स्व. गोपालदास नीरज का एक अविस्मरणीय साक्षात्कार - संजय तिवारी

हिंदी कवि मंचो के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि श्री गोपाल दास "नीरज" को गीतों के राजकुमार कहा जाता रहा । 94 वर्ष की आयु में भी बौद्धिक क्षमता से वे परिपूर्ण रहे । पाठ्यक्रमो से लेकर फिल्मो तक ,किताबो से लेकर मंचो तक दुनिया में बहुत से ऐसे लोग मिलते है जो यह स्वीकार करते है कि नीरज को पढने और सुनने के लिए उन्होंने हिंदी सीखी है। पूर्ववर्ती उत्तरप्रदेश सरकार ने उन्हें राज्य मंत्री का दर्जा देकर भाषा संस्थान के अध्यक्ष पद का दायित्व सौपा । स्व. गोपालदास नीरज से संजय तिवारी द्वारा उनकी लंबी रचनायात्रा को लेकर विस्तृत बातचीत की गई थी । उनकी अंतिम स्मृति स्वरुप, प्रस्तुत है उसी बातचीत के प्रमुख अंश -

आपको किसी ने गीतों का राजकुमार कहा तो किसी ने अश्वघोष से आपकी तुलना कर दी , आप खुद को किस रूप रूप में देखते है ?

मैं तो शुद्ध कविता लिखता हूं। शुद्ध कविता में जीवन के बहुत से आयाम आते हैं। कहीं आशा है तो वहीं निराशा भी है, जीवन है तो मृत्यु भी है, कहीं जय है तो कहीं पराजय भी है, कहीं सुख है तो कहीं दुख भी है, संसार का रूप ही द्वंद्वात्मक है। अंधकार के बाद प्रकाश है और प्रकाश के बादअंधकार। क्या है- आध्यात्मिकता? भौतिकता, समन्वय- असमन्वय कहीं! लेकिन मैंने जीवन के सभी पक्षों को उजागर किया है। इसमें निराशा भी आती है, आशा भी आती है, संलिप्तता भी आती है, भोगवाद भी आता है, योगवाद भी आता है। मैंने जीवन को उसकी संपूर्णता में जीया है, इसलिए बहुत सी मेरी कविता में आपको विरोध भी मिलेगा लेकिन साथ-साथ समन्वय है उनमें। शेक्सपियर से एक बार किसी ने पूछा कि आप ट्रेजडी के साथ कॉमेडी क्यों लिखते हैं? तो उन्होंने कहा- आई वांट टू होल्ड मिरर अप टू दी नेचर। मैं प्रकृति के सामने दर्पण लेकर खड़ा हूं, उसमेंट्रेजडी भी है और कॉमेडी भी.

गीतकार से इतर गोपालदास नीरज को किस रूप में देखा जाना चाहिए ?

मेरा जीवन और मेरी पहचान केवल कविता है ,गीत मेरी आत्मा है। मेरा तो अस्तित्व ही कवितामय है। बचपन से ही इसको मैंने अपनी साधना माना है, तप माना है, तपस्या माना है। इसी को मैंने अपना संपूर्ण जीवन दे दिया है, इसलिए कवि के अतिरिक्त मेरा और कोई स्वरूप याद नहींकिया जाएगा। हालांकि मैंने ज्योतिष में भी बहुत अध्ययन किया है, लेकिन ज्योतिषी के रूप में मुझे याद नहीं किया जाएगा। मुझे सिर्फ और सिर्फ एक कवि के रूप में याद किया जाएगा।

उयवस्था से अब तक की अपनी जीवन यात्रा को आप किस रूप में पाते है ?

