आपातकाल का पुनर्स्मरण - भाग -2 – द्वारा श्री अरुण जेटली



आपातकाल के दौरान हुए अत्याचारों की कहानी, केंद्रीय मंत्री श्री अरुण जेटली की जुबानी ! 

26 जून, 1975 को आपातकाल लगाए जाने के बाद श्रीमती इंदिरा गांधी ने अनुच्छेद 359 के तहत मौलिक अधिकारों को निलंबित करने की घोषणा जारी की। इसके परिणामस्वरूप, अभिव्यक्ति की आजादी और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार समाप्त हो गया। केवल सेंसर्ड समाचार ही उपलब्ध होते थे । 29 जून को, भारत में लोकतंत्र के निलंबन से ध्यान हटाने के लिए, उन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था के पुनरुत्थान के लिए एक बीस सूत्रीय कार्यक्रम की घोषणा की। किन्तु वास्तव में, इस बीस सूत्री कार्यक्रम ने आर्थिक ढाँचे को और कमजोर कर दिया, यही कारण था कि 1991 के बाद आर्थिक सुधारों में इन्हें उलट गया । पूरे देश में हजारों राजनीतिक विरोधियों, पत्रकारों और शिक्षाविदों को हिरासत में लिया गया । क्षमता से बहुत अधिक कैदी ठूंसे जाने के कारण जेलों की स्थिति अत्यंत त्रासद हो गई । 

मुझे एक सप्ताह तक दिल्ली की तिहाड़ जेल में रखने के बाद, बीस अन्य बंदियों के साथ अंबाला सेंट्रल जेल में स्थानांतरित कर दिया गया। हिरासत के नियमों की शर्तों के तहत, हमारे लिए जो दैनिक राशन मुहैय्या कराया जाता था, उसमें ही हम सबको भोजन का प्रबंधन करना पड़ता था । दैनिक भोजन के लिए प्रतिदिन महज तीन रुपये का राशन दिया जाना प्रस्तावित था । इस प्रकार, यदि वार्ड में बीस बंदी थे, तो सुबह की चाय, नाश्ता, दोपहर का भोजन, शाम की चाय और रात के खाने के लिए साठ रुपये की खाद्य सामग्री में अपना भोजन प्रबंधन करना पड़ता था । महीनों आंदोलन करने के बाद, इस राशि में महज पांच रुपये प्रतिव्यक्ति की बढ़ोतरी की गई । प्रारंभिक कुछ महीनों तक तो परिवार के सदस्यों को भी मिलने की अनुमति नहीं थी। कुछ महीनों के बाद, परिवार के सदस्यों को महीने एक बार कुछ मिनटों के लिए मिलने की अनुमति दी गई, जिसे बाद में साप्ताहिक कर दिया गया । मैं उस समय क़ानून का विद्यार्थी था तथा मुझे अंतिम वर्ष की परिक्षा देनी थी । ऐसे ही कई मामलों में बंदियों ने अपनी हिरासत को रद्द करने के लिए याचिका दायर की थी। मैंने भी इसी तरह की याचिका दायर की। इसके बाद, मैंने बार बार कोर्ट से आग्रह किया कि मुझे जेल से ही अपनी कानून की अंतिम वर्ष की परीक्षा देने की अनुमति प्रदान की जाए, लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय ने नियमों के हवाले से कहा कि परीक्षा देने के लिए परीक्षा केंद्र में व्यक्तिगत उपस्थिति आवश्यक है। मेरी याचिका कि मुझे अपनी परीक्षा देने के लिए पुलिस हिरासत में परीक्षा केंद्र में ले जाया जाए, इस आधार पर सरकार ने खारिज कर दी कि परीक्षा केंद्र में मेरी उपस्थिति सार्वजनिक व्यवस्था के लिए खतरा है। इसलिए उन्नीस महीनों की हिरासत के दौरान, मेरे एक अकादमिक वर्ष का नुकसान हुआ और दूसरा भी खोने के कगार पर था। इस मुकदमे के कारण, मैं अंबाला से तिहाड़ जेल वापस स्थानांतरित होने में अवश्य कामयाब रहा। 

