सिंहोनिया, मुरेना का ककन मठ शिव मंदिर - शौर्यगाथा का प्रतीक, साथ ही अद्भुत प्रेम कहानी भी |




कम ही लोग जानते हैं कि सोमनाथ विध्वंश करने वाला गजनी का लुटेरा सुलतान महमूद, ग्वालियर के किले को नहीं जीत पाया था और ना ही इस अंचल के किसी देवस्थल को स्पर्श कर सका था | बाम इतिहासकारों ने लिखा कि वह राजपूत राजा से ढाई सौ हाथी नजराना लेकर बिना लूटपाट किये चला गया था | जोकि निरा झूठ का पुलिंदा है | सचाई यह है कि वह तत्कालीन सिंहपानीय नरेश कीर्तिध्वज के हाथों पराजित हुआ था | 

यह कहानी उसी प्रतापी राजा कीर्तिध्वज की है | सिंहपानीय का वर्तमान नाम सिंहोनिया है, जहाँ स्थित है एक विशाल शिवमंदिर ककनमठ | मध्ययुगीन काल में जब बना तब इसका नाम था कंकनमठ, जो अपभ्रंश होकर ककन मठ रह गया | इस्लामी आक्रमण की संभावना से सुविज्ञ जनों की प्रेरणा से अंचल के राजपरिवारों ने एकजुट होने की ठानी | सिंहोनिया, श्योपुर और नरवर पर उस समय कच्छपघात वंशीय राजपरिवारों का शासन था, तो मालवा में परमार वशी शासक थे | इन लोगों ने तय किया कि मालवा नरेश सिन्धुराज और सिंहपानीय नरेश मंगलराज के परिवारों के बीच विवाह सम्बन्ध स्थापित हो जाएँ तो यवनों के आक्रमण का अधिक शक्ति से सामना किया जा सकता है | 

किन्तु वे अनभिज्ञ थे कि सिंहपानीय के युवराज कीर्तिराज अपने गुरू ह्रदयशिव के आश्रम में दीक्षा लेते समय एक तरुणी कंकन को मगर के मुंह से बचाने के बाद अपना ह्रदय उसे समर्पित कर चुके थे | कंकन, सिंहपानीय नरेश मंगलराज के अप्रतिम योद्धा व ग्वालियर दुर्ग विजेता दुर्गसेन की पौत्री थी, जो अपनी विधवा सन्यासिनी मां के साथ ऋषि ह्रदयशिव के आश्रम में रह रही थी | 

गुरू आश्रम से वापस आने के बाद जब युवराज कीर्तिराज को ज्ञात हुआ कि पिता महाराज ने तो उनका विवाह मालव राज पुत्री सुदेष्णा से तय कर दिया है, तो उसने अपना संताप अपनी मां पर जाहिर कर दिया | मां से पुत्र का दुःख नहीं देखा गया, साथ ही राजगुरू ह्रदयशिव भी युवराज का विवाह कंकन से करने के इच्छुक थे | राजा मंगलराज अब धर्मसंकट में पड़ गए | मध्यमार्ग निकाला गया कि मालव नरेश को सन्देश भेजा जाए कि शिव मंदिर निर्माण का एक पुराना संकल्प है, अतः मंदिर निर्माण के बाद ही विवाह हो | और मंदिर निर्माण जोरशोर से शुरू हुआ | 

किन्तु मालव नरेश को ज्ञात हो गया कि विवाह टालने के पीछे मुख्य कारण कुछ और ही है | यद्यपि उन्हें मनाने के प्रयत्न भी हुए | उनसे कहा गया कि चूंकि कंकन भी परमार वंशी ही है, अतः उसका कन्यादान वे लेकर विवाह संपन्न कराएं | किन्तु सिन्धुराज तो अपमान की आग में जल रहे थे | उन्होंने सिंहपानीय पर आक्रमण कर दिया | मार्ग में आचार्य ह्रदयशिव का आश्रम भी था, उसका भी ध्वंश कर दिया | कंकन और उसकी मां किसी प्रकार जान बचाकर वहां से भागने में सफल रही | 

मालव सैन्य बल संख्याबल में अधिक था, अतः प्रारंभिक दौर में उसे सफलता मिली | स्वयं महाराज मंगलराज गंभीर घायल हो गए और उनकी जगह युवराज कीर्ति राज ने युद्ध का मोर्चा संभाला | एक और बात हुई कि ऋषि आश्रम ध्वंश के कारण स्थानीय जनता भी मालव नरेश सिन्धुराज के विरुद्ध हो गई | जब सेना के साथ आमजन भी युद्ध पर आमादा हो जाए तो, शत्रु की पराजय सुनिश्चित हो जाती है | कुछ ऐसा ही हुआ | कंकन और उसकी मां को उनके दादा का एक पुराना सेनापति रक्षक के रूप में मिल गया | उसके बेटों के साथ स्वयं कंकन भी युद्ध में कूद पड़ी और संयोग देखिये कि स्वयं मालव नरेश पुरुष वेशी कंकन के हाथों गंभीर घायल हो गए और पराजित मालव सेना वापस भागने को विवश हुई | 

युद्ध तो जीता गया किन्तु सिंहपानीय नरेश मंगल राज वीरगति को प्राप्त हुए | कीर्ति राज अब युवराज से महाराज बन गए किन्तु उन्हें कंकन के विषय में कुछ पता नहीं चल रहा था कि वह कहाँ गई | उधर पराजित मालव नरेश के पुत्र युवराज भोज अत्यंत समझदार और विद्वान थे | उन्हें आसन्न यवन संकट का भान था | अतः उन्होंने पुनः सभी क्षत्रियवंशीयों में मित्रता का प्रयत्न पुनः प्रारम्भ किया | कीर्तिराज भी इस कार्य में उनके सहयोगी हुए | वह पुराना प्रस्ताव कि कंकन का कन्यादान मालव नरेश करें, अब स्वीकृत हो गया | कंकन का मिलना, भव्य शिव मंदिर का निर्माण और उसका नाम कंकन मठ रखा जाना, कीर्तिराज और कंकन का विवाह, महमूद का आक्रमण और चम्बल व मालवा के संयुक्त सैन्य बल के हाथों उसकी पराजय का विषद वर्णन तो उपन्यास की ही विषय वस्तु है | उसे कहानी में नहीं समेटा जा सकता |

ककन मठ मंदिर में गारे या चूने का कहीं प्रयोग नहीं हुआ। पूरा मंदिर केवल पत्थरों पर टिका है, लेकिन इतना संतुलित है कि आंधी तूफान का भी इस पर कोई असर नहीं होता। कहा जाता है कि शालभंजिका की विश्वप्रसिद्ध मूर्ति भी यहाँ से ही ले जाई गई है, तथा ग्वालियर दुर्ग के अंदर मंदिर के बाहर की सिंह मूर्तियाँ भी यहाँ की ही हैं |