यौवन में जो ऊर्जा होती है, जो भावनाएं होती हैं वही सृजन में प्रयुक्त होती हैं। जैसे जैसे आदमी बूढ़ा होता है वैसे वैसे सृजन की शक्ति भी कम होती चली जाती है। कविताएं बहुत कम लिख पाता हूं अब, पहले एक महीने में 60-70 कविताएं लिखता था। 70 के दशक के बाद कविता लिखनाकम हो गया, फिर दोहे लिखने लगा, मुक्तक लिखना शुरू कर दिये, हाईकू लिखना शुरू कर दिये, छोटी कविताएं लिखने लगा। जैसे जैसे वृद्धावस्था आती है ऊर्जा कम हो जाती है, और याद रखियेगा- ऊर्जा ही सृजन की शक्ति होती है। जब युवा था ,तब तो मैं था ही युवाओं के लिए लेकिनआज भी मेरे चाहने वाले लाखों करोड़ों में हैं। जितना मैं छपता हूं अपनी पीढ़ी में उतना कोई नहीं छपता। आधा दर्जन प्रकाशक लगातार मेरी रचनाएं छाप रहे हैं, लोग कहते हैं कि कविताओं की पुस्तकें छपती नहीं हैं आजकल, लेकिन मेरी कविताओं के 25-25 संस्करण छप चुके हैं. हर सालएक नया संस्करण आ जाता है। मैं आज भी पढ़ा जा रहा हूं और सुना भी जा रहा हूं। 70 साल हो गये मंच पर,और लोकप्रियता में कोई कमी नहीं ।

भारत में आपको किस कवी ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया ?

मुझे कबीर भी पसंद है और टैगोर भी। टैगोर में उदात्तीकरण तत्व है जो बहुत कम कवियों में मिल पाता है। जीवन भर वो कवि बने रहे और इसलिए बने रहे कि वो विषय बदलते रहे। अगर आप एक ही बात को पकड़ कर बैठ जाएंगे तो उस बात के लिए निष्ठुर हो जाएंगे। टैगोर के अलावा खलील जिब्रान, जिन्होंने धार्मिक आडम्बर के खिलाफ बहुत कुछ लिखा और इसी वजह से उन्हें लेबनान से निकाला गया. हालांकि बाद में उन्हें पैगम्बर समझा गया।

आपको लेकर कई तरह की बाते होती है, विवाद क्यों है ?

मुझे भी हमेशा विवादास्पद माना गया, कोई मुझे निराशावादी समझता है, कोई भोगवादी तो कोई सुरावादी. मैंने लिखा-

हम तो इतने बदनाम हुए इस जमाने में, यारो सदियां लग जाएंगी हमें भुलाने में..

जब जो लिखना था डूब कर लिखा , यह सोच कर नहीं लिखा कि कोई क्या कहेगा। ठीठ साहित्य लिखा , संवेदना लिखा। विवाद का कोई मतलब नहीं। जो विवादास्पद होता है वही लोकप्रिय होता है.

आजकल के कवियों के बारे में क्या कहेंगे ?

आजकल तो अधिकांश कवि ऐसे ही हैं। मंच पर बहुत से गीतकार ऐसे ही हैं. अध्ययन नहीं है इनके पास। जीवन के बारे में अध्ययन नहीं है, साहित्य का कोई गहन अध्ययन नहीं है इनके पास, न देशज साहित्य का और न ही विदेशी साहित्य का। न भारतीय मूल्यों का और न ही भारतीय संस्कृति का अध्ययन है। बस बाजार है जो चला जा रहा है। साहित्य के पतनशील युग में हम जी रहे हैं. आज हर आदमी अर्थ के पीछे भाग रहा है। पेट की भूख के बाद हृदय की भूख लगती है। जिसे घृणास्पद शब्द के तौर पर सैक्स कहा जाता है, हमारे यहां इसे काम कहा गया है। काम एकसृजन शक्ति है।...। ये कविताएं मेरा सृजन हैं- मेरे बच्चे हैं सब। (हंसते हुए) मैंने बच्चे इतने पैदा कर लिए हैं कि अब शक्ति नहीं बची पैदा करने की।

आजकल के कवियों ने सृजन को धन से जोड़ लिया है. वो पैसे के पीछे भाग रहे हैं. सस्ती लोकप्रियता के पीछे भाग रहे हैं।
गीतों की किस्मत में एक दिन ऐसा भी आना था.उतना ही वो महंगा है, जो जितना ज्यादा सस्ता था.

हिंदी कविता और गीतों के मंच पर कितना बदलाव आया है? हास्य व्यंग्य के बारे में क्या कहेंगे?