बाहर देश में भय और आतंक का माहौल छाया हुआ था। राजनीतिक गतिविधियां पूरी तरह थम गई थीं । असंतोष मुख्य रूप से विपक्षी दल और आरएसएस के राजनीतिक कार्यकर्ताओं में था । उन्होंने बार-बार सत्याग्रहों का आयोजन किया, जिनमें कई लोगों ने गिरफ्तारियां दीं । शिरोमणि अकाली दल को श्रेय जाता है कि आपातकाल के दौरान हर दिन स्वर्ण मंदिर के बाहर सत्याग्रह कर उनके कार्यकर्ताओं ने स्वयं को गिरफ्तारी के लिए प्रस्तुत किया । उसके कारण अकाली दल ने पूरे देश में एक बड़ा सम्मान अर्जित किया। आरएसएस जिसे गलत तरीके से प्रतिबंधित किया गया था, उसके कार्यकर्ताओं ने भी बड़ी संख्या में सत्याग्रह किया । 

पत्रकार जगत पूरी तरह से आतंकित था। अधिकांश संपादकों और पत्रकारों ने तानाशाही के इस विचार के सम्मुख आत्मसमर्पण कर समझौता किया। कांग्रेस पार्टी के अख़बार "नेशनल हेराल्ड" ने संपादकीय टिप्पणी की कि भारत में एकदलीय लोकतंत्र विकसित होने का उपयुक्त समय आ गया है। श्रीमती गांधी ने स्वयं को भारत का अभिभावक बताते हुए कहा कि भारत का लोकतंत्र अब "अनुशासित लोकतंत्र" में दीक्षित हो रहा है । अपने आप को बचाने के लिए आचार्य विनोबा भावे ने आपातकाल को "अनुशासन पर्व" कहा। हालांकि, मीडिया में असंतोष भी था । इंडियन एक्सप्रेस और द स्टेट्समैन ने आपातकाल के खिलाफ असंतोष को प्रगट करने में ऐतिहासिक भूमिका निभाई। राम नाथ गोयनका, सीआर ईरानी और संपादक कुलदीप नैय्यर आपातकाल के दौरान प्रेस स्वतंत्रता के प्रतीक बन गए। 

क्या आपातकाल की स्क्रिप्ट पूर्व में ही तैयार कर ली गई थी? 


2015 में आपातकाल पर लिखी गई पत्रकार कुमी कपूर की पुस्तक प्रकाशित हुई, जिसमें सिद्धार्थ शंकर रे के वे हस्तलिखित दस्तावेज शामिल है, जिनमें उन्होंने श्रीमती गांधी से गिरफ्तार किए जाने वाले संभावित व्यक्तियों की सूचियां तैयार करने और विभिन्न अन्य कदमों की रूपरेखा तैयार करने का अनुरोध किया गया था । दस्तावेजों पर 8 जनवरी, 1975 का दिनांक अंकित था । 

हैरत की बात है कि उसी समय अर्थात जनवरी 1975 में ही, केआर मलकानी द्वारा संपादित दैनिक समाचार पत्र "मातृभूमि", के मुखपृष्ठ पर भी, जनसंघ सांसद और ज्योतिषी डॉ. वसंत कुमार पंडित का ज्योतिषीय गणना के आधार पर एक आलेख प्रकाशित किया गया, जिसमें आपातकाल की घोषणा, समूचे विपक्षी सदस्यों की गिरफ्तारी, मीडिया पर सेंसरशिप और भारत के एक निरंकुश राज्य बनने की भविष्यवाणी की गई थी । प्रकाशित होने पर, मुझे इस ज्योतिषीय भविष्यवाणी पर विश्वास करना मुश्किल लगता था। आपातकाल के दौरान, जेल में मेरे साथी मीसाबंदियों में स्वयं केआर मलकानी भी थे। मलकानी ने मुझे बताया कि जब 26 जून की आधी रात को उन्हें गिरफ्तार किया गया, तो उन्हें तीन दिनों तक हरियाणा के गेस्ट हाउस में रखा गया, जबकि अन्य सीधे रोहतक जेल भेजे गए | मलकानी को तीन दिनों बाद जेल पहुंचाया गया । उन तीन दिनों के दौरान, खुफिया एजेंसियों द्वारा उस जानकारी के स्रोत को जानने का प्रयत्न किया गया, जिसके आधार पर उन्होंने आपातकाल की भविष्यवाणी करने वाला एक लेख प्रसारित किया था ! एजेंसियों का मानना था कि यह सरकारी गुप्त सूचना का रिसाव था और वे इस मामले की जांच कर रहे थे । 

