गये और उन्होंने अपना बंदी वापस मांगा ।

सावरकर ने अंतरराष्ट्रीय कानून की जानकारी फ्रांसीसी पुलिस को दी । बिना अनुमति किसी दूसरे देश के नागरिकों का फ्रांस की धरती पर उतरना भी अपराध था; पर दुर्भाग्य से फ्रांस की पुलिस दबाव में आ गयी । ब्रिटिश पुलिस वालों ने उन्हें कुछ घूस भी खिला दी । अतः उन्होंने सावरकर को ब्रिटिश पुलिस को सौंप दिया । उन्हें कठोर पहरे में वापस जहाज पर ले जाकर हथकड़ी और बेड़ियों में कस दिया गया । मुंबई पहुंचकर उन पर मुकदमा चलाया गया, जिसमें उन्हें 50 वर्ष कालेपानी की सजा दी गयी ।

अपने प्रयास में असफल होने पर भी वीर सावरकर की इस छलांग का ऐतिहासिक महत्व है । इससे भारत की गुलामी वैश्विक चर्चा का विषय बन गयी । फ्रांस की इस कार्यवाही की उनकी संसद के साथ ही विश्व भर में निंदा हुई और फ्रांस के राष्ट्रपति को त्यागपत्र देना पड़ा । हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में भी इसकी चर्चा हुई और ब्रिटिश कार्यवाही की निंदा की गयी; पर सावरकर तो तब तक मुंबई पहुंच चुके थे, इसलिए अब कुछ नहीं हो सकता था ।

स्वाधीन भारत में सावरकर के प्रेमियों ने फ्रांस शासन से इस ऐतिहासिक घटना की स्मृति में बंदरगाह के पास एक स्मारक बनाने का आग्रह किया । फ्रांस का शासन तथा मार्सेलिस के महापौर इसके लिए तैयार हैं; पर उनका कहना है कि इसके लिए प्रस्ताव भारत सरकार की ओर से आना चाहिए । दुर्भाग्य की बात यह है कि अब तक शासन ने यह प्रस्ताव नहीं भेजा है ।

साभार व्हाट्स एप्प 
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