हास्य व्यंग्य बहुत बड़ी चीज है। आज की सबसे बड़ी आवश्यकता हास्य व्यंग्य है। जैसे-जैसे समाज में विद्रूपताएं आती हैं, भ्रष्टाचार आता है. खाईयां बड़ी-बड़ी होने लगती हैं, तब हास्य व्यंग्य लिखा जाता है। हास्य व्यंग्य का मतलब-हम कुरेद रहे हैं आपको, लेकिन आपको ठीक करने केलिए कुरेद रहे हैं, लेकिन आज हास्य व्यंग्य के नाम पर चुटकुले मिमिक्री या अभिनय ही देखने को मिलता है।

आप जिस हास्य व्यंग्य की बात कर रहे हैं, वो किस पीढ़ी के कवियों तक बचा हुआ था ?

हास्य व्यंग्य के बहुत से कवि हैं - सुरेन्द्र शर्मा हैं, माणिक वर्मा हैं, सुरेश उपाध्याय हैं। ये सब अच्छे हास्य कवि हैं। हास्य के साथ आध्यात्मिक हैं। होशंगाबाद के सुरेश उपाध्याय को अब लोग नहीं जानते, नगण्य से हो गये हैं लेकिन मंच से आरंभ उन्हीं ने किया था। ओम प्रकाश आदित्य तो अब रहे नहीं , अशोक चक्रधर भी अच्छा हास्य लिखते हैं।

दादा अब थोड़ी सी बात फिल्मो पर कर ली जाय। आपने जब फिल्मो में लिखना शुरू किया तो कहा जाता है कि आपने ही 'फ्री वर्स' शैली की शुरुआत की थी। यह किस परिवेश में शुरू हुआ था ?

ग्रेट शो मैन राजकपूर फिल्म 'मेरा नाम जोकर' बना रहे थे। मैं अलीगढ़ के डीएस कॉलेज में लेक्चरर था। बुलावे पर यहां से ६ दिन की छुट्टी लेकर मुंबई गया। राज बोले यार नीरज इस फिल्म का केंद्रीय किरदार जोकर है। उसके लिए गीत लिखना है। तीन दिन तक राज कपूर किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सके। बस सिटिंग के लिए आते और चर्चा करके चले जाते। चौथे दिन मैंने उनसे कहा कि राज सहाब जोकर के लिए गैर परंपरागत गीत लिखना होगा। राज बोले क्यों? तब मैंने कहा कि जोकर से गीत की किसी परिष्कृत शैली की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। वह न तो ठुमरी गाएगा न गजल गाएगा और न कव्वाली गाएगा। राज बोले लेकिन गीत में जीवन दर्शन भी चाहिए। तब मैंने कहा जोकर की हर बात द्विअर्थी होती है। राज बोले कुछ सुनाओ तब मैंने उन्हें अपनी कवि सम्मेलन की शैली गीत 'ऐ भाई जरा देखकर चलो, आगे भी नहीं पीछे भी, दाएं भी नहीं बाएं भी, ऊपर भी नहीं नीचे भी' सुनाया। इसे सुनकर राजकपूर का चेहरा खिल गया। बोले में ऐसा ही कुछ चाह रहा था। हालांकि इस गीत में न तो मुखड़ा था, न अंतरा था। यह गीत की नई शैली थी जिसे राजकपूर ने फिल्म 'आज कल और कल' में भी रिपीट करवाया। बाद में आनंद बख्शी ने भी इस शैली के साथ कई गीत लिखे। जैसे 'अच्छा तो हम चलते हैं'

मंचीय गीत और फिल्मों के लिए गीत लिखने में क्या अंतर है?