हालांकि, मलकानी ने लगातार यही कहा कि यह केवल एक ज्योतिषीय भविष्यवाणी भर थी। कुल मिलाकर, मुझे अवश्य यह भरोसा हो गया कि आपातकाल के लिए स्क्रिप्ट जनवरी, 1975 के आसपास तैयार की गई थी, जिसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले और श्रीमती गांधी में बढ़ी असुरक्षा की भावना के कारण त्वरित अमल में ले आया गया । 

क्या यह स्क्रिप्ट 1933 में नाज़ी जर्मनी में हुई घटना से प्रेरित थी? 

30 जनवरी, 1933 को हिटलर जर्मनी के चांसलर बने। संसद में उनका पूर्ण बहुमत नहीं था। 28 फरवरी को, उन्होंने अपने राष्ट्रपति को संविधान के अनुच्छेद 48 के तहत 'राज्य में लोगों की सुरक्षा' हेतु आपातकालीन शक्तियां दीं। इन आपातकालीन शक्तियों में व्यक्तिगत स्वतंत्रता, मुक्त भाषण, असेंबली के अधिकार, एसोसिएशन, गोपनीयता का उल्लंघन, घरों की तलाशी और संपत्ति और अन्य सभी अधिकारों पर प्रतिबंध लगाए। जिस समय आपातकाल लगाने संबंधी बहस जारी थी, उसी समय 27 फरवरी को जर्मन संसद भवन को, जिसे "रीचस्टैग" के नाम से जाना जाता था, आग लगा दी गई । हिटलर ने दावा किया कि यह सरकारी भवनों और संग्रहालयों को जलाने का एक कम्युनिस्ट षड्यंत्र था। तेरह साल बाद, नूर्नबर्ग परीक्षणों में, यह स्थापित किया गया कि रीचस्टैग की आग नाज़ियों और गोएबेल की ही कार्ययोजना थी । हिटलर ने लगातार यही प्रचारित किया कि उसका कार्य पूर्णतः संविधान सम्मत था। श्रीमती गांधी ने अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल लगाया, अनुच्छेद 359 के तहत मौलिक अधिकारों को निलंबित किया और दावा किया कि "देश में विपक्षी दलों द्वारा अराजकता फैलाने की योजना बनाई गई थी"। सुरक्षा बलों को अवैध आदेशों का उल्लंघन करने के लिए कहा जा रहा था और इसलिए, देश के बड़े हित में, भारत को "अनुशासित लोकतंत्र" बनना पड़ा। 

हिटलर और श्रीमती गांधी दोनों ने ही कभी भी संविधान को रद्द नहीं किया। उन्होंने लोकतंत्र को तानाशाही में बदलने के लिए गणतांत्रिक संविधान का उपयोग किया। 

हिटलर ने अधिकांश विपक्षी संसद सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया और इसप्रकार अपनी अल्पसंख्यक सरकार को संसद में बहुमत वाली सरकार में परिवर्तित कर दिया, इतना ही नहीं तो दो-तिहाई बहुमत से विस्तृत संविधान संशोधन द्वारा एक व्यक्ति में ही सभी शक्तियों को निहित कर दिया । श्रीमती इंदिरा गांधी ने भी संसद के अधिकांश विपक्षी सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया और उनकी अनुपस्थिति से उनके पास उपस्थित सदस्यों का दो तिहाई बहुमत हो गया और वे संविधान संशोधन के माध्यम से कई अप्रिय प्रावधानों को पारित करने में सक्षम हो गईं । चालीस-दूसरे संशोधनों के माध्यम से याचिकाओं पर आदेश पारित करने की उच्च न्यायालयों की शक्ति को कमजोर कर दिया गया | यह एक ऐसी शक्ति थी, जिसे डॉ अम्बेडकर ने भारत के संविधान का दिल और आत्मा बताया था । उन्होंने अनुच्छेद 368 में भी संशोधन किया ताकि ये संविधान संशोधन न्यायिक समीक्षा से परे हो। 

ऐसी कुछ चीजें भी थीं जिन्हें हिटलर ने भी नहीं किया था, लेकिन श्रीमती गांधी ने किया । उन्होंने मीडिया में संसदीय कार्यवाही के प्रकाशन पर रोक लगा दी। स्मरणीय है कि संसदीय कार्यवाही प्रकाशित करने के लिए मीडिया को अधिकार देने वाले कानून को आमतौर पर “फिरोज गांधी विधेयक: के नाम से जाना जाता था, क्योंकि उसे स्व.श्री फिरोज गांधी द्वारा संसद में उठाये गए “हरिदास मुंद्रा घोटाले” प्रकरण के बाद उनके ही विशेष आग्रह पर लागू किया गया था । चूंकि हिटलर ने स्वयं को चुनाव से प्रथक रखा था, अतः इस संबंध में उसने कोई बदलाव नहीं किया था। श्रीमती गांधी ने संविधान और जन प्रतिनिधित्व अधिनियम दोनों में संशोधन किया। संविधान संशोधन द्वारा प्रधान मंत्री के गैर-न्यायसंगत चुनाव को भी अदालत के दायरे से बाहर कर दिया गया । जन प्रतिनिधित्व अधिनियम के प्रावधानों को भूतलक्षी प्रभाव से संशोधित किया गया, ताकि श्रीमती गांधी के अवैध चुनाव कानून में बदलाव हो सकें। हिटलर के विपरीत, श्रीमती गांधी भारत को 'राजवंशी लोकतंत्र' में बदलने के लिए आगे बढीं। 

गोएबेल ने दावा किया था कि "जर्मन क्रांति अभी शुरू हुई है"। सभी भारतीय राजदूतों और उच्चायुक्तों को यह प्रचार करने के लिए कहा गया कि भारत में जो कुछ भी हो रहा था, वह किसी “क्रांति” से कम नहीं था। भारत और जर्मनी में लगाए गए प्रेस सेंसरशिप कानून लगभग समान थे। यह और कुछ नहीं “एक दलीय सिस्टम” को प्रभावी बनाना भर था। 

नाजी नेता जोआचिम रिबेंट्रोप, जो बाद में हिटलर के विदेश मंत्री बने, ने एक नई कानूनी व्यवस्था की आवश्यकता पर बल दिया था । उन्होंने तर्क दिया था कि सिस्टम को प्रतिस्थापित करने की आवश्यकता है क्योंकि उसमें "एडॉल्फ हिटलर को भी, जन सामान्य के समान ही दंडात्मक कानून के तहत लाने की कोशिश की जा सकती है"। इंदिरा गांधी ने भी संविधान में 39 वें संशोधन द्वारा प्रधान मंत्री के चुनाव को चुनौती देना रोककर और प्रधान मंत्री को अभियोजन से परे घोषित कर, एक प्रकार से इसी सुझाव को लागू किया था । 

सबसे अधिक आपत्तिजनक परिवर्तन तो संसद के कार्यकाल को दो साल तक बढ़ा देना था। संविधान के तहत भारतीय लोकसभा पांच वर्ष की अधिकतम अवधि के लिए चुनी जाती हैं। यह भारत के संप्रभु - लोगों द्वारा प्रदत्त सीमित अधिकार क्षेत्र है। यह स्वयं अपने अस्तित्व को कायम नहीं रख सकता, लेकिन यह किया गया । वास्तव में 1971 से 1977 तक लोकसभा छह ​​साल तक चली। बाद में जनता सरकार द्वारा इस संशोधन को उलट दिया गया। 

एक नाजी नेता ने घोषणा की थी "जर्मनी में आज केवल एक ही अधिकार है और यह है फूहरर का अधिकार "। एआईसीसी अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने भी घोषणा की कि "इंदिरा ही भारत है और भारत ही इंदिरा है"। जयप्रकाश नारायण ने हिरासत से ही श्रीमती गांधी को लिखे एक पत्र में लिखा "अपने आप को देश न समझें। भारत अमर है, आप नहीं हैं "। स्क्रिप्ट में सबसे चौंकाने वाली समानता यह थी कि नाजी काल में आदेश जारी किए गए थे कि गेस्टापो की कार्रवाई न्यायिक समीक्षा के अधीन नहीं की जा सकती। गेस्टापो हिटलर की ख़ुफ़िया पुलिस थी। जब हमने उच्च न्यायालय के समक्ष हेबियस कॉर्पस की याचिका दायर की, तो सरकार ने तर्क दिया कि जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार का एकमात्र कारक अनुच्छेद 21 था, जिसे निलंबित कर दिया गया, अतः न तो जीवन और ना ही स्वतंत्रता का कोई अधिकार है। यहां तक ​​कि यदि जीवन और स्वतंत्रता से अवैध रूप से वंचित किया जाए, तो भी नागरिक के पास बचाव का कोई उपाय नहीं था। किन्तु उच्च न्यायालयों ने नागरिकों के पक्ष में फैसला किया। जब इस तर्क को सुप्रीम कोर्ट के सामने दायर अपील में उठाया गया, तो न्यायमूर्ति एचआर खन्ना ने अटॉर्नी जनरल, निरेन डी से पूछा, अगर किसी व्यक्ति को अवैध हत्या की धमकी दी जाती है, तो क्या उसके पास आपातकाल के दौरान कोई कानूनी उपाय है या नहीं ? 