फिल्म के लिए गीत लिखना उतना आसान नहीं है जितना कि मंच के लिए लिखते समय है। मंच के लिए गीत लिखते समय सीमाएं आड़े नहीं आती हैं। लेकिन फिल्म के लिए गीत लिखते समय सिचुएशन, धुन, किरदार और फिल्म में उसकी ग्राह्यता जैसे बिंदु ध्यान में रखने पड़ते हैं।उदाहरण के लिए अगर मैं किसी से कहूं कि एक दो तीन हो जाओ तो वह शायद क्या सोचे? लेकिन फिल्म में इसका प्रयोग यूं हुआ कि 'कोई हसीना जब रूठ जाती है तो और भी हसीन हो जाती है, टेशन से गाड़ी जब छूट जाती है तो एक दो तीन हो जाती है' यहां पर आप इन साधारण शब्दोंके प्रयोग से संगीत के साथ पैदा हुआ सौंदर्य देख सकते हैं। इसके अलावा फिल्म में लिखते समय अक्सर पहले धुन बना दी जाती है उस पर गीतकार को लिखना होता है। मैंने भी ऐसे कई संगीतकारों के साथ काम किया जो पहले धुन बना देते थे। लेकिन फिल्म 'मेरा नाम जोकर' के गीत केसाथ अलग ही किस्सा हुआ। 'ऐ भाई जरा देख के चलो' राजकपूर को तो बेहद पसंद आया लेकिन शंकर (शंकर जयकिशन) ने धुन बनाने से इनकार कर दिया। बोले यह कैसा गीत है। तब राजकपूर ने मुझसे मेरे ही अंदाज में गीत पढ़वा कर सुनवाया। बाद में इसी अंदाज को धुन में पिरोया गया।

जब आप किशोर और युवा थे तब आपकी पसंद के गीत और गीतकार कौन थे?

बच्चन उस समय अपने शिखर पर थे। उनका अंदाज और काव्य दोनों ही अविस्मरणीय हैं। इसके अलावा उस समय साहिर लुधियानवी, शकील बदायूंनी, कैफी आजमी, मजरूह सुल्तान पुरी के गीतों का जमाना दीवाना था। साहिर का लिखा फिल्म 'प्यासा' का गीत 'ये महलों ये तख्तों ये ताजों की दुनिया....ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है' मुझे बेहद पसंद होता था। साहिर के इस फिल्म में गीत यथार्थवादी थे। 'जिन्हें नाज है हिंद पर वो कहा हैं' जैसे गीतों ने वंचित वर्ग में ऊर्जा भर दी थी। यही वह दौर था जब फिल्म जगत में समाजवादी विचारधारा का पदार्पण होरहा था। 

आज फिल्मों में आप गीत की क्या स्थिति पाते हैं और इसका भविष्य क्या है?

गीत का भविष्य बेहद शानदार है। गुलजार, प्रसून जोशी सहित कई नए गीतकार शानदार गीत लिख रहे हैं। लोक संस्कृति में रचे बसे गीतों को फिल्मों में ला रहे हैं। फिल्म 'दिल्ली ६' का गीत 'ससुराल गेंदा फूल' ऐसा ही एक गीत है। गीत हमेशा जिंदा रहेगा। (इसी के साथ नीरज शून्य में ताकते हुए अपनी ही कुछ पंक्तियों का उल्लेख करते हैं) मैंने कहा भी है कि 'गीत मर जाएंगे तो क्या यहां रह जाएगा, इक सिसकता आंसुओं का कारवां रह जाएगा'। गीत में स्पंदन है। लय है जीवन है और इनसे मिलने वाला आनंद है। इसलिए गीत की शैली और स्वरूप बदल सकता हैलेकिन आत्मा वही रहेगी।

नई फिल्मों में आपका मनपसंद गीत कौन सा है?

एक फिल्म आई है अभी विलेन (वह एक विलेन का जिक्र कर रहे थे) उसमें एक गीत है 'यूं मिले हो तुम मुझसे जैसे बंजारे को घर। यह गीत बेहद पसंद आ रहा है। यह गीत शायद किसी मिथुन ने लिखा और संगीतबद्धï किया है। मैं इनसे कभी मिला नहीं हूं लेकिन गीत सुनकर लगता है कि इनमें अपार संभावनाएं हैं।

आपके मोबाइल में कौन से गीत की रिंगटोन है?

अंजान के लड़के (वह गीतकार समीर का जिक्र कर रहे थे) ने गीत लिखा है 'बहुत प्यार करते हैं तुमको सनम' वही आजकल मोबाइल में सेट है। हल्के फुल्के अंदाज का अच्छा गीत है।

मुंबई कब से जाना नहीं हुआ? आखिरी गीत कौन सा लिखा था?