निरेन डी ने तुरंत जवाब दिया "मेरा जवाब मेरे खुद के विवेक को झटका देता है। यह आपके विवेक को भी झटका देगा। लेकिन मेरे तर्कों का प्राकृतिक अनुशासन यह है कि उनके पास कानून में कोई उपाय नहीं है "। 

न्यायमूर्ति खन्ना ने अपनी सेवानिवृत्ति के कुछ साल बाद मुझे बताया कि जब यह जवाब आया, तो उन्होंने अपने चार अन्य सहयोगियों को इस उम्मीद से देखा कि शायद उनके विवेक को भी झटका लगा होगा । लेकिन जब चार अन्य ने दूसरे तरीके को देखना चुना, तो न्यायमूर्ति खन्ना ने समझ लिया कि वे किस तरह से निर्णय लिखने जा रहे थे। आखिरकार, सभी उच्च न्यायालयों के सर्वसम्मत फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने न्यायमूर्ति खन्ना के विमत के साथ निर्रेन डी के असंगत तर्क को स्वीकार कर पलट दिया । अपने असंतोष को व्यक्त कर न्यायमूर्ति खन्ना एक जीवित किंवदंती बन गये। उन्होंने लिखा था कि उनका असंतोष कानून की उग्र भावना और भविष्य की पीढ़ियों की बुद्धि के लिए एक चुनौती के रूप में देखा जाएगा, जो उस त्रुटि को सही कर सकेंगे, जिसे बहुमत ने विफल कर दिया । इस त्रुटि को चवालीसवें संशोधन के माध्यम से बाद में जनता सरकार द्वारा विधायी रूप से सही किया गया, जिसने अनुच्छेद 21 को स्थाई बना दिया लेकिन हेबियस कार्पस मामले में, भविष्य की पीढ़ियों की बुद्धिमत्ता का नेतृत्व वर्तमान सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश धनंजय चंद्रचुद ने किया, और बहुमत की राय को उलट दिया और विशेष रूप से अपने पिता के ही फैसले को खत्म कर दिया । 

चुनावी मामला 

चुनावी मामला एक और न्यायिक राक्षस बन गया। श्रीमती गांधी के चुनाव को कानूनी रूप से मान्य करने के लिए संविधान और जन प्रतिनिधित्व अधिनियम दोनों को पीछे के काल से संशोधित किया गया । किन्तु परिश्रमी शांति भूषण ने हार नहीं मानी। उन्होंने तर्क दिया कि एक स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव, संविधान की मूल संरचना का एक हिस्सा है और एक अवैध चुनाव को मान्य करने से संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन होगा। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने श्रीमती गांधी की मदद के लिए एक कानूनी रास्ता निकाला । उन्होंने कहा कि मूल संरचना सिद्धांत का उपयोग केवल संविधान संशोधन का परीक्षण करने के लिए किया जा सकता है, न कि सामान्य कानून के लिए । इसलिए उन्होंने संविधान के उन्तालीसवें संशोधन को तो अमान्य किया, किन्तु साथ ही यह भी कहा कि सामान्य कानून की बुनियादी संरचना को बेसिक कानून के पैमाने पर परीक्षण नहीं किया जा सकता । इसलिए संशोधित जन ​​ प्रतिनिधित्व अधिनियम के प्रावधान श्रीमती गांधी पर लागू होंगे और इसलिए उनका चुनाव भूतपूर्व संशोधन के तहत मान्य था। दो-तिहाई बहुमत से संसद क्या नहीं कर सकती, जबकि यह तो साधारण बहुमत से भी किया जा सकता था। हालांकि कानून के इस प्रावधान को बाद में खारिज कर दिया गया । 

पूर्ण शक्ति पूर्ण भ्रष्ट करती है 

पूर्ण शक्ति पाकर मदमत्त सरकार ने हर संस्थान पर अत्याचार किया। देश में कब्रिस्तान जैसी चुप्पी देखी गई। एकमात्र विरोध अस्तित्व शून्य विपक्षी कार्यकर्ताओं की ओर से किया गया । उच्च न्यायालय अडिग था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट हस्तक बन गया था । उच्च न्यायालय के चौदह स्वतंत्र न्यायाधीशों को दूसरे उच्च न्यायालयों में स्थानांतरित कर दिया गया। 

श्रीमती गांधी के छोटे बेटे संजय गांधी ने कांग्रेस पार्टी और युवक कांग्रेस पर पूरी तरह कब्जा कर लिया। युवक कांग्रेस अपने आप में एक कानून बन गई। इसके 'कामकाज ने समाज को आतंकित किया। हिटलर ने पच्चीस सूत्री आर्थिक कार्यक्रम की घोषणा की थी। श्रीमती गांधी ने बीस की घोषणा की । इस अंतर को दूर करने के लिए संजय ने प्रथक से अपने आर्थिक और सामाजिक कार्यक्रम के पांच बिंदुओं की घोषणा की। असहमति पाप बन गई और चाटुकारिता क़ानून । फिल्म अभिनेता, गायक और पार्श्व गायकों को युवक कांग्रेस और उसके सहयोगियों से जुड़ने के लिए कहा गया । जिन्होंने इनकार किया, उन्हें तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री, विद्याचरण शुक्ला से धमकी मिलती थी । एक उल्लेखनीय प्रकरण पार्श्वगायक किशोर कुमार को ऑल इंडिया रेडियो द्वारा ब्लैकलिस्ट किया जाने का था, जिन्होंने युवक कांग्रेस की रैलियों में गाने से इनकार किया, तो उनके गीत ऑल इंडिया रेडियो पर प्रसारित किये जाने बंद कर दिए गए । देवानंद ने अपनी आत्मकथा में उल्लेख किया कि जब उन्होंने और दिलीप कुमार ने युवक कांग्रेस की रैली में शामिल होने से इनकार कर दिया, तो विद्या चरण शुक्ला ने दोनों को धमकी दी। लेकिन दोनों ही दृढ़ रहे। गुलजार की बनाई गई फिल्म "आन्धी" पर प्रतिबंध लगा दिया गया । चूंकि पूर्ण शक्ति पूरी तरह से भ्रष्ट होती है, इसलिए एक अत्याचारी शासन सोचता है कि उनके द्वारा की गई हर क्रूरता जायज है । पूरे देश में मकानों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों का बड़े पैमाने पर विध्वंस हो रहा था। चूंकि संजय गांधी का नारा था – जनसंख्या नियंत्रण, अतः जबरिया नसबंदी हो रही थी। जब एक पुलिस जीप गांव में प्रवेश करती, तो गांव के नौजवान जबरिया नसबंदी से डरकर घर छोड़कर भाग जाते और खेतों में अपनी रात गुजारते । आम आदमी जो तानाशाही के राजनीतिक परिणाम को नहीं समझ पाया था, उसे जबरिया नसबंदी ने समझा दिया । जैसा कि किसी ने सही ही कहा : 

दाद देता हूँ मैं मर्द-ए-हिंदुस्तान की, सर कटा सकते हैं लेकिन नस कटा सकते नहीं | 

इस तानाशाही शासन को शायद ही कभी एहसास हुआ हो कि उनका प्रत्येक कार्य उनको लोगों से दूर कर रहा है । सरकार के पास लोगों की प्रतिक्रिया जानने का कोई माध्यम ही नहीं था, थे तो बस चाटुकार लोग, जो बता रहे थे कि उनकी लोकप्रियता दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही है, और कोई विपक्ष तो था ही नहीं । यदि आप अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को रोककर, केवल प्रचार की अनुमति देते हैं, तो प्रचार का पहला शिकार आप ही बनते हैं क्योंकि आप विश्वास करने लगते हैं आपका प्रचार न केवल सत्य है, अपितु पूर्ण सत्य है। 

साभार : Organiser
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