टीवी शो के सिलसिले में अक्सर मुंबई जाना होता है। देवानंद की आखिरी फिल्म 'चार्जशीट' में गीत लिखा था 'मेरा इश्क भी तू, मेरा प्यार भी तू;। यह भी इत्तेफाक है कि देव साहब की पहली निर्देशित फिल्म 'प्रेम पुजारी' में भी मैंने गीत लिखे थे और उनकी आखिरी फिल्म में भी मेरा गीत रहा। उनके साथ मेरा करीब ४० साल का साथ रहा। उनके गुजर जाने के बाद मायानगरी से मेरा एक मजबूत ताल्लुक टूट गया।

कोई लक्ष्य जो पूरा न हो सका ?

कविताई।...। इस जन्म में जो लिख सका लिख ली, अब अगले जन्म में लिखूंगा। बेशक मैं कवि ही बनना चाहता हूँ। बेशक! मैं तो चाहता हूं, मृत्यु अंत नहीं है जीवन का। इट इज अनअदर गेट ऑफ अनअदर लाइफ। इस दरवाजे में आप जो इच्छा लेकर जाओगे वैसा ही निकलोगे, ऐसा मेरा मानना है। लाओत्से था, दार्शनिक था- बूढ़ा ही पैदा हुआ वो। जुरथ्रुस्ट था ईरान का, हंसता हुआ पैदा हुआ वो। दिनकर जी की बड़ी सुंदर पंक्तियां हैं-

बड़ा वो आदमी जो जिंदगी भर काम करता है।बड़ी वो रूह जो तन से बिना रोए निकलती है।

मैं यही चाहता हूं कि कविता करते करते इस तन से प्राण निकल जाएं।

आपने भावप्रधान प्रेमगीत लिखे. प्रेम को कैसे परिभाषित करेंगे?

प्रेम के कई पायदान हैं, पहले तो शारीरिक आकर्षण भाव पैदा करते हैं। शरीर से ऊपर उठकर जब वो मन तक पहुंचता है तो वो प्रेम बनता है। प्रेम से ऊपरी दशा भक्ति की होती है, लेकिन भक्ति में भी आदान-प्रदान रहता है. उसके ऊपर सिर्फ आनंद रह जाता है। काम ऊर्ध्वगामी होता है तो आनंद में परिवर्तित हो जाता है, और आखिरकार व्यक्ति प्रेम विश्वप्रेम में परिवर्तित हो जाता है। अपने बारे में कहूं तो-

पूछा गया नाम जब प्रेम से खोजता ही फिरा
किन्तु मिल सका न तेरा ठिकाना कहीं,
ध्यान से बात की तो कहा बुद्धि ने,
सत्य तो है मगर आजमाना नहीं.

आपकी सबसे पसंदीदा रचना-

एक दोहा मुझे बहुत पसंद है:

आत्मा के सौन्दर्य का शब्द रूप है काव्य। मानव होना भाग्य है कवि होना सौभाग्य।

पिछले जन्म का कोई पुण्य था जिसने मुझे कवि बना दिया। इन द बिगनिंग वाज वर्ड एंड वर्ड वाज थॉट। सृष्टि विचारों से बनती है...और कवि विचार सृजन करता है। जब किसी विचार में स्वयं को डुबो दिया जाता है, खो जाया जाता है, तब कविता का जन्म होता है। जब मैं कविता लिखता हूं, तब न हिंदू होता हूं, न मुसलमान होता हूं. सिर्फ शुद्ध-बुद्ध चैतन्य होता हूं। कविता ऐसे ही लिखी जा सकती है।

आपने कई युग देखे हैं, साहित्य के भी और वक्त के भी, लेकिन अभी जो अलगाववाद फैल रहा है उसके बारे में क्या कहेंगे?

राजनीति देश पर शासन करती है, ढ़ांचा तैयार कर सकती है, वो शरीर बनाती है देश का। लेकिन कोई भी शरीर बिना आत्मा के जड़ और निष्ठुर ही होता है। आत्मा का निर्माण तब होगा जब साहित्य का ज्ञान और राजनीति का समन्वय होगा। यह समन्वय बहुत जरूरी है। राजनीति को दिशा तो साहित्य को ही देना होता है। बिना साहित्य का कोई संवेदनशील समाज नहीं बन सकता।

संजय तिवारी
संस्थापक - भारत संस्कृति न्यास (नयी दिल्ली)
वरिष्ठ पत्रकार 

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